सेनाध्यक्ष का राजनीतिक बयान देना ख़तरनाक

02:37 pm Jan 02, 2020 | प्रमोद मल्लिक - सत्य हिन्दी

थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत राजनीतिक बयान देने के लिए एक बार फिर विवादों के केंद्र में हैं। नागरिकता संशोधन क़ानून जैसे राजनीतिक फ़ैसले पर होने वाले आन्दोलन पर अपने बयान से वह सुर्खियों में हैं। उनके इस बयान पर बहस चल रही है जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘आगजनी और हिंसा की अगुआई करने वाले नेता नहीं होते हैं।’

सवाल पूछा जा रहा है कि यदि सेनाध्यक्ष राजनीति में दिलचस्पी लेने लगें और किसी राजनीतिक दल के साथ खड़े दिखें तो क्या इससे सेना के राजनीतिकरण की संभावना बलवती नहीं होती है

सवाल यह भी उठता है कि यदि ऐसा ही होता रहा तो क्या भारत में सेना की भूमिका वैसी ही नहीं हो जाएगी जैसी पाकिस्तान में है 

पहले यह जानते हैं कि जनरल बिपिन रावत ने क्या कह दिया, जिस पर तूफ़ान खड़ा है। उन्होंने कहा : 

नेता वे होते हैं जो लोगों को सही दिशा में ले जाते हैं। नेता वे लोग नहीं होते हैं जो लोगों को ग़लत दिशा में ले जाते हैं, जैसा हम बड़ी तादाद में विश्वविद्यालयों में देख रहे हैं, जहाँ लोगों ने छात्रों की अगुआई आग लगाने और हिंसा करने में की है। यह नेतृत्व नहीं है।


साफ़ समझा जा सकता है कि जनरल रावत के बयान के राजनीतिक निहितार्थ हैं। वह आन्दोलन के ख़िलाफ़ हैं और सरकार के साथ, यह निश्चित तौर पर राजनीतिक है और उनका राजनीतिक रुझान दिखाता है। 

यह बात अहम इसलिए भी हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान से इसे जोड़ कर देखा जा रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि हिंसा करने वाले लोग एक बार ख़ुद से पूछें कि उन्होंने जो किया, वह कितना ग़लत है। 

ज़ाहिर है, इस पर लोग खुल कर सामने आ गए हैं और जनरल का विरोध कर रहे हैं। 

आलोचना

कांग्रेस प्रवक्ता ब्रजेश कलप्पा ने कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ जनरल रावत का बयान संवैधानिक लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है। यदि सेना प्रमुख को आज राजनीतिक मुद्दे पर बोलने की छूट आज दी जाती है तो कल वे कल सेना को तख़्तापलट की छूट भी दी जा सकती है। 

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल-मुसलिमीन के नेता असदउद्दीन ओवैसी ने ट्वीट कर कहा, ‘नेतृत्व का अर्थ है अपने पद की सीमाएँ जानना। इसका अर्थ यह भी समझना है कि आप जिस सेना के प्रमुख हैं उसका कर्तव्य नागरिक सरकार की श्रेष्ठता को बरक़रार रखना है।’

जनरल रावत का कार्यकाल 31 दिसंबर को ख़्तम हो रहा है। समझा जाता है कि उन्हें चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेन्स स्टाफ़ बनाया जा सकता है। इस पद का अभी ही सृजन हुआ है और रावत इसके पहले प्रमुख हो सकते हैं। 

ऐसा नहीं है कि जनरल रावत ने पहली बार राजनीतिक बात की हो। वे पहले भी ऐसा कई बार कर चुके हैं और पहले भी उनकी आलोचना हुई है। आइए, देखते हैं जनरल रावत ने इससे पहले किन-किन मुद्दों पर क्या-क्या बयान दिए हैं। उनका सबसे चर्चित और विवादास्पद बयान असम पर रहा है। जनरल रावत ने असम और वहाँ रहने वाले मुसलमानों के बारे में घोर आपत्तिजनक बयान दिया था। उसकी काफ़ी आलोचना भी हुई थी। उ

रावत ने भाषण देते हुए कहा था कि असम की जनसंख्या पूरी तरह बदल चुकी है। उनके कहने का आशय यह था कि जहाँ पहले हिन्दू बहुमत में थे, वहाँ मुसलमानों की आबादी ज़्यादा है। पहले पाँच जि़लोे में ऐसा था, फिर आठ और नौ ज़िलों में यह हो गया। इसे बदला नहीं जा सकता।

