यह सही है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में वामपंथी और उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ आग उगलने वाले अनुरा दिसानायके के जीतने की संभावनाएं साफ होने के साथ ही भारत सरकार ने उन्हें दिल्ली आने का न्यौता दिया था और तब विदेश मंत्री जयशंकर समेत कई प्रमुख लोगों के साथ उनकी बातचीत हुई थी। लेकिन इसी बातचीत से उनके तेवर बदले और चुनाव में उन्होंने जनता विमुक्ति पेरामुना वाले पुराने तेवर बदले और कुछ नई बातें कहीं, यह दावा नहीं किया जा सकता।
भारत ने श्रीलंका के सबसे भीषण आर्थिक संकट के समय 2020 में जो आर्थिक मदद दी थी उससे श्रीलंकाई लोगों के बीच भारत का गुडविल काफी अच्छा है। और फिर भारत ने चीन की तरह श्रीलंका को मदद के नाम पर उसका कोई सैनिक बंदरगाह नहीं हथियाया। लेकिन अनुरा ने चीन समर्थन और भारत के सहयोग से चलाने वाली योजनाओं और संधियों का विरोध जारी रखा। अभी भी अडानी समूह वहां एक विशाल सोलर पावर प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है। अनुरा के आने से उस पर संकट के बादल न भी लटके हों पर कई तरह के संशय तो पैदा हो ही गए हैं। अनुरा इस बिजली परियोजना की संधि को रद्द करने की बात करते रहे हैं।
जैसा पहले कहा गया है अनुरा दिसानायके की जीत की संभावना काफी समय से दिखने लगी थी। जनता दो मुख्य पार्टियों की सरकारों की विफलता के बाद सदा हाशिए पर रही इस कम्युनिस्ट पार्टी को जिताने के मूड में आ गई थी क्योंकि अनुरा की जनोन्मुख राजनीति और आर्थिक नीतियों की बातें उनको लुभा रही थीं। इस बीच अनुरा और उनकी पार्टी ने अपना कम्युनिस्ट चोगा भी उतारा और वाम रुझान भर की बातें करने लगे थे। पर उनका चीन प्रेम किसी से छुपा नहीं है और चुनाव जीतकर भी उन्होंने जो बदला तेवर दिखाया उसमें भारत से बिगाड़ की बात न थी लेकिन चीन से प्रेम की बात थी।
यह उल्लेखनीय है कि श्रीलंका के सारे बंदरगाहों के कामकाज में भारत का समर्थन उपयोगी रहा है और यही कारण है कि पिछली सरकार ने अडानी समूह और अमेरिका के सरकारी अंतरराष्ट्रीय विकास वित्त निगम के साथ मिलकर 55.3 करोड़ डॉलर की विकास परियोजना शुरू की थी। अनुरा इसे भी बंद कराने की धमकी देते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि जब यह समझौता होने को था तब नई दिल्ली में तैनात एक श्रीलंकाई राजनयिक ने ख़बर फैलाई कि इसमें अडानी समूह को शामिल करने का दबाव था तो उनको तुरंत दिल्ली से वापस बुला लिया गया। अब वे किस दिशा में बढ़ते हैं इस पर सबकी नजर होगी। वैसे वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा दी गई सशर्त सहायता पर भी पुनर्विचार करने की बात कर रहे हैं।
अब यह अलग बात है कि अनुरा ने अभी राष्ट्रपति का चुनाव जीता है और श्रीलंकाई शासन-व्यवस्था के हिसाब से संसद का चुनाव और प्रधानमंत्री की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने संसद भंग कराके नए चुनाव की पहल कर दी है लेकिन अभी भी उनकी नेशनल पीपुल्स पार्टी आसानी से चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं लगती।
पर अब यह श्रीलंकाई सरकार नई होगी और अनुरा सबसे प्रभावी तो रहेंगे ही। इसमें वे पुराने अनुभवों और भौगोलिक बाध्यताओं के चलते अपने भारत विरोधी तेवर में कुछ कमी लाएं लेकिन यह चीन के प्रति झुकी सरकार होगी।
