पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और राज्य की भगवंत मान सरकार के बीच चल रहे टकराव के बाद एक पुराना सवाल फिर से जिंदा हो गया है। सवाल यह है कि देश में जहां-जहां पर विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां के राज्यपालों की भूमिका को लेकर सवाल क्यों खड़े होते हैं। पंजाब के मामले में भगवंत मान सरकार ने जब 22 सितंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया तो राज्यपाल ने पहले इसे मंजूरी दे दी और फिर रद्द कर दिया।
इसके बाद मान सरकार ने 27 सितंबर को विधानसभा का सत्र बुलाया तो राज्यपाल ने इसका एजेंडा मांगा है जिस पर मुख्यमंत्री भगवंत मान ने नाराजगी जताई है।
इस खबर में हम बात करेंगे कि कौन से विपक्ष शासित राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों की भूमिका को लेकर बीते कुछ सालों में विवाद सामने आए हैं।
भगत सिंह कोश्यारी
इसमें पहला नाम सामने आता है महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का। भगत सिंह कोश्यारी की वजह से पिछली महा विकास आघाडी सरकार के दौरान एक साल तक महाराष्ट्र में विधानसभा के स्पीकर का चुनाव नहीं हो सका था।
ठाकरे सरकार के दौरान कोश्यारी पहले न तो विधानसभा स्पीकर के चुनाव के लिए तारीख तय कर रहे थे और न ही वोटिंग सिस्टम या वॉइस वोट के पक्ष में थे। इसी वजह से ठाकरे सरकार और राज्यपाल के बीच में तनातनी रही थी। लेकिन जैसे ही बीजेपी ने शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट के साथ सरकार बनाई। राज्यपाल ने दो-तीन दिन के अंदर ही विधानसभा स्पीकर के चुनाव की अनुमति दे दी। इससे पहले स्पीकर पद की ज़िम्मेदारी तत्कालीन डिप्टी स्पीकर यानी उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल निभा रहे थे। उनको यह ज़िम्मेदारी तब मिली थी जब फ़रवरी 2021 में नाना पटोले ने अध्यक्ष पद से इसलिए इस्तीफ़ा दे दिया था क्योंकि कांग्रेस ने उन्हें राज्य में पार्टी की कमान सौंप दी थी। तब से स्पीकर का पद खाली था।
बीजेपी-एकनाथ शिंदे की सरकार बनते ही विधानसभा स्पीकर का चुनाव हो गया और शिंदे गुट के राहुल नार्वेकर स्पीकर भी बन गए।
इसके अलावा उद्धव ठाकरे कैबिनेट ने 12 लोगों को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने की सिफ़ारिश साल 2020 में नवंबर के पहले सप्ताह में की थी। लेकिन राज्यपाल कोश्यारी हमेशा से इस पर आनाकानी करते रहे और मंजूरी नहीं दी। बीजेपी-शिंदे सरकार के द्वारा ठाकरे सरकार द्वारा भेजे गए 12 नामों की फाइल वापस लेने के लिए राज्यपाल कोश्यारी को पत्र लिखा गया था। राज्यपाल ने तुरंत इसे स्वीकार कर लिया था।
उद्धव ठाकरे के विधान परिषद का सदस्य बनने को लेकर भी विवाद हुआ था। राज्य कैबिनेट की ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने की सिफ़ारिश पर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने लंबे समय तक जवाब नहीं दिया था। ठाकरे को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए विधानसभा या विधान परिषद में से किसी एक सदन का सदस्य निर्वाचित होना ज़रूरी था और तब विधान परिषद में मनोनयन कोटे की दो सीटें रिक्त थीं। राज्य मंत्रिमंडल ने राज्यपाल से इन दो में से एक सीट पर ठाकरे को मनोनीत किए जाने की सिफ़ारिश की थी। लेकिन राज्यपाल अड़ गए थे।
कहा जाता है कि इस मामले के आगे बढ़ने के बाद उद्धव ठाकरे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फ़ोन करना पड़ा था। उसके बाद राज्यपाल ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर राज्य विधान परिषद की रिक्त सीटों के चुनाव कराने का अनुरोध किया था।
तड़के दिला दी थी शपथ
नवंबर, 2019 में कोश्यारी ने तड़के देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और अजीत पवार को उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब आनन-फानन में इतनी सुबह किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी।
जगदीप धनखड़
विपक्षी दलों की राज्य सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देने वाले राज्यपालों में पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और वर्तमान उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। राज्यपाल बनने के बाद से ही धनखड़ का राज्य सरकार के साथ टकराव होता रहा। धनखड़ से पहले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता केसरीनाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। उनका भी पूरा कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकराव में ही बीता था।
कृषि कानूनों पर हंगामे के दौरान साल 2020 में राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने अपने राज्यों में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था तो इसके लिए पहले तो वहां के तत्कालीन राज्यपालों ने मंजूरी नहीं दी थी और और कई तरह के सवाल उठाए थे। बाद में विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी दी भी तो विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि क़ानूनों के विरुद्ध पारित विधेयकों और प्रस्तावों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था।
आरिफ मोहम्मद ख़ान
केरल में भी राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच ऐसा ही टकराव पैदा हुआ था। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए संशोधित नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जब केरल विधानसभा में प्रस्ताव पारित हुआ था तो राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान ने उसे असंवैधानिक बता दिया था। बाद में जब राज्य सरकार ने इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो राज्यपाल ने इस पर भी एतराज जताया और कहा कि सरकार ने ऐसा करने से पहले उनसे अनुमति नहीं ली।
इसके अलावा मध्य प्रदेश की पूर्व और उत्तर प्रदेश की वर्तमान राज्यपाल आनंदीबेन पटेल पर मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018 से पहले अपने दौरों के दौरान कई जगह लोगों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ मज़बूत करने की अपील किए जाने के आरोप लगे थे।
त्रिपुरा का राज्यपाल रहने के दौरान तथागत रॉय अपने पूरे कार्यकाल के दौरान भड़काऊ और नफ़रत फैलाने वाले सांप्रदायिक बयान देते रहे थे।
यहां इस बात को कहना जरूरी होगा कि कोई भी राज्यपाल अगर अपने सूबे की सरकार के किसी कामकाज में कोई ग़लती पाते हैं तो इस बारे में उन्हें सरकार का ध्यान आकर्षित करने का पूरा अधिकार है। सरकार को किसी भी मुद्दे पर अपने सुझाव या निर्देश देना भी राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता है। लेकिन राज्यपालों को लेकर सवाल तब उठता है जब वे अपनी भूमिका से आगे चले जाते हैं।