अयोध्या विवाद पर मध्यस्थता की कोशिशें पहले भी हुईं, बेनतीजा रहीं

04:18 pm Sep 18, 2019 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

राम मंदिर-बाबरी मसजिद विवाद को सभी पक्षों की आपसी बातचीत के ज़रिए सुलझाने की कोशिशें पहले भी हुई हैं। साल 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने यह कोशिश की थी कि निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड और राम लला विराजमान के प्रतिनिधियों को एक जगह बिठा कर बातचीत कराई जाए और मामले का निपटारा अदालत के बाहर ही कर लिया जाए। उन्होंने इसके लिए ग़ैर-राजनीतिक लोगोें की मदद भी लेने का फ़ैसला किया।

मशहूर पत्रकार और लेखक हेमंत शर्मा ने अपनी चर्चित किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ में लिखा:   प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अयोध्या पर सहमति बना रास्ता ढूँढ़ने में संकल्प के साथ जुटे थे। यह दुर्भाग्य था कि उनकी सरकार सिर्फ चार महीने रही। सिर्फ एक सवाल पर उन्होंने दोनों पक्षों को आमने-सामने बिठा दिया था कि क्या उस जगह पर मस्जिद से पहले कोई हिंदू ढाँचा था। उस द्विपक्षीय वार्त्ता के छह दौर हुए। शरद पवार, भैरोंसिंह शेखावत और मुलायम सिंह यादव इन बैठकों में पर्यवेक्षक के तौर पर आते थे। छठे दौर में जब मुस्लिम पक्ष को मंदिर के प्रमाण के खंडन में अपना प्रमाण देना था, तब वे लोग नहीं गए। इसके बाद प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अध्यादेश लाने का फैसला किया। शरद पवार से समझौते के कुछ सूत्र हासिल कर राजीव गांधी ने चंद्रशेखर सरकार ही गिरा दी। 

चंद्रशेखर सरकार के रहते दोनों तरफ के विशेषज्ञों ने कुल छह बैठकें कीं। कोई सात हजार पन्नों के दस्तावेज की अदला-बदली हुई। 6 फरवरी, 1991 की पाँचवीं बैठक में सरकार ने तय किया कि दोनों पक्षों के दिए गए कागजों की मूल अभिलेखों के साथ जाँच होगी। चंद्रशेखर समझौते पर पहुँचते, इससे पहले ही कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

पर्यवेक्षकों का कहना है कि चंद्रशेखर अयोध्या विवाद के समाधान के एकदम क़रीब पहुँच चुके थे। कहा जाता है कि राजीव गाँधी को उनके नज़दीक के लोगों ने समझाया कि सारा श्रेय चंद्रशेख ले जाएँगे और उनका राजनीतिक कद बढ़ जाएगा। चंद्रशेखर कांग्रेस के समर्थन पर ही सरकार चला रहे थे। कांग्रेस ने उनकी सरकार किसी दूसरे बहाने सरकार गिरा दी।

इसके अलावा मुसलिम नेता अली मियाँ और काँची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को बिठा कर बात करने और उनकी मध्यस्थता से सभी पक्षों को राजी करने की कोशिशें भी हुईं।

हेमंत शर्मा इसकी चर्चा अपनी पुस्तक में इस रूप में करते हैं, ‘राष्ट्रीय एकता परिषद ऐसा एक बड़ा मंच रहा है, जहाँ सौहार्द के बारे में छठे दशक से विचार होता था। अयोध्या के प्रसंग में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक पहली बार 2 नवंबर, 1991 को हुई। इनमें कुछ नेताओं ने मौलाना बुखारी से बातचीत करने का सुझाव दिया। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस पर आपत्ति की। उनका कहना था कि अली मियाँ उपयुक्त व्यक्ति हैं, उनसे बातचीत अगर की जाए तो अयोध्या विवाद को सुलझाने में मदद मिल सकती है। इसी प्रकार उन्होंने कांची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती का भी उल्लेख किया। वे चाहते थे कि जयेंद्र सरस्वती और अली मियाँ अपने-अपने स्तर पर प्रयास करें, जिसके लिए उनसे बातचीत की जाए।’

