केंद्र सरकार ने फ्रांस के एक स्कूल में छात्रों को पैगंबर मुहम्मद का कार्टून दिखाने वाले शिक्षक की हत्या के मामले में फ्रांस का ज़बरदस्त समर्थन किया है, जिससे कई सवाल खड़े होते हैं। सवाल यह है क्या नरेंद्र मोदी सरकार ने घरेलू राजनीति में किसी तरह के संभावित नुक़सान से बचने के लिए यह कदम उठाया है। सवाल यह भी है कि क्या इससे भारत को कूटनीतिक व राजनीतिक नुक़सान होगा। ये सवाल इसलिए अहम हैं कि इस मुद्दे पर मुसलिम जगत और यूरोपीय देश एक दूसरे के आमने-सामने हैं। भारत के नज़दीकी रिश्ते दोनों से हैं और उसे एक संतुलित रवैया अपनाना होगा, जिससे उसके अपने कूटनीतिक हित सुरक्षित रहें।
विवाद की जड़
बता दें कि फ्रांस की राजधानी पेरिस के एक उपनगर में धर्म पढ़ा रहे एक शिक्षक ने कक्षा में अपने छात्रों को पैगंबर मुहम्मद का वह कार्टून दिखा दिया, जिसे कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो ने 2015 में प्रकाशित किया था और उसके बाद इसलामी उग्रपंथियों ने पत्रिका के दफ़्तर में घुस कर 11 लोगों को मार डाला था।कक्षा में यह कार्टून दिखाने के बाद चेचन मूल का एक मुसलमान स्कूल गया और उसने उस शिक्षक का गला काट दिया। इस शिक्षक की हत्या के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा था और शिक्षक को 'इसलामी आतंकवाद' का शिकार बताया था।
मामला क्या है
ताजा विवाद यह है कि तुर्की, पाकिस्तान, ईरान, सऊदी अरब समेत कई देशों ने फ्रांस के उत्पादों के बहिष्कार की अपील कर दी है। इसके अलावा तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब अर्दोवान ने मैक्रों पर निजी हमला करते हुए उन्हें 'मानसिक रोग के इलाज की' सलाह तक दे डाली है।दुनिया के कई मुसलिम-बहुल देशों में जनता ने सड़कों पर उतर कर फ्रांस का विरोध किया है। तुर्की, सऊदी अरब, पाकिस्तान और ईरान में फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार की अपील की गई है। पाकिस्तान और ईरान की संसदों ने प्रस्ताव पारित कर फ्रांस की निंदा की है और इन देशों की सरकारों ने फ्रांसीसी राजदूत को तलब कर विरोध पत्र भी दिया है।
एक प्रकार से इस मामले में दुनिया राजनीतिक रूप से दो ख़ेमों ईसाईयत बनाम इसलाम में बँटती नज़र आ रही है।
क्या कहना है भारत का
ऐसे में भारत के विदेश मंत्रालय के बयान के अपने अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। भारत ने अपने बयान में कहा है, '
“
हम फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैन्युएल मैक्रों पर निजी हमले की निंदा ज़ोरदार शब्दों में करते हैं, यह अंतरराष्ट्रीय विमर्श के मौलिक सिद्धांतों का उल्लंघन है। हम उस क्रूर हमले की भी निंदा करते हैं जिसमें एक फ्रांसीसी शिक्षक की नृशंस हत्या कर दी गई है, जिससे पूरी दुनिया हिल गई। हम उनके परिवार और फ्रांस की जनता के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं।'
भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के बयान का एक अंश
इस बयान के एक दिन बाद ही यानी गुरुवार को विदेश सचिव हर्षवर्द्धन श्रृंगला फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन की यात्रा पर निकलने वाले हैं।
क्या करे भारत
सवाल यह है कि अगर यह मुद्दा और तूल पकड़ता है और मुसलिम देशों व यूरोपीय देशों के बीच इस मुद्दे पर विवाद बढ़ता है, तो भारत क्या करे।
मुसलिम देशों के साथ भारत के मधुर संबंध रहे हैं, ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इसलामिक को-ऑपरेशन ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत का समर्थन कई बार किया है, ईरान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के पक्ष में मतदान तक किया है।
इसी तरह गल्फ़ को-ऑपरेशन कौंसिल में भी भारत की स्थिति मजबूत रही है और इन देशों ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ इसका समर्थन किया है।
रिचप तैय्यप अर्दोवान, राष्ट्रपति, तुर्कीफेस़बुक
भावनात्मक मुद्दा
इन देशों के लिए पैगंबर का कार्टून दिखाना भावनात्मक मुद्दा है, यह धार्मिक पहचान का मामला भी है। यह बेहद संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर वे किसी तरह का समझौता नहीं कर सकते। सवाल है कि इंडोनेशिया के बाद सबसे बड़ी मुसलिम आबादी वाला देश भारत मुसलमानों की इस संवेदनशीलता की उपेक्षा करने का जोखिम उठाना चाहेगा क्यापर्यवेक्षकों का कहना है कि भारत के सत्तारूढ़ दल ने घरेलू राजनीति में जो नया नैरेटिव तैयार किया है, उसमें मुसलमानों को निशाने पर लिया गया है। इसलामी देशों की धार्मिक भावनाओं के साथ खड़े होने से देश में मुसलमानों के प्रति नरम होने का संकेत जाएगा। यह नए नैरेटिव के अनुकूल नहीं है, क्योंकि उसका वह नैरेटिव ही ग़लत दिख सकता है, जो उसकी राजनीति की धुरी है। इससे सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक नुक़सान हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति
दूसरा कारण कूटनीतिक है। तुर्की ने पाकिस्तान के साथ मिल कर फ्रांस के ख़िलाफ़ माहौल बनाया है, मुसलिम जगत की राजनीति के कारण सऊदी अरब को भी उससे जुड़ना पड़ा है। इसी वजह से ईरान भी इसमें जुड़ा, हालांकि वह सऊदी अरब के बिल्कुल उलट ध्रुव पर है। तुर्की इसलामी जगत का नेतृत्व सऊदी अरब से छीनने की कोशिश में जिस तरह पाकिस्तान के अलावा इंडोनेशिया और मलेशिया को भी लेकर चल रहा है, उसी वजह से उसने कश्मीर नीति पर बेहद कड़ा रुख अपनाया है।
कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने के अलावा सीएए और एनआरसी के मुद्दों पर उसने भारत का बहुत ही कड़ा विरोध किया था। भारत ने इसका जवाब इस तरह दिया था कि ऐतिहासिक रूप से तुर्की के विरोधी रहे अर्मीनिया से रिश्ते बेहतर करना शुरू कर दिया था।
अब जबकि तुर्की फ्रांस का विरोध करने के बहाने मुसलिम जगत का नेतृत्व करना चाहता है, भारत ने संकेत दिया है कि वह उसके ख़िलाफ़ है।
भारत इसके साथ ही यूरोप के प्रति भी अपना रवैया उदार रख रहा है। लेकिन सवाल यह है कि यदि मुसलिम देश भारत से नाराज़ हो गए तो वे कश्मीर पर उसका समर्थन करना बंद कर देंगे। भारत के लिए असली चिंता की बात यह है। इसलिए ईसाई बनाम मुसलिम राजनीतिक विवाद में भारत का कूदना कूटनीतिक रूप से इसके लिए नुक़सानदेह हो सकता है।