दलित नहीं उठाएँगे मरा जानवर, माँगते हैं बराबरी का हक़

12:59 pm Jan 17, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

गुजरात के मेहसाणा ज़िले के लहोड़ गाँव के दलितों ने मरा हुआ जानवर उठाने से इनकार कर दिया तो लोगों को अचरज हुआ। सदियों से यही होता आया है कि गाय ही नहीं, उसके पेशाब तक को पवित्र मानने वाला सवर्ण समुदाय उसके मरने के बाद उसे छूता तक नहीं है, दलित उस मरी गाय को उठा कर ले जाते हैं, उसकी खाल उघेड़ कर, हड्डियाँ निकाल कर रख लेते हैं और अवशेष दफ़ना देते हैं। 

लहोड़ की इस घटना के छह महीने हो चुके हैं। लोग अब गाय-बैल मरने पर उसे ट्रैक्टर के साथ बाँध कर दूर ले जा कर दफ़ना देते हैं। यह उन्हें अच्छा नहीं लगता है, पर कोई उपाय भी तो नहीं है।

वजह क्या है?

इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने लहोड़ के दलित समुदाय से इसकी वजह जानने की कोशिश की। गाँव में इस समुदाय में कई डॉक्टर हैं, सरकारी कर्मचारी हैं, एक पुलिस कॉन्सटेबल है।

लहोड़ दलित समुदाय के एक बुजुर्ग भीखाभाई परमार ने कहा, ‘पहले हम मरा जानवर उठाते थे। ख़ुद मैंने यह काम किया है, पर इसके बदले ग़ैर-दलित हमारे साथ बेहद बुरा व्यवहार करते थे। हम ऐसा क्यों करे?’

कुछ दूसरे दलितों ने कहा, ‘ग़ैर-दलित हमसे यह काम तो करवाते हैं, पर वे इसके लिए तैयार नहीं हैं कि हम उनके साथ बैठ कर खाना खाएँ। मंदिरों में वे हम एक कोने में बैठा देते हैं, हम उनके पास नहीं जा सकते, वे हमसे मिलते जुलते नहीं हैं।’

दलितों ने साफ़ कर दिया है, चाहे जो हो जाए, वे मरा जानवर नहीं उठाएँगे।

फैल रही दलित चेतना

यह दलित चेतना लहोड़ या मेहसाणा तक सीमित नहीं है। पूरे राज्य में फैल चुकी है। गुजरात के अधिकतर इलाक़ों में दलितों ने मरा जानवर उठाने का काम बंद कर दिया है। समुदाय के लोग यह बिल्कुल मानने को तैयार नहीं है कि बुरा, गंदा और ख़राब माने जाने वाला काम वे ही करे। वे सवाल उठाते हैं कि हम ग़ैर-दलितों के लिए यह काम करें और वे ही हम अछूत माने, हमारे साथ भेदभाव करें, ऐसा क्यों? वे ख़ुद यह काम क्यों नहीं करते?

ऊना में दलितों की पिटाई

इस दलित चेतना ने निर्णायक मोड़ 2016 की एक वारदात के बाद ले लिया। ऊना तालुका के मोटा समधियाना गाँव में 10 जुलाई 2016 की रात एक मरी हुई गाय की खाल निकाल रहे दलितों को स्थानीय लोगों ने गोहत्या के आरोप में पकड़ लिया, उन्हें बाँधा और बुरी तरह पीटा। इस घटना ने पूरे देश में भूचाल ला दिया। यह दलित चेतना में उभार यकायक नहीं है। सदियों से शोषित और प्रताड़ित समुदाय में जागरण हो रहा है और सवर्ण समाज इसको पचा नहीं पा रहा हैं। 

बीते पाँच साल में इस समुदाय को पहले से अधिक निशाने पर लिया जा गया है, उन पर हमले पहले से ज़्यादा हुए हैं। इसकी वजह यह है कि एक ख़ास किस्म की शुद्धतावादी सोच देश पर हावी है, जिसमें न तो सबको साथ लेकर चलने की सोच है न ही दूसरों के लिए थोड़ी भी जगह देने की गुंजाइश।

