इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध था। अपारदर्शी था। असंवैधानिक था। सुप्रीम कोर्ट ने ही इसपर मुहर लगा दी। वैसे, बीजेपी सरकार द्वारा लाए गए इस इलेक्टोरल बॉन्ड पर सरकार को छोड़कर सबको कभी न कभी आपत्ति रही। 2019 में चुनाव आयोग ने भी कड़ी आपत्ति थी। सुप्रीम कोर्ट में जब मामला गया तो इसने भी लगातार सवाल पूछे। विपक्षी पार्टियाँ गड़बड़ी का आरोप लगाती रहीं। चुनाव सुधार से जुड़े लोग इसको पीछे जाने वाला क़दम बताते रहे। तो सवाल है कि इतने विरोध के बावजूद यह अस्तित्व में क्यों और कैसे आ गया?
सबसे पहले इस विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था का प्रावधान 2017 के बजट के ज़रिये सामने लाया गया था। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया था कि इससे हमारा लोकतंत्र मज़बूत होगा, दलों को होने वाली फ़ंडिंग और समुची चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या इन मक़सद में यह कामयाब होता दिखा या फिर इलेक्टोरल बॉन्ड के प्रावधान क्या ऐसे थे?
इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद इस पर सबसे ज़्यादा सवाल पारदर्शिता और कालेधन को लेकर ही हुआ। कुछ ही समय बाद एडीआर जैसी इलेक्शन-वाच संस्थाओं और इस विषय के जानकार लोगों ने इस प्रावधान की शुचिता और उपयोगिता पर गंभीर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
सवाल तो यह भी उठे कि इस बॉन्ड का प्रस्ताव न तो वित्त मंत्रालय, न तो निर्वाचन आयोग और न ही रिज़र्व बैंक की किसी आधिकारिक या प्रशासकीय प्रक्रिया के तहत आया था। आरोप लगाया गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी व्यवस्था शुरू करने का फ़ैसला सरकार चलाने वाले लोगों के शीर्ष स्तर और व्यक्तिगत इच्छा के तहत आया था।
क्या था इलेक्टोरल बॉन्ड
इलेक्टोरल बॉन्ड 2017 के बजट से जारी एक विचित्र योजना थी। 2017 के बजट मंज़ूरी के बाद 1 मार्च, 2018 को इसे जारी किया गया। इस बॉन्ड का मक़सद चुनाव फ़ंडिंग को ज़्यादा पारदर्शी बनाना बताया गया था।
सरकार ने दावा किया था कि इससे कालेधन, मनी लांड्रिंग और अवैध क़िस्म की इलेक्टोरल फ़ंडिंग पर पाबंदी लगेगी और पारदर्शिता आएगी।
इसके तहत एक वचनपत्र होता था, बिल्कुल एक बैंकनोट की तरह। इसे आरबीआई जारी करता रहा। यह पूरी तरह ब्याजमुक्त व्य़वस्था रही। इसे किसी भारतीय नागरिक या भारतीय संस्था द्वारा एसबीआई की अधिकृत शाखाओं से ख़रीदा जा सकता था।
इसके ज़रिए कोई भी दानकर्ता किसी भी राजनीतिक पार्टी, जिसे लोकसभा चुनाव में 1 फ़ीसदी या उससे अधिक वोट मिले हों, को चुनावी फ़ंड में सहयोग कर सकता था। इसमें राष्ट्रीय या क्षेत्रीय, हर तरह के दल हो सकते थे। इस बांड को सिर्फ़ चेक या डिजिटल पैमेंट करके ही ख़रीदा जा सकता था। ये बॉन्ड एक तरह के ‘बियरर चेक’ की तरह खे, जिन्हें देने वालों का नाम गुप्त रखा जाता था। राजनीतिक दल अपने अधिकृत अकाउंट में इसे सीधे जमा कराकर पैसे ‘कैश’ करा सकते थे।
चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया
इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला जब सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा था तो 2019 में चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड का ज़ोरदार शब्दों में विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि इससे राजनीतिक दलों को पैसे देने की प्रक्रिया की पारदर्शिता कम होगी। आयोग ने यह भी कहा था कि यह पीछे ले जाने वाला कदम है।
