इकनॉमिक टाइम्स की ख़बर है कि बच्चों को स्कूल में नाश्ता देने की चार हजार करोड़ की योजना को वित्त मंत्रालय ने वीटो कर दिया है। योजना शिक्षा मंत्रालय ने आगे बढ़ाई थी और फंड की कमी का नाम लेकर वित्त मंत्रालय ने इसे रोक दिया है। शिक्षा मंत्रालय बच्चों में बढ़ते कुपोषण को देखते हुए इस योजना को चलाने और दोपहर के खाने की योजना को बाल वाटिकाओं में भी चलाने का प्रस्ताव लेकर आया था।
समन्वित शिशु एवं बाल कल्याण कार्यक्रम के तहत चलने वाली आंगनबाड़ियों के दायरे से बच्चों का यह समूह छूट रहा था। वित्त मंत्रालय ने इसे तो पास कर दिया लेकिन बच्चों को नाश्ता देने की योजना पर वीटो कर दिया।
यह प्रस्ताव अब कैबिनेट में रखा जा सकता है क्योंकि अनेक सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि बच्चे खाली पेट स्कूल आते हैं और स्कूल में लम्बा समय बिना कुछ खाये गुजारने से उनके स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर बुरा असर पड़ता है।
अगर उन्हें नाश्ते के रूप में कुछ ताजा बना हुआ आहार मिले तो इससे उनके स्वास्थ्य में तो लाभ होगा ही, उनकी पढ़ाई में भी फायदा होगा।
कुपोषण का स्तर बढ़ा
ज्यादा चिंता की बात यह है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नए दौर में यह बात सामने आई है कि 2015 से 2019 के बीच बच्चों में कुपोषण का स्तर फिर से बढ़ता गया है। यह सर्वेक्षण बहुत व्यापक स्तर पर होता है और इसके आंकड़ों को अब तक बहुत आदर से देखा जाता था तथा योजना बनाने वाले और लागू करने वाले इसका बहुत ख़्याल रखते थे।
दूसरे सर्वेक्षणों से भी यह बात सामने आ रही थी कि समन्विकृत बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस) और मिड डे मील जैसे कार्यक्रमों की वजह से कुपोषण के स्तर में गिरावट आने लगी थी।
कई सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई थी कि तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना जैसे उन राज्यों में बच्चों के स्वास्थ्य और स्कूलों में दाखिले के स्तर में काफी सुधार हुआ है जहां इन योजनाओं को ठीक से चलाया जा रहा था और जहां ताजा भोजन देने और उसके साथ राज्य सरकारों द्वारा अपनी तरफ से दूध, अंडा और फल देने का कार्यक्रम व्यवस्थित ढंग से चलाया जा रहा था।
इधर, मध्य प्रदेश में जब अंडा देना शुरू हुआ तो नए तरह का जातिवाद सामने आया और बच्चों को भ्रष्ट करने का आरोप लगने लगा।
साथ ही यह बात भी सामने आई कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश समेत ज्यादातर हिन्दी भाषी राज्यों में छुआछूत के मामले सामने आए और खाने की क्वालिटी भी खराब थी। पंजाब में एक दौर ऐसा भी आया जब अधिकांश सरकारी स्कूल दलित बच्चों की पढ़ाई भर का केन्द्र रह गए और बाकी बच्चे प्राइवेट स्कूल जाने लगे। अब वहां स्थिति बदली है।
काफी जगह खाने के नाम पर, खासकर उत्तर प्रदेश में तो पंजीरी और मूड़ी दी जाती थी। खाना आपूर्ति के ठेकों में भी सांसद-विधायक और मंत्रियों द्वारा भाई-भतीजावाद और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और रिश्तेदारों को काम देने जैसी गड़बड़ी की शिकायत आम रही।
भोजन योजना से हुआ फायदा
इधर, हिन्दी पट्टी में भी कुछ सुधार दिखा था, खासकर बिहार में। वहां अभियान चलाकर बच्चों को स्कूल में दाखिला देने का प्रयास हुआ तथा दोपहर के भोजन कार्यक्रम से उसमें मदद मिली। सुबह से बच्चों की संख्या, भोजन की क्वालिटी, उसका प्रकार बताने का इतना दबाव था कि अनेक हेडमास्टर दिन भर इसी में उलझे दिखते थे।
पर हर जगह का अनुभव यह रहा कि भोजन योजना से स्कूलों में बच्चों का आना बढ़ा है, उनका वहां रुकना बढ़ा है (ड्रापआउट रेट गिरा है) और उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ है। बिहार की तरह कई जगह से स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरने की शिकायत रही लेकिन जो बच्चे स्कूल ही नहीं आते थे और अब आने लगे हैं तो उनके लिए साक्षरता के स्तर में सुधार ही हुआ है।
स्कूल छोड़ रहे बच्चे
पर कोढ़ में खाज की तरह यह खबर भी लगभग हर राज्य से आ रही है कि कोरोना काल में बच्चों के स्कूल छोड़ने के मामलों में बहुत तेजी आई है। ऐसा प्राइवेट स्कूलों में तो हो ही रहा है, जहां की ऊंची फीस, कोरोना बन्दी के दौरान की भी फीस और डेवलपमेंट चार्ज वसूलने के किस्से लगातार अखबारों में आते रहे हैं। पर जब हरियाणा जैसे राज्य के सरकारी स्कूलों से बड़ी संख्या में बच्चे ‘गायब’ पाए गए तो हर जगह के शिक्षा विभागों का ध्यान उधर गया।
इस बीच मुल्क में कितनी बेरोजगारी बढ़ी है, हर घर की आर्थिक बदहाली कितनी बढ़ी है, पीएफ से पैसे लेकर या बैंक जमा निकालकर राशन-पानी का खर्च निकालने की कितनी घटनाएं हुई हैं, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है।
ऐसे में कितने लाख, और सम्भव है करोड़ बच्चे वापस गाय-बकरी चराने, मां-बाप के काम में मदद करके दो पैसे ज्यादा कमाई करवाने में, ढाबों और होटलों में बरतन धोने में लगे होंगे, यह अन्दाजा कुछ समय बाद ही ठीक-ठीक लग पाएगा।
ऐसे में उनके स्कूल जाने और पढ़ाई में बने रहने के लिये एक हल्के आकर्षण और जरूरत को भी केन्द्र का वित्त मंत्रालय समाप्त कर दे तो यह गम्भीर चिंता का विषय होना चाहिए।
मुश्किल यह है कि यह चिंता किसी को नहीं दिख रही है। राजनैतिक नाटक सब चल रहे हैं। विरोध भी हो रहा है। फिर सब मिलकर जाति और आरक्षण का खेल भी खेल रहे हैं लेकिन शिक्षा और देश की सर्वाधिक कमजोर जमात के मुंह से निवाला छीनने या उनके मुंह में निवाला न देने का सरकारी फैसला क्यों बड़ा मसला नहीं है?
शिक्षा प्राथमिकता में नहीं
जिन दो तीन कमजोरियों की चर्चा ऊपर की गई है उसमें कुपोषण का मसला सरकार की तत्परता घटने से जुड़ा है। कोई चाहे तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शिक्षा को महत्व न देने और लगातार एक पर एक नालायक शिक्षा मंत्री लाने से इसका रिश्ता बता सकता है। लेकिन इस मामले में साफ लगता है कि यह सिर्फ अयोग्य शिक्षा मंत्री लाने भर का मसला नहीं है। सरकार की प्राथमिकताओं में शिक्षा और ग़रीब बच्चों का पोषण है ही नहीं।