चीन की शर्त: भारत के पैंगोंग त्सो खाली करने के बाद ही होगी बातचीत 

01:50 pm Oct 17, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा के आर-पार लगभग एक लाख सैनिक तैनात हैं, दोनों सेनाएं मुस्तैद हैं और तनाव पहले की तरह ही बरक़रार है। इसके बावजूद भारतीय सेना और चीनी सेना के बीच सात दौर की बातचीत नाकाम हो चुकी है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, अब चीन यह कह रहा है कि पहले की स्थिति फिर से बहाल करने पर बातचीत शुरू करने के लिए यह ज़रूरी है कि पहले भारत पैंगोंग त्सो का दक्षिणी इलाक़ा खाली करे। भारत अब तक यह कहता रहा है कि अप्रैल में एलएसी की जो स्थिति थी, वह बहाल की जाए, यानी दोनों देशों की सेनाएं अपने-अपने सैनिकों को वहां तक वापस बुला लें जहां तक अप्रैल में उनकी मौजूदगी थी।

जिच बरक़रार

दरअसल दोनों देशों के बीच बातचीत इसी मुद्दे पर हो रही है। शुरू के कुछ दौर की बातचीत के बाद दोनों देशों में गलवान घाटी से सैनिकों को वापस बुलाने पर सहमति बनी थी। इसके बाद जितनी बार बातचीत हुई है, भारत ने हमेशा यही कहा है कि एलएसी पर मौजूदा संकट शुरू होने के पहले की स्थिति बहाल की जाए। चीन हर बार अपने सैनिकों को मौजूदा स्थिति से पीछे ले जाने से इनकार कर रहा है।

इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से कहा है कि भारतीय सेना ने चीनी सेना को रोकने के लिए 7 जगहों पर वास्तविक नियंत्रण को पार कर चीनी इलाक़े पर कब्जा कर लिया है। इससे भारतीय सेना को चीन के मुक़ाबले बढ़त मिली है और स्थिति मजबूत हो गई है। 

भारत ने पैंगोंग त्सो के दक्षिणी इलाक़ों की जिन चोटियों पर कब्जा कर लिया है, वहाँ से वह स्पंगर गैप तक नज़र रख सकता है। अब भारतीय सेना की नज़र की जद में मोल्डो भी आ गया है, यह वह जगह है जहां चीनी सेना की उस इलाक़े की बड़ी और मजबूत चौकी है।

चीन की शर्त

अख़बार ने सूत्रों के हवाले से कहा है, 'अंतिम बातचीत में चीन ने कहा है कि पहले भारत पैगोंग त्सो का दक्षिणी इलाक़ा खाली करे, उसके बाद स्थिति सामान्य करने की अगली बातचीत होगी। भारत ने ज़ोर दिया है कि पैंगोंग त्सो के दक्षिणी और उत्तरी इलाक़े एक साथ ही खाली किए जाएं, यानी दोनों सेनाएं एक साथ अपने सैनिक वापस बुलाएं।' भारतीय सेना का आकलन है कि दोनों देशों की सेनाओं के बीच बातचीत में गतिरोध बने रहने की असली वजह यही है।

लेकिन राजनीतिक स्तर पर दोनों देशों के बीच अधिक गहरे मतभेद हैं। रूस की राजधानी मास्को में दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच हुई बातचीत में यह तय हुआ था कि वे सीमा पर शांति बहाल करेंगे और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिससे दूसरे को किसी तरह का उकसावा मिले। इसके बाद दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच हुई बातचीत में भी यही बात दुहराई गई। 

सेनाएं आमने-सामने

लेकिन ज़मीनी स्तर पर यह नहीं दिखा। चीन ने अपनी सेना पीछे नहीं हटाई और इस कारण भारतीय सेना भी अपनी जगह जमी हुई है। ठंड का मौसम शुरू हो चुका है और लद्दाख में 18 से 20 हज़ार फीट की ऊंचाई पर जाड़े में हज़ारों सैनिकों को टिकाए रखना बेहद चुनौती भरा काम है। यह दिक्कत दोनों देशों की सेनाओं को समान रूप से है। इसके बाद वे सैनिकों को वापस बुलाने पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं।

दोनों देशों के बीच राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर अविश्वास चरम पर है और कटुता पहले से बढ़ती जा रही है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इस पर चिंता चताते हुए कहा है कि 'चीन का रवैया पहले से एकदम बदला हुआ है' और इसके 'दूरगामी राजनीतिक नतीजे' होंगे। उन्होंने कहा कि गलवान घाटी में हुई हिंसा और उसमें भारतीय सैनिकों की शहादत से द्विपक्षीय संबंधे बुरी तरह प्रभावित हुए।

ऑस्ट्रेलिया की दिलचस्पी

जयशंकर की एक किताब बीते दिनों प्रकाशित हुई, जिसका नाम है  'द इंडिया वे : स्ट्रैटेजीज़ फ़ॉर एन अनसर्टेन वर्ल्ड।' इस पर हुई एक चर्चा में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री केविन रड भी मौजूद थे।

भारतीय विदेश मंत्री ने इस पुस्तक परिचर्चा में कहा कि वे आज तक नहीं समझ पाए हैं कि आखिरकार चीन को इतनी बड़ी संख्या में इस जगह सैनिकों को तैनात करने की ज़रूरत ही क्यों है। यह भारत की सुरक्षा के लिए चुनौती है।

यह बेहद अहम है कि केविन रड ने इस मुद्दे पर चीन की आलोचना की और भारत के रुख का समर्थन किया। रड ने कहा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से लेकर दक्षिण चीन सागर और ऑस्ट्रेलिया के साथ रिश्ते तक में चीन के व्यवहार में एक तरह का आक्रमक रवैया साफ झलकता है।

केविन रड और उनकी पार्टी आज सत्ता में नहीं है, लेकिन उनकी बातों से यह साफ है कि ऑस्ट्रेलिया का बड़ा तबका इस मुद्दे पर भारत से सहानुभूति रखता है।

इस परिचर्चा से एक और बात साफ हुई है कि चीन के साथ मतभेद सिर्फ सैन्य मामलों में नहीं है, राजनीतिक व आर्थिक मुद्दे भी हैं। भारतीय विदेश मंत्री ने इस ओर भी लोगों का ध्यान दिलाया और कहा कि आर्थिक मुद्दों पर भी चीन भारत के प्रति संवेदनशील नहीं है और उसके उत्पादों पर अधिक कर लगाता है। इसी तरह बीजिंग भारत की राजनीतिक संवेदनाओं के प्रति भी उदासीन है।