लेकिन इसी चुनाव आयोग को नवंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए फटकार लगाई थी कि उसने अपने पास 2019 के बाद के चुनावी बॉन्ड के आँकड़े नहीं होने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था कि चुनाव आयोग चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चंदा और राजनीतिक चंदा देने वाले के बारे में पूरी और अद्यतन जानकारी रखने के लिए बाध्य है। अदालत ने चुनाव आयोग के उस दावे को खारिज कर दिया कि ऐसे आँकड़े को केवल 2019 तक रखा जाना था।
इसी सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने कहा था कि भारत के नागरिकों को किसी भी राजनीतिक दल की फंडिंग के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) के तहत जानकारी का अधिकार नहीं है। अटॉर्नी जनरल ने अक्टूबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट में यह दलील रखी थी।
एडीआर की शिकायत
इस मामले में चुनाव सुधार में लगी रही संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स यानी एडीआर ने बार-बार इलेक्टोरल बॉन्ड पर सवाल उठाए हैं। एडीआर ने पिछले साल मार्च में इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर तुरन्त रोक लगाने का आदेश देने की गुहार सुप्रीम कोर्ट से की थी। संस्था ने अदालत में याचिका दायर कर कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर रोक नहीं लगी तो पांच राज्यों में चुनाव से ठीक पहले फ़र्जी (शेल) कंपनियों के ज़रिए राजनीतिक पार्टियों को पैसे दिए जाएंगे। अप्रैल-मई में पांच राज्यों के चुनाव हुए थे।
एडीआर की पिछले साल की रिपोर्ट कहती है कि देश में क्षेत्रीय दलों को 2019-20 में मिले चंदे का बड़ा हिस्सा 'अज्ञात' स्रोत से आया। रिपोर्ट कहती है कि इस 'अज्ञात' स्रोत से मिले चंदे में से भी लगभग 95% पैसा इलेक्टोरल बॉन्ड या चुनावी बॉन्ड से मिला था।
पारदर्शिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन?
भारत की जन प्रतिनिधि क़ानून की धारा 29 सी के अनुसार, 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देने का प्रावधान है। लेकिन, वित्तीय अधिनियम 2017 के क्लॉज़ 135 और 136 के तहत इलेक्टोरल बॉन्ड को इसके बाहर रखा गया। इसके अलावा यह व्यवस्था भी की गई कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव आयोग को दिए गए अपने आमदनी-ख़र्च के हिसाब किताब में इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी देना अनिवार्य नहीं है।
इससे न तो इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का पता चलता है और न ही इसके ज़रिए जिसे पैसे दिए जा रहे हैं, उसका पता चलता है। राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब में यह दर्ज नहीं होता है और चुनाव आयोग को इसकी कोई जानकारी नहीं होती है।
काले धन को बढ़ावा?
इलेक्टोरल बॉन्ड काले धन को बढ़ावा दे सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कंपनीज़ एक्ट की धारा 182 के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि कोई कंपनी अपने सालाना मुनाफ़ा के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं दे सकती। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को इससे बाहर रखा गया है। इसका नतीजा यह होगा कि बेनामी या शेल कंपनी के ज़रिए पैसे दिए जा सकेंगे। शेल कंपनियों के पास काला धन होता है। इस तरह बड़े आराम से काला धन चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. क़ुरैशी ने 2019 में कहा था, 'राजनीतिक दलों के कॉरपोरेट फन्डिंग में जो थोड़ी बहुत पारदर्शिता बची हुई है, इलेक्टोरल बॉन्ड उसे भी ख़त्म कर देगा। सालाना लाभ के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं देने का प्रावधान ख़त्म कर देने का बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। बहुत जल्द ऐसी कंपनियाँ दिखेंगी, जो अपना पूरा पैसा राजनीतिक पार्टी को दे देगी और इस तरह राजनीति पर कब़्जा कर लेंगी।'