सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम सिस्टम को लेकर केंद्र सरकार बार-बार बयान दे रही है। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने शुक्रवार को कहा कि कॉलेजियम सिस्टम भारतीय संविधान के लिए एलियन की तरह है। उन्होंने कहा कि अदालत ने खुद ही फैसला करके कॉलेजियम सिस्टम बना लिया जबकि 1991 से पहले सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार के द्वारा ही की जाती थी।
रिजिजू ने यह भी कहा कि आखिर किस प्रावधान के तहत कॉलेजियम सिस्टम बनाया गया है। उन्होंने यह बात टाइम्स नाउ की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में कही।
किरण रिजिजू ने इससे पहले भी कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर सवाल उठाया था और कहा था कि जजों को नियुक्त करने वाली यह व्यवस्था पारदर्शी नहीं है और जवाबदेह भी नहीं है।
उन्होंने कहा था कि दुनिया में कहीं भी जज ही जजों की नियुक्ति नहीं करते हैं लेकिन भारत में ऐसा होता है। कानून मंत्री ने कहा था कि इस काम में जजों का बहुत सारा वक्त भी लगता है और इसमें राजनीति भी शामिल होती है।
जबकि सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि कॉलेजियम को लेकर हो रही आलोचना को सकारात्मक ढंग से लेना चाहिए और इसमें सुधार के प्रयास किए जाने चाहिए।
यह समझना जरूरी होगा कि कॉलेजियम क्या है।
क्या है कॉलेजियम?
कॉलेजियम शीर्ष न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने और प्रमोशन करने की सिफ़ारिश करने वाली सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ जजों की एक समिति है। यह समिति जजों की नियुक्तियों और उनके प्रमोशन की सिफ़ारिशों को केंद्र सरकार को भेजती है और सरकार इसे राष्ट्रपति को भेजती है। राष्ट्रपति के कार्यालय से अनुमति मिलने का नोटिफ़िकेशन जारी होने के बाद ही जजों की नियुक्ति होती है।
एनजेएसी
मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में कॉलेजियम को नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमीशन यानी एनजेएसी से रिप्लेस करने की कोशिश की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 2015 में इस प्रस्ताव को 4-1 से ठुकरा दिया था। तब कहा गया था कि एनजेएसी के जरिए सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ख़ुद नियुक्तियां करना चाहती थी और इसके बाद सरकार और न्यायपालिका में टकराव बढ़ गया था।
न्यायपालिका संग टकराव
यहां याद दिला दें कि मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल में कई बार न्यायपालिका से टकराती रही। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक बार कहा था कि भारत की न्यायपालिका लगातार विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण कर रही है और अब केंद्र सरकार के पास केवल बजट बनाने का और वित्तीय अधिकार रह गए हैं।
सरकारें आम तौर पर कॉलेजियम के फैसलों को मानती रही हैं लेकिन जस्टिस जोसफ और जस्टिस अकील कुरैशी के मामलों के बाद यह बात सामने आई थी कि सरकार और न्यायपालिका के रिश्ते ठीक नहीं हैं।
जस्टिस अकील कुरैशी का मामला
राजस्थान हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश के चीफ जस्टिस के रूप में नियुक्त किए जाने की कॉलेजियम के द्वारा साल 2019 में की गई सिफारिश को भी केंद्र सरकार ने नहीं माना था और उनके नाम को वापस लौटा दिया था। तब यह बात सामने आई थी कि जस्टिस कुरैशी के द्वारा लिए गए कुछ फैसलों से केंद्र सरकार नाराज है।
जस्टिस जोसेफ का मामला
साल 2016 में उत्तराखंड हाई कोर्ट के जस्टिस जोसेफ का मामला भी काफी चर्चा में रहा था। 2016 में उत्तराखंड की तत्कालीन हरीश रावत सरकार में बड़ी बगावत हुई थी और उसके बाद केंद्र सरकार ने वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। लेकिन जस्टिस जोसेफ के फैसले के बाद उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन रद्द हो गया था और यह माना गया था कि इस वजह से बीजेपी राज्य में अपनी सरकार नहीं बना सकी थी। उस दौरान कानूनी मामलों से जुड़ी संस्थाओं और विपक्ष ने आरोप लगाया था कि सरकार ने जस्टिस जोसेफ का उत्पीड़न करने की कोशिश की।
जस्टिस जोसफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफ़ारिश को लेकर भी केंद्र और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ था। जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफारिश पर केंद्र ने दोबारा विचार करने के लिए कहा था। हालांकि बाद में केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की सिफ़ारिश को स्वीकार कर लिया था।
अब सवाल यह है कि क्या जस्टिस चंद्रचूड़ के सीजेआई बनने के बाद केंद्र सरकार कॉलेजियम सिस्टम को लेकर ज्यादा मुखर हो गई है। अगर ऐसा नहीं है तो वह कॉलेजियम सिस्टम को लेकर बार-बार सवाल खड़े क्यों कर रही है। यह आरोप लगता है कि केंद्र सरकार कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर ऐसे लोगों को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जज बनाना चाहती है, जो उसके मनमुताबिक फैसले दें।