एआईयूडीएफ़ के विस्तार पर चिंता

बिपिन रावत ने कहा था, ‘असम में जिस तेज़ी से भारतीय जनता पार्टी बढ़ रही है, उससे अधिक रफ़्तार से ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट बढ़ रहा है। देश में जनसंघ के पास किसी समय दो सांसद थे, वह वहाँ से जिस तेज़ी से बढ़ कर आज स्थिति में पहुँचा है, एआईयूडीएफ़ के बढ़ने की रफ़्तार उससे अधिक है। इससे असम का क्या होगा, हमें यह देखना होगा।’

सेनाध्यक्ष ने असम में मुसलमानों की बढ़ती आबादी पर चिंता जताते हुए इसे देश और राज्य के लिए ख़तरनाक क़रार दिया। उनका यह भी मानना है कि यह बांग्लादेश का 'प्रॉक्सी वॉर' है।

बांग्लादेश पर हमला

जनरल साहब ने कहा, ‘बांग्लादेश यह सुनिश्चित करेगा कि असम के इस इलाक़े पर उसके भेजे लोग काबिज हो जाएं।’ साफ़ है, वे मुसलमानों की बढ़ती तादाद से चिंतित हैं। यह भारतीय सेना के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के उलट है। इससे यह संकेत जा सकता है कि भारतीय सेना मुसलमानों के ख़िलाफ़ है। पहले भी यह कहा जाता रहा है कि भारत की सेना में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के मुक़ाबले कम है।

डोकलाम 

जब डोकलाम का मामला गरमाया हुआ था और भारत सरकार किसी तरह वहाँ से चीनी सेना को वापस बुलाने के लिए बीजिंग से बात कर रही थी, रावत ने यह कह दिया कि डोकलाम चीन और भूटान का विवादित क्षेत्र है। सेनाध्यक्ष विदेश मामलों पर क्यों बोल रहा है और विदेश मंत्रालय क्या कर रहा है, यह सवाल उठना लाज़िमी था।

कश्मीर

कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत करने के मुद्दे पर उन्होंने केंद्र सरकार के राजनीतिक फ़ैसले का समर्थन किया था। जनरल रावत ने कहा था कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं से सीधे बात न कर बिचौलिये के ज़रिए बात करने का सरकार का फ़ैसला सही है। 

उन्होंने कहा था, ‘राज्य के प्रमुख आतंकवादियों से बात करने नहीं जा रहे हैं, यह नहीं होने जा रहा है।’ यह उस समय की बात है जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर सभी पक्षों से बात करने के लिए रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर दिनेश्वर शर्मा को नियुक्त किया था। 

रावत के कश्मीर पर विवादित बयान और भी हैं। उन्होंने पत्थर फेंकने वाले युवाओं को आतंकवादी क़रार देते हुए कहा था कि हम उन्हें नहीं छोड़ेंगे और वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा किसी आतंकवादी के साथ करते हैं।

रफ़ाल

रावत ने रफ़ाल सौदे पर कहा था कि इस पर विवाद होने की वजह से सेना की युद्ध की तैयारियों पर बुरा असर पड़ा है। उन्होंने एक तरह से सरकार का बचाव करने की कोशिश की थी।

सेना प्रमुख चुनी हुई नागरिक सरकार के तहत काम करता है। वह रक्षा मंत्रालय के अधीन है और रक्षा मंत्री को रिपोर्ट करता है। ऐसे में यदि उसकी दिलचस्पी राजनीतिक या दूसरे असैनिक मामलों में होती है तो एक तरह से वह अपनी सीमा के बाहर जा रहा होता है। यह ग़लत प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है। पड़ोसी पाकिस्तान में जब जब सेना ने तख़्तापलट किया है, यह तर्क दिया है कि राजनीतिक नेतृ्त्व अपना काम करने में नाकाम रहा तो हमें आगे आना पड़ा। भारत में फ़िलहाल यह ख़तरा नहीं है। पर यदि राजनीतिक मामलों में सेना प्रमुखों की दिलचस्पी बढ़ती रही तो उनमें राजनीतिक महात्वाकांक्षा उभरने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह स्थिति देश और लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक होगी।