नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) की सूची से बाहर रह गए लोगों के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस देश में वे सालों से रह रहे हैं, वहाँ से उन्हें घुसपैठिया कहकर बाहर जाने को कहा जा रहा है और जिस देश का उन्हें बताया जा रहा है वह भी उनके अपने देश से होने पर इनकार करता है। ऐसे में वे लोग करें तो क्या करें।
एनआरसी की फ़ाइनल सूची से बाहर रहे अधिकांश लोग बेहद ग़रीब और अनपढ़ हैं। इनमें कई लोग सूची में अपना नाम देखकर भी नहीं पहचान पाते और इनकी कोई मदद करने वाला भी नहीं है। मजदूरी कर अपना और परिवार का पेट पालने वाले श्रमिक भी असम में पिछले दो सालों से ख़ुद को भारत का नागरिक साबित करने में जुटे रहे। लेकिन अब एनआरसी से बाहर रह गए 19 लाख लोगों का क्या होगा, उनके पास ऐसे कोई पुराने दस्तावेज़ नहीं हैं जिनसे वह ख़ुद को भारतीय साबित कर सकें। कुल मिलाकर उनकी स्थिति बेहद ही परेशान करने वाली है।
एनआरसी की फ़ाइनल सूची आने के बाद असम सरकार के वित्त मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा था कि सूची से बाहर रह गए लोगों को लेने के लिए बांग्लादेश से संपर्क किया जाएगा। लेकिन उनके इस बयान के बाद बांग्लादेश के गृह मंत्री ने दावा किया है कि 1971 के बाद से उनके देश से कोई भी व्यक्ति भारत नहीं गया है। सरमा ने एनआरसी को बेकार की प्रक्रिया बताया था और कहा था कि बांग्लादेश से 1971 मे शरणार्थी बन कर आए कई भारतीय नागरिकों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं किए गए हैं। उन्होंने इसे लेकर कड़ा विरोध जताया था।
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में न्यूज़ 18 से बात करते हुए गृह मंत्री असदुज्जमां ख़ान ने कहा, ‘मुझे इस बात की जानकारी है कि असम में एनआरसी की लिस्ट जारी कर दी गई है। यह पूरी तरह भारत का आंतरिक मामला है और हमारा इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है।’
सरमा के बयान पर ख़ान ने कहा, ‘मैं फिर से कहता हूँ कि यह भारत का आंतरिक मामला है। मुझे नहीं पता कि इस मामले में किसने क्या कहा है। भारत को हमें इस बारे में आधिकारिक रुप से बताने दीजिए, उसके बाद ही हम इसका जवाब देंगे। मैं इतना कह सकता हूँ कि 1971 के बाद से बांग्लादेश से कोई भी भारत नहीं गया है। यह हो सकता है कि वे लोग (विशेषकर बंगाली) भारत के दूसरे हिस्सों से आकर असम में बस गए होंगे लेकिन वे बांग्लादेश के नहीं हैं।’
ख़ान ने कहा, ‘जब से बांग्लादेश बना है, भारत हमारे साथ खड़ा रहा है। भारत के साथ हमारे रिश्ते बहुत अच्छे हैं और वह हमारा दोस्त है। लेकिन जहाँ तक एनआरसी का सवाल है, मुझे नहीं लगता कि भारत सरकार किसी को जबरन बांग्लादेश भेजेगी।’
इसी तरह बांग्लादेश के अख़बार ‘द डेली स्टार’ ने एनआरसी को लेकर ‘इनमें से कोई बांग्लादेशी नहीं’ शीर्षक से ख़बर लिखी है। बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमीन के बयान के हवाले से अख़बार ने लिखा है, ‘मुझे नहीं लगता कि जो लोग एनआरसी से बाहर रह गए हैं, वे बांग्लादेशी हैं।’ ख़बर में मंत्री के हवाले से यह भी कहा गया है, ‘एनआरसी भारत का आंतरिक मामला है और हमें इससे चिंतित होने की कोई ज़रूरत नहीं है।’
यहाँ बताना ज़रूरी होगा कि 1971 के आसपास पाकिस्तान की सेना के अत्याचारों से त्रस्त होकर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश के नागरिक भारी संख्या में असम आ गए थे। इसके बाद बांग्लादेश का गठन हुआ था।
1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) द्वारा अवैध आप्रवासियों की पहचान और निर्वासन की माँग करते हुए आन्दोलन चलाया गया था और यह आन्दोलन 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ख़त्म हुआ था। असम समझौते के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 की आधी रात तक राज्य में प्रवेश करने वाले लोगों को भारतीय नागरिक माना जाएगा।
एनआरसी के मुताबिक़, जिस व्यक्ति का नाम सिटिजनशिप रजिस्टर में नहीं होता है उसे अवैध नागरिक माना जाता है। इसे 1951 की जनगणना के बाद तैयार किया गया था। इसमें असम के हर गाँव के हर घर में रहने वाले लोगों के नाम और संख्या दर्ज की गई है।
लेकिन अब इस मुद्दे पर राजनीति करने वाली और बांग्लादेश से आए आप्रवासियों को ‘घुसपैठिया’ और ‘दीमक’ बताने वाली बीजेपी ख़ुद ही इसमें फंस गई है। बीजेपी कहती रही है कि ये लोग देश को खोखला कर रहे हैं। लेकिन अब एनआरसी से कई हिंदुओं के नाम बाहर रहने के कारण बीजेपी की स्थिति बेहद ख़राब हो गई है और उसके नेता इसमें तमाम गलतियाँ बताकर एनआरसी का विरोध कर रहे हैं।
बता दें कि एनआरसी की सूची से बाहर रह गए लोगों के पास सिर्फ़ 120 दिन शेष हैं और असम के बांग्ला भाषियों को यह साबित करना है कि वे या उनके पुरखे असम में 1971 से पहले से बसे हुए हैं। उस समय वोटर कार्ड या फिर आधार जैसी सुविधा नहीं थी, इसलिए उनकी दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं। अब जब बांग्लादेश ने भी कह दिया है कि उनके देश से 1971 के बाद से कोई भी भारत नहीं गया है तो ऐसे में उनकी मुश्किलें बढ़ना लाजिमी है। लेकिन मुश्किलें बढ़ जाएँगी कहकर बात ख़त्म नहीं की जानी चाहिए बल्कि 19 लाख लोगों की परेशानी का हल निकाला जाना चाहिए।