इस बातचीज के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद् के तीन पत्रकार सदस्य निखिल चक्रवर्ती, आर.के. मिश्र और प्रभाष जोशी 1992 की जुलाई से नवंबर के अंत तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से मिलते रहे। इसी क्रम में इन लोगों ने अली मियाँ से मिलने का फैसला किया। नवंबर के पहले हफ्ते में निखिल चक्रवर्ती, प्रभाष जोशी, विजय प्रताप और रामबहादुर राय अली मियाँ से मिलने रायबरेली के तकिया गाँव पहुँचे। उनकी मुलाकात अली मियाँ से हुई। उनसे निखिल चक्रवर्ती और प्रभाष जोशी ने लंबी बात की।

अली मियाँ ने अपनी नरम छवि के बावजूद अयोध्या विवाद में कोई पहल करने में रुचि नहीं ली। वह वही तर्क देते रहे, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कह रहा था। अली मियाँ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष भी थे। उनका कहना था कि मस्जिद से कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। उसे मंदिर के लिए स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। यही उनके कहने का सार था, जिससे प्रभाष जोशी और निखिल चक्रवर्ती को उम्मीद के विपरीत समाधान नहीं, निराशा या उदासी हाथ लगी।


हेमंत शर्मा की किताब 'युद्ध में अयोध्या'

मध्यस्थता और बातचीत के ज़रिए अयोध्या विवाद सुलझाने की कोशिशें इसके कई साल भी हुईं। इलाहाबाद हाई कोर्ट के तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने 3 अगस्त, 2010 को सुनवाई के बाद सभी पक्षों के वकीलों को बुला कर यह प्रस्ताव रखा कि बातचीत के ज़रिए मामला को सुलझाने की कोशिश की जाए। उन्होंने इस पर उनकी राय माँगी। हिन्दू पक्ष ने बातचीत से मामला सुलझाने की पेशकश को खारिज कर दिया।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर सिंह ने 21 मार्च 2017 को बातचीत के ज़रिए राम मंदिर-बाबरी मसजिद विवाद के निपटारे की कोशिश की उन्होंने कहा, ‘यह आस्था और संवेदनशीलता का मामला है। थोड़ा दीजिए, थोड़ा लीजिए और मामले को सलटा लीजिए। अदालत बीच में तभी आए जब आप मामला नहीं सुलझा सकें।’

‘यदि सभी पक्ष यह चाहते हैं कि मैं उनकी ओर से चुने गए प्रतिनिधियों के बीच बातचीत के लिए बैठूँ तो मैं यह ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हूँ।’


जस्टिस खेहर सिेंह, पूर्व मुख्य न्यायाधीश

जस्टिस खेहर सिंह ने यह भी कहा कि यदि तमाम पक्ष किसी दूसरे जज की मदद लेना चाहें तो भी ठीक है, वे ऐसा ही करें, उन्हें बुरा नहीं लगेगा। मुख्य न्यायाधीश ने तो यह भी कहा कि यदि सभी पक्ष चाहें तो वह उनके लिए मुख्य मध्यस्था भी ढूंढ सकते हैं। लेकिन यह बात आगे नहीं बढ़ी।

अब एक बार फिर मध्यस्थता और बातचीत के ज़रिए समस्या के समाधान की कोशिश हो रही है। इस पर अभी से ही सवाल उठने लगे हैं। निमोही अखाड़े को छोड़ सभी हिन्दू पक्षों ने कह दिया है कि बातचीत तो कर लेंगे, पर राम मंदिर तो उस विवादित जगह पर ही बनेगा, उस पर कोई समझौता नहीं हो सकता। क्या इस बार भी नतीजा ढाक के तीन पात होगा या कोई रास्ता निकलेगा, यह अगले तीन महीने में पता चल जाएगा।