संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संगठन ने नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सबको चौंका दिया है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय (ओएचसीएचआर) ने अदालत से कहा है कि वह इस मामले में हस्तक्षेप करे और मामले की सुनवाई में उसे एमिकस क्यूरी बनाए, यानी, उसकी सलाह ले।
भारत के विदेश मंत्रालय ने इस पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहा है कि यह भारत का आंतरिक मामला है और भारत के संसद को क़ानून बनाने का सार्वभौमिक हक़ है।
क्या है ओएचसीएचआर
संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव के ज़रिए 1993 में ओएचसीएचआर का गठन हुआ। इसे यह अधिकार दिया गया कि वह हर देश में मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करे और इसके उल्लंघन की जानकारी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को दे। वह हर देश में इस मुद्दे पर रिपोर्ट तैयार करे और वहाँ मानवाधिकारों की रक्षा के लिए ज़रूरी कदम उठाए।संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के तुरन्त बाद ही मानवाधिकारों की सुरक्षा का मुद्दा उठा था और 1948 में ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई थी। भारत अपनी आज़ादी के तुरन्त बाद से ही संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है। उसने मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े विएना डिक्लेरेशन पर शुरू में ही दस्तख़त कर दिया था। इस मामले में भारत की अच्छी साख है और उसका सम्मान किया जाता है।
क्या कहना है ओएचसीएचआर का
पर हाल के दिनों में भारत की साख को बट्टा लगा है। लोग अब भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर अंगुली उठाने लगे हैं। इसी क्रम में जब ओएचसीएचआर ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया तो कई सवाल खड़े हुए। इसका कहना है कि भारत ने यह मान लिया है कि पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश में मुसलमानों के साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।
संयुुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन का कहना है कि सच तो यह है कि पाकिस्तान में अहमदिया, शिया और हज़ारा मुसलमानों के साथ उनकी आस्था की वजह से भेदभाव किया जाता है।
इसी तरह ओएचसीएचआर का यह भी कहना है कि जाति, नस्ल और धर्म के आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना मानवाधिकारों का उल्लंघन ही है। इस मामले में उच्चायुक्त कार्यालय का कहना है कि राष्ट्रीयता देने के मामले में इन आधारों पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या ओचएसीएचआर को इसका अधिकार है
इस मानवाधिकार संगठन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 48/141 के तहत भारत में यह कदम उठाया है। इसके तहत उसे यह अधिकार है कि वह नस्ल, धर्म, जाति या रंग के आधार पर होने वाले भेदभाव का विरोध करे।
भारत इंटरनेशनल कोवीनेंट ऑन सिविल एंड पोलिटिकल राइट्स के अलावा इंटरनेशनल कोवीनेंट ऑन एलिमिनेशन ऑफ़ रेशियल डिस्क्रिमिनेशन पर भी दस्तख़त करने वाले देशों में है।
भारत में पहली बार
इन समझौतों के प्रावधानों के मुताबिक नस्ल के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है।नागरिकता संशोधन क़ानून उस अंतरराष्ट्रीय समझौते के भी ख़िलाफ़ है, जिसमें कहा गया है कि प्रवासियों को समान मौका दिया जाएगा और उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा।
ओएचसीएचआर ने सुप्रीम कोर्ट में किसी मामले में याचिका दायर को हो, भारत में यह पहली बार हुआ है। लेकिन दूसरे संगठनों और कई देशों ने भारत में इस तरह का हस्तक्षेप पहले भी किया है।
संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ई तेंदायी अकीयूम ने रोहिंग्या मुसलमानों को बाहर भेजने का विरोध करते हुए 10 जनवरी को एक अर्जी दी थी, जिस पर सुनवाई मुख्य न्यायाधीष एस. ए. बोबडे कर रहे हैं।
लेकिन बीते कुछ समय से भारत की छवि बदली है। अब भारत की यह छवि बन रही है कि वहाँ धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाता है। इसी वजह से रोहिंग्या मुसलमानों को देश से बाहर करने के मुद्दे पर भारत की आलोचना हुई थी। लेकिन बाद के दिनों में यह आलोचना बढ़ती चली गई। एनआरसी और सीएए की वजह से यह छवि बनी है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने पहले असम में एनआरसी के मुद्दे पर भारत की आलोचना की थी। उसने कहा था कि इससे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा ख़तरे में है।
इसी तरह उसने सीएए के मुद्दे पर भी कहा था कि यह भेदभावपूर्ण है क्योंकि मुसलमानों को इसमें शामिल नहीं किया गया।
संयुक्त राज्य अंतरराष्ट्रीय धार्मिक समानता आयोग ने भी पहले एनआरसी और उसके बाद सीएए का विरोध किया था। उसने सीएए के मुद्दे पर कहा था कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ है और इससे उनकी स्थिति कमजोर होगी।
ऐसे में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय की यह पहल निश्चित रूप से भारत के ख़िलाफ़ है। इससे भारत की छवि और बदरंग होगी।