श्रीलंका से भी ज्यादा गहरे जुड़ाव वाले देश नेपाल में हुआ सत्ता परिवर्त्तन भी चीन के ज्यादा अनुकूल है। भारत से रिश्ते बिगाड़ने में अनुभवी के पी ओली की अगुवाई वाली सरकार वहां है। और भारत ने लगातार नेपाल को लेकर जो नीतियां चलाई हैं उनसे नेपाल निरंतर हमसे दूर हुआ है। पिछले चार साल से भारतीय सेना में गोरखा जवानों की भर्ती रुकी पड़ी है जबकि वे हमारी सेना का अभिन्न अंग माने जाते हैं। और फौज के जवान और अवकाशप्राप्त हजारों जवान और उनके परिवार जमीनी स्तर पर भारत-नेपाल रिश्तों की जड़ें मज़बूत करते हैं।
कहानी सिर्फ नेपाल और श्रीलंका की नहीं है। बांग्लादेश से तनातनी इस स्तर पर है कि अडानी समूह का दुमका स्थित बिजलीघर अपनी बिजली कहां बेचे यह समझ नहीं पा रहा है। बांग्लादेश की नई सरकार उसके साथ हुए पावर पर्चेज संधि पर पुनर्विचार की बात कर रही है। और हमारे गृह मंत्री समेत सारे भाजपाई चीजों को सुलझाने की जगह झारखंड में चुनाव जीतने के लिए बांग्लादेश से घुसपैठ को लेकर इतनी तरह की बातें कर रहा है कि कोई भी स्वाभिमानी देश भड़केगा और बांग्लादेश भी आपत्ति कर रहा है। झारखंड बनने के बाद से अभी तक सबसे ज्यादा समय तक भाजपा का शासन रहा है लेकिन चुनाव में हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण कराने के लिए पूरी भाजपा घुसपैठ का मसाला तेजी से उठा रही है। बांग्लादेश की नई सरकार ने अभी तक कोई भारत विरोधी क़दम नहीं उठाया है लेकिन हमारी सरकार ने शेख हसीना से ऐसा स्नेह दिखाया है कि जमाते इस्लामी जैसे पाकिस्तान समर्थक समूहों को भी बल मिला है।
बेगम खालिदा जिया भी सत्ता हड़पने की ताक में हैं। कल क्या होगा, यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना कहने में हर्ज नहीं है कि कल आज की तुलना में ज्यादा भारत विरोधी हवा होगी। हमारे मुखिया दुनिया की समस्याएं सुलझाने का दावा करते हैं लेकिन पड़ोस से रिश्ते सामान्य और मित्रवत रखने में उनको दिक्कत है।
उनके समर्थक मालदीव के ‘रास्ते पर आने’ की बात को उनकी सफलता मानते हैं। अब मालदीव जैसे नन्हे और पूरी तरह भारत से घिरे और जुड़े देश में अगर कोई भारत विरोधी सरकार आ जाती है तो अपनी नीतियों पर पुनर्विचार किए और नई सरकार से मतभेद सुलझाने की दोस्ताना कोशिश की जगह धमकी से मसला सुलझाना समझदारी नहीं है। मणिपुर के कबायली झगड़े को आपने उलझाया है और सुलझाने की कोई सार्थक कोशिश अभी तक नहीं की गई है लेकिन दोष म्यांमार को देने का शोर मचाया जा रहा है। यह एक और देश को दुश्मन बनाने की तैयारी है।
अब अफगानिस्तान में पुरानी लाख कोशिशों पर किस तरह पानी फिरने दिया गया है और पाकिस्तान से क्या कुछ चलता रहा है यह गिनवाने पर तो सरकार की पूरी विदेश नीति ही सवालों के घेरे में आ जाएगी। और फिर इस सुगबुगाहट का कोई मतलब नहीं रहेगा कि हमें सिंधु जल बंटवारे की संधि पर पुनर्विचार करना है क्योंकि तीनों प्रमुख उत्तरी नदियों का 75 फीसदी पाकिस्तान को मिल रहा है और हमें अब यह नुकसान बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा है। साझा इतिहास, संस्कृति, हवा, पानी, बरसात, सर्दी, गरमी तक का साझा रखने वाले पड़ोसियों से कैसे रिश्ते रखने चाहिए यह सीखना हो तो पता नहीं कहां जाएं लेकिन कैसे सारे पड़ोसियों से बैर बना लेना हो तो यह चीज मोदी सरकार से सीख सकते हैं।