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किरण, श्रुति चौधरी बीजेपी में गईं तो क्या कांग्रेस को नुक़सान?

किरण, श्रुति चौधरी बीजेपी में गईं तो क्या कांग्रेस को नुक़सान?

बंसी लाल के दिवंगत बेटे सुरेंद्र सिंह की पत्नी किरण चौधरी और उनकी पोती श्रुति चौधरी को भाजपा में शामिल करवा कर पार्टी ने क्या अपना कोई फायदा करा लिया?

लोकसभा चुनावों में मिली शिकस्त से हरियाणा भाजपा में एक बड़ी बेचैनी फिर से प्रदेश में सरकार बनाने को लेकर गहराई हुई है। लोकसभा चुनावों में दावों के विपरीत भाजपा का प्रदर्शन भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के लिया भी चिंता का विषय बना हुआ है। लोकसभा चुनावों में 5 में से 3 सीट दल-बदलुओं- कुरुक्षेत्र में कांग्रेस से आये नवीन जिंदल, भिवानी महेन्दरगढ़ में पुराने कांग्रेसी धर्मवीर सिंह और गुरुग्राम में राव इंद्रजीत के आसरे ही भाजपा अपने  खाते में ला सकी है। अन्य दल-बदलुओं- सिरसा में अशोक तंवर, रोहतक में अरविन्द शर्मा, हिसार में रणजीत सिंह चौटाला को मतदाताओं ने नकार दिया।  वर्तमान में 90 सीटों की प्रदेश विधान सभा में भाजपा की सरकार अल्पमत में है, जिस पर विपक्षी दल कांग्रेस निरन्तर हमलावर है। 2019 के विधानसभा चुनाव में 40 सीट जीत कर भाजपा पूर्ण बहुत से वंचित रह गयी थी लेकिन भाजपा का विरोध कर 10 सीटों पर जीत हासिल करनेवाली जजपा के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब हुयी थी। लोकसभा चुनावों से एन पहले जजपा से गठबंधन तोड़ कर और प्रदेश में मुख्यमंत्री बदल कर जनता के आक्रोश को कम करने की कवायद भी भाजपा को कोई ख़ास लाभ पहुंचा नहीं पायी। विधानसभा चुनावों में फिर से बहुमत हासिल करने के जोड़तोड़ में लगी भाजपा अपनी परिचित रणनीति को फिर से आगे बढ़ने में लगी है जिसका ताजा उदाहरण पुराने कांग्रेसी बंसी लाल के परिवार में सेंध लगाना है।

हरियाणा प्रदेश की स्थापना के बाद विकास की नींव रखने वाले बंसी लाल के दिवंगत बेटे सुरेंद्र सिंह की पत्नी किरण चौधरी और उनकी पोती श्रुति चौधरी को भाजपा में शामिल करवा कर भाजपा ने एक और उपलब्धि हासिल की है। 3-4 महीने के बाद होने वाले विधानसभा के चुनावों की हलचल के चलते अभी और भी कांग्रेसी नेता व हाशिये पर जा चुकी जजपा के कई नेता और विधायक भी भाजपा की नाव में सवार हो सकते हैं। 

भाजपा की विचारधारा को हरियाणा में 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद ही स्वीकार्यता मिलनी शुरू हुई थी जब बदलते राजनीतिक परिवेश में प्रदेश के बहुत से नेताओं, जो अपनी पार्टियों में किन्ही कारणों से उपेक्षित रहे, ने भाजपा की लहर के चलते पार्टी का दामन थामना शुरू किया था। कांग्रेस के बड़े नाम जाटों के गढ़ से वीरेंदर सिंह, अहीरवाल क्षेत्र से राव इंद्रजीत, ब्राह्मण समुदाय के सोनीपत से अरविंद शर्मा पहले भाजपा में शमिल हुए थे। उसके बाद एक के बाद एक अन्य नेता भी अपने राजनीतिक भविष्य के लिए भाजपा की नाव में बैठ गए। इसका तत्कालिक लाभ भाजपा को अपनी स्वीकारोक्ति का प्रदेश में विस्तार करने में मिला जिसके प्रभाव के कारण भाजपा प्रदेश में भी सरकार बनाने में सफल हुई थी। लेकिन अब 10 साल की सत्ता के बाद भाजपा दलबदलुओं के सहारे ही विधानसभा चुनावों में अपनी सफलता को तय करने में लगी हुई है।

