भारत में बीते एक साल में किसान आंदोलन के कारण सियासी माहौल गर्म रहा। कोरोना जैसी महामारी के बीच भी किसान आंदोलन लगातार चलता रहा और तमाम विपक्षी सियासी दल भी किसानों के साथ खड़े रहे। बीजेपी और मोदी सरकार शुरू में किसान आंदोलन के प्रति आक्रामक दिखे और किसानों को अपमानित करते रहे लेकिन अंतत: उन्हें हथियार डालने ही पड़े।
इस एक साल के दौरान विपक्ष ने इस आंदोलन के जरिये बीजेपी को ख़ूब घेरा और पांच राज्यों के चुनाव से पहले उसे जबरदस्त दबाव में ला दिया। इससे निश्चित रूप से उसे सियासी बढ़त भी मिली, जो उसे चुनावी राज्यों में फ़ायदा पहुंचा सकती थी।
माना जा रहा था कि अगर किसान आंदोलन जारी रहता है तो विपक्षी दलों ने जो सियासी बढ़त बीजेपी पर हासिल कर ली है, उसका असर नतीजों पर भी दिखेगा। लेकिन मोदी सरकार ने कृषि क़ानून वापस लेकर इस समीकरण को बिगाड़ दिया।
अब चर्चा इस बात की है कि कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल, आरएलडी, एसपी, आम आदमी पार्टी, बीएसपी, शिव सेना सहित तमाम विपक्षी दलों को किसान आंदोलन के साथ खड़े रहकर क्या हासिल हुआ? और जो हासिल हुआ है क्या वे उसका फ़ायदा चुनाव में ले पाएंगे।
बीजेपी ने दो बार लोकसभा चुनाव में अकेले दम पर बहुमत हासिल किया है। इसके बाद वह एक तरह से निरंकुश होती दिखाई दी और इस वजह से उसके बड़े सहयोगी भी उसे छोड़कर चले गए। इनमें शिरोमणि अकाली दल और शिव सेना भी शामिल हैं। इन दलों ने भी किसानों के मुद्दे पर बीजेपी और मोदी सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। महाराष्ट्र में तो लखीमपुर खीरी की घटना को लेकर बंद तक बुलाया गया।
ख़ैर, ऐसे चुनावी राज्य जहां किसान आंदोलन का असर हो सकता है, उनमें ये विपक्षी दल किसानों के मुद्दों को जिंदा रखकर क्या बीजेपी को आगे भी घेरने में सफल होंगे?
कांग्रेस-आरएलडी ने लगाया जोर
बात करें उत्तर प्रदेश की तो, यहां का के पश्चिमी इलाक़े में इस आंदोलन का अच्छा-खासा असर था। कांग्रेस, आरएलडी के साथ ही एसपी भी यहां किसान आंदोलन को लेकर सक्रिय थी। आरएलएडी जहां जाट मतदाताओंं को फिर से अपने खेमे में लाने में सफल रही थी, वहीं कांग्रेस ने मुसलिम मतदाताओं और किसानों के बीच में अपना आधार बढ़ाने की भरपूर कोशिश की। जयंत चौधरी लगातार किसान महापंचायतें करते रहे तो प्रियंका गांधी से लेकर राहुल गांधी भी किसानों के मसलों को उठाते रहे।
अखिलेश यादव और उनकी पार्टी के कार्यकर्ता भी लगातार किसान आंदोलन के मसले पर सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक आवाज़ बुलंद करते रहे।
अकाली दल की कुर्बानी
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने एक बड़ी कुर्बानी दी और मोदी कैबिनेट में अपनी मंत्री हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफ़ा करवा दिया। इसका अकाली दल ने ख़ूब प्रचार भी किया और इसे तरह दिखाया कि वह किसानों के लिए बड़ी से बड़ी सियासी कुर्बानी देने के लिए तैयार है।
उत्तराखंड के हरिद्वार और उधमसिंह नगर के इलाक़ों में किसान आंदोलन काफ़ी मज़बूत था और कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने इस आंदोलन को पूरा समर्थन दिया।
लेकिन मोदी सरकार के कृषि क़ानून वापस लेने के बाद इन दलों के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वे किसानों के बीच बीजेपी और मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बन चुके माहौल को जिंदा कैसे रखें। इसके लिए उन्होंने किसान आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों के परिजनों को मुआवज़ा देने, नौकरी देने, आंदोलनकारी किसानों पर दर्ज मुक़दमे वापस लेने की मांग रखी है।
जयंत चौधरी के सामने चुनौती
यह वास्तव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजनीति करने वाले जयंत चौधरी के लिए बड़ी चुनौती होगी कि वह एकजुट हो चुके किसानों को बीजेपी के पाले में जाने से रोकें। कांग्रेस के सामने भी कुछ ऐसी ही चुनौती है क्योंकि लखीमपुर खीरी की घटना को जिस तरह कांग्रेस ने जोर-शोर से उठाया, उससे किसानों के बीच निश्चित रूप से पार्टी की स्वीकार्यता बढ़ी है।
कांग्रेस को पंजाब में भी किसान मतदाताओं का साथ हासिल करने की दौड़ में अकाली दल को पिछाड़ना ही होगा। जबकि अकाली दल उसे पीछे छोड़ने की पूरी कोशिश करेगा।
यह इन तीन राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद ही तय होगा कि उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में किसान मतदाताओं ने किस दल को अपना कितना वोट दिया है। लेकिन अगर बीजेपी कृषि क़ानूनों को वापस लेने के फ़ैसले का प्रचार कर किसान मतदाताओं का समर्थन व वोट हासिल करने में अगर कामयाब हो गई तो निश्चित रूप से उस सूरत में विपक्षी दलों को कुछ हासिल नहीं होगा।