'अंतर-धार्मिक विवाहों में अदालत नहीं कर सकती हस्तक्षेप'

08:37 pm Dec 23, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

कथित लव जिहाद पर क़ानूनी दाँव-पेच और राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोंपों के बीच कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक बेहद अहम फ़ैसला दिया है। हाई कोर्ट ने कहा है कि यदि अलग-अलग धर्मों के लोगों के विवाह में कोई महिला अपना धर्म बदल कर दूसरा धर्म अपना लेती है और उस धर्म को मानने वाले से विवाह कर लेती है तो किसी अदालत को इस मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। 

जस्टिस संजीब बनर्जी और जस्टिस अरिजित बनर्जी के खंडपीठ ने यह फ़ैसला उस मामले की सुनवाई करते हुए दिया जिसमें 19 साल की एक महिला ने अपना धर्म बदल लिया और दूसरे धर्म के युवक से विवाह कर लिया। 

उस महिला ने कहा कि यह उसका अपना फ़ैसला है, उसने स्वेच्छा से उस युवक से विवाह किया है। उस महिला के पिता ने अदालत में कहा कि उसने दबाव में यह बयान दिया है। 

अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा, 

"यदि कोई बालिग नागरिक अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है और स्वेच्छा से विवाह कर अपने पिता के घर नहीं लौटने का निर्णय लेता है तो इस मामले में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।"


कलकत्ता हाई कोर्ट के फ़ैसले का अंश

इलाहाबाद हाई कोर्ट का फ़ैसला

इसके पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में कहा था कि धर्म की परवाह किए बग़ैर मनपसंद व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार किसी भी नागरिक के जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के अधिकार का ज़रूरी हिस्सा है। संविधान जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। 

जस्टिस पंकज नक़वी और जस्टिस विवेक अगरवाल की बेंच ने एक अहम फ़ैसले में कहा कि पहले के वे दो फ़ैसले ग़लत थे, जिनमें कहा गया था कि सिर्फ विवाह करने के मक़सद से किया गया धर्म परिवर्तन प्रतिबंधित है। बेंच ने कहा कि ये दोनों ही फ़ैसले ग़लत थे और 'अच्छे क़ानून' की ज़मीन तैयार नहीं करते हैं। 

इलाहाबाद हाई कोर्ट की इस खंडपीठ ने कहा, "जब क़ानून एक ही लिंग के दो लोगों को शांतिपूर्ण ढंग से एक साथ रहने की अनुमति देता है तो किसी व्यक्ति, परिवार, यहां तक कि राज्य को दो बालिग लोगों के अपनी मर्जी से साथ रहने पर आपत्ति नहीं हो सकती है।"

इस फ़ैसले में कहा गया है कि किसी व्यक्ति का किसी मनपसंद व्यक्ति के साथ रहने का फ़ैसला नितांत रूप से उसका निजी मामला है। इस अधिकार का उल्लंघन संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गये जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

कर्नाटक हाई कोर्ट का निर्णय

इसी तरह एक दूसरे मामले में कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी कहा कि किसी व्यक्ति का मनपसंद व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार उसका मौलिक अधिकार है, जिसकी गारंटी संविधान देता है। 

जस्टिस एस. सुजाता और सचिन शंकर मगडम ने वजीद ख़ान की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फ़ैसला दिया था। वजीद ख़ान ने अपने जीवन साथी सॉफ़्टवेअर इंजीनियर राम्या को बेंगलुरु के महिला दक्षता समिति में ज़बरन रखने का मामला उठाते हुए अदालत में हैबियस कॉर्पस यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर की थी। 

केरल हाई कोर्ट का फ़ैसला

केरल हाई कोर्ट ने एक निर्णय में कहा कि अलग-अलग धर्मों के लोगों के विवाह को 'लव-जिहाद' नहीं मानना चाहिए, बल्कि इस तरह के विवाहों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 

कन्नूर के रहने वाले अनीस अहमद और श्रुति के विवाह से जुड़ी याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दोनों को एक साथ रहने की अनुमति देते हुए कहा कि यह विवाह पूरी तरह जायज है। 

अक्टूबर, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम फ़ैसले में हादिया (अखिला) और शाफ़िन जहाँ के विवाह को क़ानूनी रूप से जायज़ ठहराते हुए कहा था कि मनपसंद व्यक्ति के साथ विवाह करना किसी भी नागरिक का निजी मामला है, यह उसका मौलिक अधिकार है।

राष्ट्रीय जाँच एजेन्सी (एनआईए) ने अदालत से कहा था कि शाफ़िन अपराधी है। इस पर अदालत ने एनआईए को फटकार लगाते हुए कहा था कि मनपसंद आदमी के साथ विवाह करना किसी का निजी फ़ैसला है, वह चाहे तो किसी अपराधी से भी विवाह कर सकता है। 

हादिया का 'लव जिहाद' का मामला

दरअसल, 'लव जिहाद' शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले हादिया के मामले में ही हुआ था। 

केरल की हिन्दू महिला अखिला ने धर्म बदल लिया, मुसलमान बन गई, अपना नाम हादिया रख लिया और मुहम्मद शाफ़िन से विवाह कर लिया। 

केरल हाई कार्ट ने महिला के पिता की याचिका पर इस विवाह को 'लव जिहाद' कहा, विवाह को रद्द कर दिया और हादिया से अपने पिता के घर लौट जाने को कहा। 

हादिया के पति ने हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अगस्त 2017 में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने एनआईए से लव जिहाद की जाँच करने को कहा था।