भारत और चीन के सैनिकों के बीच तवांग के यांगस्ते इलाके में झड़प हुई है। इससे पहले मई 2020 में जब पूर्वी लद्दाख के गलवान में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी तब भारत-चीन के बीच सीमा विवाद का मुद्दा जोर-शोर से उठा था। इसके बाद दोनों देशों के बीच कई दौर की सैन्य और राजनीतिक वार्ताओं का दौर भी चला और सीमा पर हालात सामान्य होने की बात कही गई।
लेकिन अब तवांग की इस ताजा घटना ने सीमा विवाद को लेकर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर इस तरह की घटनाएं क्यों होती हैं।
बताना होगा कि दोनों देशों के बीच चार हजार किमी. लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के कई इलाक़ों पर अकसर एक-दूसरे के सैनिकों के द्वारा अतिक्रमण की घटना होती है। अतिक्रमण की घटना इसलिए होती हैं क्योंकि दोनों देशों की सीमाएं निर्धारित नहीं हैं और दोनों की इसे लेकर अपनी-अपनी धारणाएं हैं।
सीमाओं पर गश्त के दौरान जब सेनाएं एक-दूसरे के मान्यता वाले इलाक़े में जानबूझ कर या ग़लती से प्रवेश कर जाती हैं तो सैनिकों के बीच कुछ तनातनी होती है और फिर ध्वज बैठकों या फ्लैग मीटिंग के द्वारा मसलों को सुलझा लिया जाता है।
सामरिक पर्यवेक्षक अक्सर यह कहते हुए संतोष जाहिर करते हैं कि भारत-चीन के सैनिकों ने 1967 के बाद कभी एक-दूसरे पर गोलियां नहीं चलाईं। लेकिन 9 मई को गलवान में एक-दूसरे पर पत्थरबाज़ी की घटना को बेहद गंभीरता से लिया गया था।
1967 की घटना
1967 में सिक्किम की सीमा पर चीनी सैनिकों पर भारतीय सैनिक भारी पड़े थे और चीन ने अपने सैनिकों से संयम बरतने और चुपचाप रहने को कहा था। लेकिन ऐसी स्थिति दोबारा नहीं पैदा हो इस बात की गम्भीर कोशिशें शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद शुरू हुईं। भारत और चीन के बीच 1993 में पहली बार वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर विश्वास पैदा करने वाले उपायों को लागू करने का समझौता हुआ और इसके बाद फिर 1996 में भी इस समझौते को और गहराई दी गई।
दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे पर बढ़ते हुए परस्पर विश्वास के माहौल में न केवल आपसी व्यापार में भारी बढ़ोतरी दर्ज की जाने लगी बल्कि दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व ने भी एक-दूसरे के यहां आने-जाने का सालाना सिलसिला शुरू किया।
इसी माहौल में दोनों देशों के बीच सीमा के निर्धारण के लिये बातचीत का सिलसिला भी शुरू हुआ। 2003 में इस बातचीत को प्रधानमंत्री स्तर पर ले जाने का फ़ैसला किया गया जिसके तहत दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने अपने नुमाइंदे नियुक्त किये। इसके लिये भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और चीनी प्रधानमंत्री ने अपने स्टेट काउंसलर को नियुक्त किया, जिन्हें प्रधानमंत्री का विशेष प्रतिनिधि कहा गया। दोनों विशेष प्रतिनिधियों की अब तक 20 से ज्यादा दौर की बेनतीजा वार्ताएं हो चुकी हैं।
सीमा-समझौता वार्ता किसी मुकाम पर इसलिए नहीं पहुंच रही क्योंकि भारत ड्रैगन की इस शर्त को मानने को तैयार नहीं हो सकता कि वह अरुणाचल प्रदेश का तवांग इलाक़ा उसे सौंप दे।
चूंकि दोनों देशों के बीच सीमा वार्ता किसी नतीजे पर नहीं पहुंच रही है इसलिए इनके सैनिकों के बीच सीमाओं पर झड़पें भी होती रहती हैं। इसकी मिसाल 2013 में लद्दाख के चुमार इलाक़े के दौलतबेग ओल्डी और फिर 2014 में डेमचोक में देखने को मिली जब दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हो गई थीं।
लद्दाख के पानगोंग झील इलाक़े में भी दोनों देशों की सेनाएं अक्सर एक-दूसरे के सामने आ जाती हैं और एक-दूसरे को पीछे धकेलने की कोशिश करती हैं।
डोकलाम की झड़प
2017 के जून में तो हद ही हो गई, जब चीनी सैनिक भूटान के डोकलाम इलाक़े में घुस गए, जहां से वे भारतीय सैन्य चौकियों के लिये ख़तरा पैदा कर रहे थे। इसलिए भारतीय सेना को मजबूरन भूटान के इलाक़े की रक्षा के लिये आगे जाना पड़ा। करीब 72 दिनों तक चली इस सैन्य तनातनी के दौरान चीन ने अप्रत्यक्ष तौर पर भारत को भारी तबाही झेलने की धमकी दी लेकिन भारत ने संकेत दिया कि वह धमकियों के आगे नहीं झुकेगा।
नियंत्रण रेखा का हो निर्धारण
गलवान और अब तवांग की ताजा झड़प का सबसे बड़ा सबक यह है कि दोनों देशों को विश्वास निर्माण के उपायों से और आगे जाना होगा और चार हज़ार किलोमीटर लम्बी वास्तविक नियंत्रण रेखा के निर्धारण के बारे में ठोस बात करनी होगी। अन्यथा परमाणु हथियारों और बैलिस्टिक मिसाइलों से लैस दोनों देशों के सैनिकों के बीच कोई ग़लतफहमी हो जाए या जोश में आकर एक देश का सैनिक दूसरे देश के सैनिक पर गोली चला दें तो भारत-चीन रिश्तों के लिये इसके भयंकर परिणाण होंगे।