2014 में ही शुरू हो गया था मुसलिमों को नागरिकता से दूर रखने का काम

09:27 am Jan 23, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

नागरिकता क़ानून भले ही 2019 में आया हो और इसे धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला बताया जा रहा हो, लेकिन लगता है कि इस भेदभाव वाले क़ानून को लेकर प्रक्रिया की शुरुआत 2014 में ही हो गई थी। ऐसे सरकारी आदेशों का खुलासा हुआ है जिसमें सरकार भारत की नागरिकता लेने के इच्छुक मुसलमानों की राह में दिसंबर 2014 से ही रोड़े अटकाती आई है। तब से ऐसे कई आदेश आए हैं। हालाँकि, इस बारे में रिपोर्टें तब इस तरह से चर्चा में नहीं रहीं या आम लोगों तक ये जानकारियाँ नहीं पहुँच पाईं। लेकिन अब जब 2019 में नागरिकता क़ानून आया और इस पर हंगामा हुआ तो इस बारे में परतें खुलने लगी हैं।

ऐसे सरकारी आदेशों की पड़ताल करने वाली एक रिपोर्ट 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' ने छापी है। इस रिपोर्ट में उन आदेशों को सिलसिलेवार ढंग से बताया गया है कि कैसे, कब और किस तरह से नियमों में धार्मिक आधार पर पक्षपात करने वाले बदलाव किए गए।

तो सवाल उठता है कि 2019 में नागरिकता क़ानून में संशोधन करने से पहले सरकार इन आदेशों के माध्यम से क्या इसकी टोह ले रही रही थी कि इस पर क्या प्रतिक्रिया आती है या इन सरकारी आदेशों को कोर्ट में संभावित जिरह के लिए आधार तैयार कर रही थी

इन सरकारी आदेशों में जो सबसे महत्वपूर्ण आदेश है वह है 22 अक्टूबर 2018 का आदेश। 'टीओआई' के अनुसार, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) नियम 1950 और फ़ॉरेनर्स क़ानून 1946 में 2018 में संशोधन किया गया। इसमें मुसलमानों और नास्तिकों को लंबी अवधि वाला वीजा देने में पक्षपात किया गया। लंबी अवधि वाला वीजा के इस बदले हुए नियमों के अनुसार, 'पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यक समुदाय यानी हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई ही लंबी अवधि वाला वीजा अप्लाई करने के योग्य होंगे।' 

लंबी अवधि वाला वीजा ही वह पेंच है जहाँ दिक्कत है। नागरिकता क़ानून 1955 के अनुसार आवासीय परमिट या लंबी अवधि वाला वीजा ही नेचुरलाइज़ेशन प्रक्रिया के तहत भारतीय नागरिकता पाने के लिए सबसे ज़रूरी है। इस हिसाब से मुसलिमों को लंबी अवधि वाला वीजा देने से मना करने का साफ़ मतलब है कि उन्हें शुरू से ही नागरिकता देने की प्रक्रिया से बाहर कर दिया जाए। इस स्थिति में 2019 वाला नागरिकता संशोधन क़ानून हो या नहीं हो, ज़्यादा अंतर नहीं पड़ने वाला। 

इससे पहले इस मामले में सरकारी आदेशों की शुरुआत 15 दिसंबर 2014 को हुई थी। 'टीओआई' के अनुसार, इस सरकारी आदेश में कहा गया है कि लम्बी अवधि का वीज़ा पाकिस्तान के हिन्दू, सिख, ईसाई और बौद्धों को दिया जाएगा। इसमें जैन, पारसी और मुसलमान का ज़िक्र नहीं था। 

इसके बाद 7 सितंबर 2015 को एक अन्य सरकारी आदेश निकाला गया। इसमें बांग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को वीज़ा, पासपोर्ट, या क़ानूनी दस्तावेज़ के बिना रहने का अधिकार दिया गया। इसमें मुसलमानों और अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों का ज़िक्र नहीं था।

'टीओआई' के अनुसार, 18 जुलाई 2016 के आदेश में अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यकों को बिना वीज़ा, पासपोर्ट रहने का अधिकार दिया गया। इसमें भी मुसलमानों का ज़िक्र नहीं था। 23 दिसंबर 2016 को नागरिकता संशोधन कानून 2016 में बदलाव किया गया। इस क़ानून के तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यकों को पासपोर्ट सहित यात्रा के क़ानूनी दस्तावेज़ के बिना नागरिकता के लिए आवेदन का अधिकार दिया गया।

फिर 2018 में तो लंबी अवधि वाला वीज़ा कानून में संशोधन करके बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को लम्बे समय के लिए वीज़ा का अधिकार दिया गया।

2014 के बाद क्या बदला

2014 के बाद आए इन सरकारी आदेशों से जो ये बदलाव किए गए हैं वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ हैं। ये पड़ोस के तीन देशों के मुसलमानों को भारत की नागरिकता देने से रोकते हैं। एफ़ईएमए क़ानून उन्हें एनआरओ खाते खोलने से और आवासीय संपत्ति के मालिक होने से रोकता है। 

धर्म के आधार पर इसी भेदभाव के ख़िलाफ़ वकील सीएए यानी नागरिकता संशोधन क़ानून और इससे पहले जारी किए गए सरकारी आदेशों को रद्द करने की माँग करने की सुप्रीम कोर्ट से अपील की है। इस मामले में कल यानी बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी हुई। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने 140 याचिकाओं पर सुनवाई एक साथ की है। इन याचिकाओं में एक याचिका ज्वाइंट फ़ोरम एगेंस्ट एनआरसी की भी थी। ‘टीओआई’ की रिपोर्ट के अनुसार, कार्यकर्ता प्रसेनजीत बोस का कहना है कि यह ज्वाइंट फ़ोरम इसको लेकर 2016 से ही लड़ाई लड़ रहा है जब उस साल नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया था। बोस ने नागरिकता क़ानून और कुछ सरकारी आदेशों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। बोस ने कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून लागू होने से काफ़ी पहले ही इसकी आधारशिला रख दी गई थी। 

वकीलों का कहना है कि धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला कोई भी क़ानून अनुच्छेद 14 के अनुसार असंवैधानिक होना चाहिए। मानवाधिकार कार्यकर्ता और सेंटर फ़ॉर जस्टिस एंड पीस की कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ भी कहती हैं कि 2015 और 2017 में पासपोर्ट नियमों में संशोधन अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है। वकीलों का यह भी कहना है कि सरकार की यह कार्रवाई क़ानूनी से ज़्यादा मानवाधिकार का मामला है। 

सवाल उठता है कि जब सरकार को नागरिकता संशोधन क़ानून लाना ही था तो इससे पहले के सरकारी आदेश क्यों लाए गए क्योंकि इससे पहले के सरकारी आदेश से भी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों को भारत की नागरिकता मिलना क़रीब-क़रीब नामुमकिन हो गया था। जो भी हो, यह तो सरकार ही बता सकती है कि उसने ऐसा क्यों किया, लेकिन अब आगे क्या होगा, यह सब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर निर्भर करता है कि वह इसे असंवैधानिक क़रार देता है या नहीं।