क्या बजट सुधार पाएगा गाँवों, किसानों की दशा?

05:26 pm Jul 05, 2019 | पवन उप्रेती - सत्य हिन्दी

लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने के बाद पेश किए गए मोदी सरकार के पहले बजट में गाँवों और किसानों के लिए कई घोषणाएँ की गई हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में कहा कि सही भारत गाँवों में ही बसता है और उनकी सरकार की हर योजना का केंद्र बिंदु गाँव और किसान होगा। उन्होंने कहा कि किसानों का जीवन और व्यवसाय आसान बनाने के लिए सरकार ठोस क़दम उठाएगी। प्रधानमंत्री मोदी पिछले पाँच साल में कहते रहे हैं कि वह आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर यानी 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना चाहते हैं। निर्मला सीतारमण ने भी अपने भाषण में इसे दोहराया। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार अन्नदाता को ऊर्जादाता बनाने पर काम करेगी।  

मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में कृषि क्षेत्र में हो रही गिरावट को लेकर सरकारी नीतियों पर कई बार सवाल उठे। बीते दो दशकों में लगभग तीन लाख से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली है, लेकिन शायद सरकारों के पास समय नहीं है कि वे इस मुद्दे पर ध्यान दे सकें।

जब निर्मला सीतारमण किसानों के बारे में मोदी सरकार की योजनाओं पर बात कर रही थीं तो मध्य प्रदेश के मंदसौर की वह घटना भी याद आ रही थी जब प्रदर्शन कर रहे निहत्थे किसानों पर सरेआम गोली चला दी गई थी। महाराष्ट्र में भी किसानों ने अपनी माँग को लेकर प्रदर्शन किया था और 50 हज़ार से अधिक किसान सड़कों पर उतरे थे। लेकिन इस सबके बावजूद किसानों की माली हालत नहीं सुधरी। 

गाँवों को सड़क से जोड़े जाने की योजना पर वित्त मंत्री ने कहा कि इस योजना का 97 प्रतिशत लक्ष्य पूरा हो चुका है। उन्होंने बताया कि सरकार आने वाले सालों में 1,25,000 किलोमीटर सड़क बनने के लिए 80,250 करोड़ रुपये देगी। इसके अलावा उन्होंने उज्ज्वला योजना के तहत गाँवों में दिए गए एलपीजी कनेक्शन, बिजली की सुविधा का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि सरकार की कोशिश है कि 2022 तक सभी गाँवों के सभी परिवारों को बिजली और एलपीजी गैस की सुविधा मिल जाए।

हाल ही में एक ग़ैर-लाभकारी संगठन की रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई थी कि उज्ज्वला योजना का लाभ लेने वाले 90 फ़ीसदी परिवार अभी भी खाना पकाने के लिए लकड़ी और गोबर के उपलों का उपयोग कर रहे हैं। उसके बाद सवाल उठा था कि क्या यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री मोदी के उन दावों के उलट नहीं है जिसमें वह पिछले पाँच साल तक सार्वजनिक मंचों से कहते रहे कि उनकी सरकार ने गाँवों में चूल्हे पर खाना पकाने वाली ग़रीब महिलाओं को धुएँ से निजात दिला दी है

वित्त मंत्री ने अगले 5 सालों में 10 हजार नए किसान उत्पादक संगठन बनाए जाने की बात भी अपने भाषण में कही है। इसके साथ ही वित्त मंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान के तहत 2 करोड़ ग्रामीणों को डिजिटल साक्षर बनाया गया है। उन्होंने बताया कि 5.6 लाख गाँव अब तक खुले में शौच से मुक्त हो गए हैं और दावा किया कि 2 अक्टूबर, 2019 को भारत खुले में शौच से मुक्त हो जाएगा।

यहाँ पिछले साल की एक रिपोर्ट का भी जिक्र करना ज़रूरी होगा। पिछले साल नवंबर में कृषि मंत्रालय ने वित्तीय मामलों पर संसद की स्थायी समिति को दी अपनी रिपोर्ट में बताया था कि नोटबंदी की चक्की में किसान बहुत बुरी तरह पिस गए थे। मंत्रालय ने कहा था कि नोटबंदी ऐसे समय हुई, जब किसान या तो ख़रीफ़ की अपनी फ़सल को बाज़ार में बेचने में लगे थे या फिर रबी की बुआई की तैयारियाँ कर रहे थे। इन दोनों कामों के लिए नक़दी की ज़रूरत थी, जिसे नोटबंदी ने अचानक बाज़ार से खींच लिया था।

आपको याद होगा कि 2017 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के किसानों ने अपनी माँगों को लेकर कई दिनों तक प्रदर्शन किया था। उन्होंने मानव मूत्र पीकर भी अपना विरोध जताया था। गले में इंसानों की हड्डियाँ डालकर धरने पर बैठे इन किसानों को आख़िरकार निराश होकर वापस लौटना पड़ा था।

सरकार की ओर से किए गए तमाम वादों के साथ इस बात का दावा किया गया है कि गाँवों और किसानों की हालत सुधरेगी। लेकिन सवाल यह है कि देश में किसानों की ख़राब हालत को लेकर चर्चा क्यों नहीं होती और सरकारों के तमाम दावों के बावजूद किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं। 

यह बेहद चिंता की बात है कि जिस देश में 50% से अधिक लोग कृषि आधारित कार्यों पर निर्भर हों, वहाँ की राजनीति में कृषि विकास को लेकर सिर्फ़ चुनाव के दौरान या फिर कभी-कभी चर्चा होती है। इस मामले में विपक्ष की भी भूमिका बेहद ख़राब है, क्योंकि वह किसानों की उचित माँगों को पूरा करवाने के लिए सरकार पर उस तरह कभी दबाव बना ही नहीं पाया, जैसा उसे बनाना चाहिए था।