केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सतपाल मलिक, केंद्रीय गृह सचिव राजीव गाबा व दूसरे वरिष्ठ अधिकारियों के साथ अलग-अलग बैठकों के बाद अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म हो जाएगा संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए राज्य को विशेष दर्जा देते हैं जिसे हटाने का बीजेपी ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में प्रमुखता से ज़िक्र किया है। हालाँकि, बताया जाता है कि अमित शाह की बैठकें जम्मू कश्मीर में स्थिति और एक जुलाई से शुरू होने वाली अमरनाथ यात्रा को लेकर थी, लेकिन जो मामला सबसे ज़्यादा उछला वह है- विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन का। राज्य में परिसीमन की कथित तैयारी को भी बीजेपी के उसी लक्ष्य से जोड़कर देखा जा रहा है।
शुरुआत में ख़बरें आयी थीं कि अमित शाह की मंगलवार की बैठकों में राज्य के विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन को लेकर भी चर्चा हुई। हालाँकि, बुधवार को गृह मंत्रालय ने साफ़ किया कि राज्य में परिसीमन की कोई योजना नहीं है। अंग्रेज़ी अख़बार 'टेलीग्राफ़' ने जम्मू-कश्मीर में तैनात केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के हवाले से लिखा है, 'यदि राज्य में परिसीमन लागू होता है तो जम्मू क्षेत्र में सीटों की संख्या में अपने आप बढ़ोतरी हो जाएगी। इससे एक हिंदू मुख्यमंत्री बनने का भी रास्ता साफ़ हो सकता है।' राज्य में अब तक सिर्फ़ मुसलिम मुख्यमंत्री ही रहे हैं। अधिकारी ने कहा कि परिसीमन आयोग का गठन इसलिए किया जा रहा है ताकि अनुसूचित जाति के लिए कुछ सीटें आरक्षित की जा सकें। राज्य में पिछली बार 1995 में परिसीमन किया गया था।
फ़िलहाल जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू है और इस साल के आख़िर तक यहाँ चुनाव होने के आसार हैं। संभावित परिसीमन की इस ख़बर के बाद राज्य के प्रमुख दलों ने इसका विरोध किया है और कहा है कि यह धार्मिक आधार पर बाँटने की कोशिश है।
परिसीमन की ख़बर पर महबूबा, उमर अब्दुल्ला गुस्से में
पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ़्ती ने मंगलवार को परिसीमन आयोग के संभावित गठन को लेकर चिंता जताई और ट्वीट किया, ‘मैं उन ख़बरों को सुनकर परेशान हूँ जिनमें कहा गया है कि केंद्र सरकार विधानसभाओं का परिसीमन करने पर विचार कर रही है। जबरन परिसीमन राज्य को धार्मिक आधार पर बाँटने का भावनात्मक प्रयास होगा। पुराने जख़्मों को भरने की बजाय भारत सरकार कश्मीरियों के घावों को कुरेद रही है।’- पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी ट्वीट कर लिखा, ‘परिसीमन पर पूरे देश में साल 2026 तक रोक लगाई गई है। इसके विपरीत कुछ ग़लत जानकारी वाले टीवी चैनल इस पर भ्रम पैदा कर रहे हैं, यह केवल जम्मू-कश्मीर के संबंध में रोक नहीं है। अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाकर जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों की बराबरी पर लाने की बात करने वाली बीजेपी अब इस संबंध में जम्मू कश्मीर के साथ अन्य राज्यों से अलग व्यवहार करना चाहती है।’
अनुच्छेद 370 और 35ए पर विवाद क्यों
पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 और 35ए का ज़िक्र भी किया जिसको हटाने की बीजेपी लंबे समय से माँग करती रही है।
केंद्र में बीजेपी की दूसरी बार सरकार बनते ही बीजेपी के कश्मीर मामलों के प्रदेश प्रवक्ता अश्विनी कुमार चरंगू ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हर हाल में हटेगा। उन्होंने कहा कि इस समय यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, लेकिन इस पर क़ानूनी, राजनीतिक और संवैधानिक मसलों पर अपना पक्ष रखने का दायित्व निभाएगी। चरंगू ने कहा था कि भारतीय संविधान के इस अस्थायी प्रावधान से जम्मू-कश्मीर की जनता सात दशकों से नुक़सान झेल रही है और इसी प्रावधान ने जम्मू-कश्मीर की जनता में विभाजन कर दिया। लेकिन चरंगू के इस दावे में कितनी सच्चाई है
ध्रुवीकरण का लाभ उठाने की कोशिश
यह मामला बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए बड़ा एजेंडा रहा है और वे अनुच्छेद 370 और 35ए को ख़त्म करने की माँग लंबे अरसे से उठाते रहे हैं। उग्र हिंदुत्ववादी और तथाकथित राष्ट्रवादी तत्वों द्वारा बनाये गये कश्मीर विरोधी माहौल के बीच अगर 35ए को ख़त्म कर दिया जाता है तो उससे उपजे ध्रुवीकरण का बड़ा लाभ बीजेपी को चुनावों में लंबे समय तक मिल सकता है।
