देश के 20 भारतीय प्रबंध संस्थान यानी आईआईएम ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से पत्र लिखकर माँग की है कि उन्हें ‘इंस्टीट्यूशंस ऑफ़ एक्सिलेंस’ का दर्जा दिया जाए। यह दर्जा इन शीर्ष प्रबंध संस्थानों को सम्मान दिलाने या छात्र-छात्राओं या देश के हित को देखते हुए नहीं माँगा गया है, बल्कि इसका मक़सद संस्थानों में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस), अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) कोटे के माध्यमों से प्रोफ़ेसरों की भर्तियाँ नहीं करना है।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की एक ख़बर के मुताबिक़ इन आईआईएम ने तर्क दिया है कि छूट दिए जाने का पहले से उदाहरण है, इसलिए आईआईएम ने भी ऐसा अनुरोध किया है। आईआईएम ने तर्क दिया है कि संस्थान की भर्ती प्रक्रिया साफ़ सुथरी है और संस्थान यह कवायद करता है कि वंचित तबक़े को भी इसी प्रक्रिया के तहत प्रवेश दिया जाए। इसका कहना है कि लेकिन आरक्षण संभवतः वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धा करने का रास्ता नहीं हो सकता है।
क्या है सेंटर ऑफ़ एक्सिलेंस का मसला
दरअसल, अभी 9 जुलाई 2019 को ही केंद्र सरकार ने राजपत्र प्रकाशित किया है। इस राजपत्र में केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में अध्यापक की श्रेणी में आरक्षण का नियम दिया गया है। इस एक्ट की धारा 4 के मुताबिक़ आरक्षण के प्रावधान इंस्टिट्यूशन ऑफ़ एक्सिलेंस, रिसर्च इंस्टिट्यूशंस, राष्ट्रीय और रणनीतिक महत्व के संस्थानों में लागू नहीं होंगे। इस श्रेणी में गज़ट में 8 संस्थान रखे गए- होमी भाभा नेशनल इंस्टिट्यूट (इसके तहत आने वाले 10 संस्थान भी) मुंबई, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च, नॉर्थ ईस्टर्न इंदिरा गाँधी रीजनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ हेल्थ एंड मेडिकल साइंस, शिलांग, नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर मानेसर, गुड़गाँव, जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च, बेंगलूरु, फ़िजिकल रिसर्च लेबोरेटरी, अहमदाबाद, स्पेस फ़िजिक्स लेबोरेटरी, तिरुवनंतपुरम और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ रिमोट सेंसिंग को शामिल किया गया था। अब आईआईएम इस श्रेणी में आने को उतावले हैं, जिससे उनके टीचिंग स्टाफ़ आरक्षण के माध्यम से न आ सकें।
सरकार क्या कर सकती है?
देश भर के तमाम विश्वविद्यालयों, डिग्री कॉलेजों और अन्य सरकारी संस्थानों में जिस तरह से आरक्षण लागू किया गया, उसे लेकर ठीकठाक हंगामा हुआ। तमाम विश्वविद्यालयों में ओबीसी, एससी, एसटी वर्ग से जुड़े लोगों ने प्रदर्शन किए। सरकार ने संसद से लेकर मीडिया तक में ढेरों आश्वासन दिए कि वंचित तबक़े के हक की हर तरह से रक्षा की जाएगी। लेकिन हक़िक़त यह है कि अभी भी शिक्षण संस्थानों में भर्ती, अन्य सरकारी विभागों की नौकरियों में भर्ती को लेकर बेइमानियाँ जारी हैं। आरक्षित कोटे के मुताबिक़ वैकेंसी नहीं आती है और तमाम मामलों में जब परिणाम आता है तो ओबीसी की मेरिट सामान्य से ऊपर चली जाती है क्योंकि क़रीब 60 प्रतिशत ओबीसी आबादी को महज कुछ आरक्षित सीटों में समेट दिया जाता है।
‘सत्य हिंदी’ ने आरक्षण से जुड़ी समस्याओं पर तमाम ख़बरें प्रकाशित कीं। केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी ख़बरों को संज्ञान में लेकर विभिन्न आयोगों को नोटिस भेजे। लेकिन कहीं भी नियुक्ति प्रक्रिया नहीं रोकी गई और सब कुछ क़ानूनी मान लिया गया और किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया।
केंद्र सरकार के इस गजट पर भी ध्यान नहीं गया कि सरकार ने कोई ऐसा नोटिफ़िकेशन जारी कर दिया है, जिसमें कुछ संस्थानों में आरक्षण ख़त्म कर दिया गया। अब उस प्रावधान के तहत आने के लिए देश के 10 आईआईएम तड़प रहे हैं।
क्या है आरक्षण की स्थिति
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की ही एक ख़बर के अनुसार, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हाल के आँकड़ों के मुताबिक़ इस समय देश के 20 आईआईएम में तैनात कुल फैकल्टी सदस्यों में 90 प्रतिशत से ज़्यादा सामान्य श्रेणी के हैं। सरकार ने इस मसले पर हंगामे को देखते हुए नवंबर 2019 में सरकार ने सभी भारतीय प्रबंध संस्थानों को दिशानिर्देश जारी कर कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग और सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़े के अभ्यर्थियों को फैकल्टी में आरक्षण की व्यवस्था की जाए। सरकार ने इसके पहले भी कई बार आईआईएम को सलाह दी थी कि वह आरक्षित वर्ग के लोगों की नियुक्तियाँ करे। यह विवाद 1970 के दशक से चल रहा है जब साइंटिफिक और टेक्निकल पदों को आरक्षण से मुक्त किया गया था। आईआईएम उसी आधार पर आरक्षण से मुक्ति माँगते रहे हैं। उस समय ओबीसी आरक्षण नहीं हुआ करता था, लेकिन एससी-एसटी को आरक्षण मिलता था। केंद्र सरकार ने जब इस साल नई अधिसूचना निकाली तो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को भी उसमें शामिल किया गया है और संस्थानों के नाम भी गिनाए गए हैं कि किन संस्थानों को आरक्षण से मुक्त रखना है।
आईआईएम का तर्क है कि उनकी प्रणाली साफ़ सुथरी है। भर्तियों में हेराफेरी नहीं होती है। लेकिन आँकड़े कहते हैं कि देश के 85 प्रतिशत से ऊपर एससी, एसटी, ओबीसी आबादी में उसे योग्य अभ्यर्थी नहीं मिलते और वे लगातार सरकार के नियमों को औकात दिखाते हुए सामान्य वर्ग में से ही योग्य ढूंढ रहे हैं। और वंचित तबक़े को शायद यह बेइमानियाँ देखने का न तो समय है, न वे इतने विकसित हैं कि अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर कोई आंदोलन कर सरकार पर दबाव बना सकें।