रोहित वेमुला की आत्महत्या

ऊना की वारदात के पहले दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने पूरे देश को मथ दिया था। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के  पीएच.डी छात्र रोहित वेमुला ने 17 जनवरी, 2016 की रात फाँसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली। वह दलित समुदाय के थे। रोहित सहित विश्वविद्यालय के पांच दलित छात्रों को हॉस्टल से निकाल दिया गया था। 25 साल के रोहित गुंटुर ज़िले के रहने वाले थे और विज्ञान तकनीक और सोशल स्टडीज़ में दो साल से पीएचडी कर रहे थे।

भीमा कोरेगाँव

यह सिलसिला यहाँ नहीं रुका। इसके बाद दिसंबर 2017 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में दलितों पर हमले हुए, आगजनी और हिंसा हुई और पुलिस ने उन्हें ही गिरफ़्तार भी किया। 

साल 1927 में भीमराव आंबेडकर ने यहाँ बने वॉर मेमोरियल का दौरा किया और इसके बाद महार समुदाय ने अगड़ी जाति के पेशवाओं पर मिली जीत की याद में इस दिन को मनाना शुरू किया। इस घटना के दो सौवीं सालगिरह पर आयोजित कार्यक्रम में देश भर से हज़ारों दलित इसमें शरीक हुये। पहली जनवरी को भीमा नदी के किनारे स्थित मेमोरियल के पास दिन के 12 बजे जब लोग अपने नायकों को श्रद्धांजलि देने के लिये इकठ्टा होने लगे तभी हिंसा भड़की।

इसके एक साल बाद जब उसी जगह पर दलितों के संगठन भीम आर्मी ने कार्यक्रम करना चाहा तो उसकी अनुमति नहीं दी गई और उसके नेता चंद्रशेखर ‘रावण’ को गिरफ़्तार कर लिया गया। इतना ही नहीं, पुलिस ने भीम आर्मी के कई कार्यकर्ताओं और नेताओं को हिरासत में भी लिया है।

दलितों के साथ ज़ुर्म

एक समाजिक अध्ययन में यह कहा गया है कि दलित अभी भी भारत के गाँवों में कम से कम 46 तरह के बहिष्कारों का सामना करते हैं। जिसमें पानी लेने से लेकर मंदिरों में घुसने तक के मामले शामिल हैं। हाल ही में महाराष्ट्र (खैरलांजी), आंध्र प्रदेश (रोहित वेमुला), गुजरात (उना), उत्तर प्रदेश (हामीरपुर), राजस्थान (डेल्टा मेघवाल) में हुए दलित उत्पीड़न के मामलों से यह साबित होता है कि संवैधानिक गणतंत्र बनने के 67 साल बाद भी दलितों के साथ असमानता, अन्याय और भेदभाव वाला व्यवहार होता है।

67 साल पहले 1950 में जब देश ने संवैधानिक गणतंत्र को अपनाया था, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक और धार्मिक रूप से बहिष्कृत जाति के लोगों को मौलिक और कुछ विशेष अधिकार मिले थे। संविधान की धारा 330, 332 और 244 के मुताबिक़ उन्हें राज्य, देश और स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया था।

लेकिन पिछले पाँच साल में दलितों की स्थिति बदतर हुई है। उन पर हमले बढ़े हैं, उन्हें विश्वविद्यालयों की नौकरियों में आरक्षण को विश्वविद्यालय स्तर से घटा कर विभागीय स्तर पर कर दी गयी जिससे से दलितों में काफी रोष है। एससी-एसटी क़ानून में बदलाव से भी दलितों में ग़ुस्सा काफी भड़का। सवर्णों को आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण भी दलितों को रास नहीं आया है। इसी तरह लोकसभा चुनावों के लिए जब टिकटों के बँटवारे का समय आया तो आरक्षित सीटों के अलावा सामान्य सीटों पर दलितों को टिकट लगभग नहीं दिया गया है। बीजेपी के साथ काम कर रहे दलित नेता ऐसे में परेशान हैं। और दलित चेतना बारूद की तरह फटे, इसके पहले कि कोई हादसा हो, सरकारों को समय रहते चेत जाना चाहिये।