क्या है अनुच्छेद 35ए
भारत के संविधान का अनुच्छेद 35ए जम्मू कश्मीर के बाहर के लोगों को राज्य में अचल संपत्ति ख़रीदने, स्थायी तौर पर बसने और राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ उठाने से प्रतिबंधित करता है। 35ए राज्य में काम कर रही कंपनियों को राज्य से बाहर के लोगों को नौकरी देने से भी रोकता है। 35ए ने जम्मू कश्मीर विधानसभा को 'स्थायी निवासी' तय करने और उनको विशेष अधिकार देने के लिए विशेष शक्तियाँ दी हैं।
35ए को हटाने का विरोध क्यों
जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोगों को आशंका है कि यदि 35ए को हटा दिया जाएगा तो राज्य के बाहरी लोग राज्य में बस जाएँगे जो कि उनकी सांस्कृतिक पहचान के लिए ख़तरनाक होगा। इस अनुच्छेद के हटने पर बाहरी लोग वहाँ के संसाधनों पर कब्ज़ा कर लेंगे। ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए ही भारत के संविधान में 35ए के रूप में विशेष प्रावधान किया गया है। इसमें कहा गया है कि भारत एक संघ है जहाँ राष्ट्रीय एकता के साथ ही क्षेत्रीय पहचान को भी सुरक्षित रखने को तरजीह दी गयी है।
देश की भौगोलिक, भाषायी, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए ही 35ए का यह प्रावधान किया गया है ताकि यदि किसी समय पर केंद्रीय ताक़त मज़बूत हो जाए तो राष्ट्रीय एकता के नाम पर क्षेत्रीय पहचान से छेड़छाड़ न की जा सके।
किस आधार पर 35ए को हटाने की माँग
सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी गई कि 35-ए का हवाला देकर सरकार ने सभी नागरिकों को संविधान में दिये गये मूल अधिकारों का उल्लंघन किया है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इसे तुंरत ख़ारिज़ कर देना चाहिए। उनका तर्क है कि राज्य में बाहरी लोगों को देश के अन्य राज्यों की तरह ही अधिकार मिलने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में दलील दी गयी है कि 35ए को संसद के ज़रिए लागू नहीं करवाया गया है, इसलिए इसे हटाया जाना चाहिए। एक दलील यह भी है कि देश के विभाजन के समय बड़ी संख्या में शरणार्थी जम्मू-कश्मीर में आए, लेकिन अनुच्छेद 35ए के हवाले से इन शरणार्थियों को निवासी बनाने से वंचित कर दिया गया। इनमें 85 फ़ीसदी पिछड़े और दलित समुदाय से हैं।
किन हालातों में 35ए को लागू किया गया था
अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 के लिए एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
1947 में 'विशेष दर्जा' दिए जाने की सहमति के बाद कश्मीर भारत में शामिल हुआ था। यह विशेष दर्जा 370 के तहत दिया गया था, जिसमें रक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा सभी मामले राज्य को तय करने का अधिकार दिया गया था। बाद में केंद्र और राज्य के रिश्तों को सुचारु रखने और अन्य मसलों के निपटारे के लिए 1952 में दिल्ली समझौता हुआ। इसमें कश्मीर के संबंध में राज्य के अधिकारों का ज़िक्र है। इसी में इसका भी ज़िक्र है कि 'स्थायी निवासियों' और उनको मिलने वाली सुविधाओं और हक़ को तय करने का अधिकार राज्य सरकार के पास होगा। इसके लिए ही 35ए को शामिल किया गया।
नेहरू सरकार के वक़्त हुआ था दिल्ली समझौता
दिल्ली समझौते को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में कहा था, 'एक या दो मामलों में कश्मीर के लोगों की कुछ चिंताएँ हैं। अंग्रेज़ी हुकूमत के समय कश्मीर के महाराजा इस बात को लेकर काफ़ी चिंतित थे कि कश्मीर के प्राकृतिक सौंदर्य के कारण अंग्रेज़ कहीं बड़ी संख्या में वहाँ बसने की कोशिश न करें। इसलिये वहाँ बाहरी लोगों को ज़मीन ख़रीदने या रखने पर पाबंदी लगा दी गयी। महाराजा ने कभी इस पाबंदी को नहीं हटाया। मौजूदा समय में भी कश्मीर के लोगों की यही चिंता है कि बाहरी लोग स्थायी रूप से बस न जाएँ। और मुझे लगता है कि उनकी चिंताएँ वाजिब हैं कि कश्मीर को उन लोगों द्वारा रौंद दिया जाएगा जिनका मक़सद सिर्फ़ वहाँ पैसा बनाना और कब्ज़ा जमाना होगा।... वे लोग महाराजा के क़ानून को कुछ सुधारों के साथ लागू रखे रहना चाहते हैं जिसमें बाहरी लोगों को ज़मीन ख़रीदने की मनाही हो। और हम भी इससे सहमत हैं कि इसे बरक़रार रखा जाना चाहिए।'
दिल्ली समझौते को अपनाए जाने के साथ ही 1954 में 35ए को भी लागू कर दिया गया।