किरण चौधरी ने हरियाणा में राजनीति शुरू करने से पहले 1986 में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की महासचिव के रूप में अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत दिल्ली में की थी। तीन बार चुनाव लड़ीं और 1998 में दिल्ली प्रदेश की दिल्ली छावनी से पहली बार विधानसभा में पहुंचीं और डिप्टी स्पीकर बनी थीं। 2005 में अपने पति सुरेंद्र सिंह की दुर्घटना में मृत्यु के बाद उपचुनाव में भिवानी जिले की परिवार की पारंपरिक सीट तोशाम से जीत हासिल की थी। उसके बाद उन्होंने 2009, 2014, 2019 में निरंतर तोशाम से जीत दर्ज की।  हरियाणा में कांग्रेस सरकार में मंत्री रहीं और 2014 में हरियाणा विधानसभा में नेता विपक्ष रहीं। 

किरण चौधरी के बारे में माना जाता है के वो दिल्ली में रह कर ही हरियाणा की राजनीति करती रही हैं और अपनी विधानसभा क्षेत्र में बहुत कम सक्रिय रहती हैं। किरण चौधरी  व उनकी बेटी श्रुति चौधरी को हरियाणा में बंसीलाल की विरासत का ही वोट मिलता रहा है। लेकिन बंसी लाल की राजनीति को पूरे प्रदेश में बढ़ाने की बराबरी करने से कोसों दूर केवल एक विधानसभा तोशाम तक ही समिति कर दिया। 2009 में श्रुति चौधरी को लोकसभा चुनाव में अपने पिता सुरेंद्र सिंह की सहानुभूति के कारण सांसद की जीत के रूप में मिले अवसर को वो भी विस्तार नहीं दे पायीं।

पिछले काफी समय से किरण चौधरी हरियाणा कांग्रेस में अपनी बड़ी महत्वाकांक्षा के कारण बड़े पद के लिए अपने दावे को मज़बूत करने के चलते अन्य नेताओं से विवाद में भी रही हैं। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर हुड्डा का नाम प्रमुख है।

हाल ही हुए राज्यसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के अजय माकन के चुनाव में अपने वोट के प्रयोग के कारण भी विवादों में रहीं क्योंकि केवल एक वोट से कांग्रेस के प्रत्याशी की हार हुयी और कांग्रेस की बहुत किरकरी हुयी थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में बेटी श्रुति चौधरी को टिकट न मिलने को अपने विरुद्ध साजिश मानते हुए उन्होंने अब कांग्रेस को छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी के विरुद्ध अंदरखाने भाजपा के धर्मवीर सिंह की मदद करने के आक्षेप भी हाल ही में किरण चौधरी पर लगे। राहुल गांधी की दादरी में रैली में मंच पर कांग्रेस प्रत्याशी राव दान सिंह से तकरार सभी ने देखा भी था। हरियाणा के राजनीतिक हलकों में यह चर्चा काफी समय से चल रही थी कि किरण चौधरी का राजनीतिक आधार बहुत सीमित हो चुका है और हृदय परिवर्तन होने का औपचारिक ऐलान कभी भी हो सकता है। ऐसा कहा जाता है कि किरण चौधरी भाजपा से मिल कर काम कर रही थीं। मनोहर लाल खट्टर ने किरण चौधरी को भाजपा में शामिल करने के मौके पर पुष्टि कर दी कि भले ही किरण चौधरी कांग्रेस में थीं लेकिन पिछले 10 सालों से भाजपा से मिल कर काम कर रही थीं। 

हरियाणा में राजनीतिक हवा भाजपा के विपरीत चाल रही है, ये लोकसभा चुनावों में साफ हो गया है। तोशाम की सीट ग्रामीण क्षेत्र की सीट है जहाँ बहुसंख्या में किसान हैं। किसानों की समस्याओं पर भी किरण चौधरी और श्रुति चौधरी ने कोई आंदोलन कांग्रेस में रहते किये हों, ऐसा भी नहीं है। कांग्रेस के प्रत्याशी राव दान सिंह को हरवाने के लिए किरण चौधरी और श्रुति चौधरी ने अपने क्षेत्र में जिस तरह प्रचार किया, उससे स्थानीय लोगों में भी संकीर्ण राजनीति को लेकर कई तरह के सवाल उभरने लगे हैं। प्रदेश में कांग्रेस को कोई खास फर्क किरण चौधरी, श्रुति चौधरी के जाने से नहीं पड़ेगा क्योंकि तोशाम में भी मतदाताओं में परिवर्तन हो सकता है। प्रदेश स्तर पर किरण चौधरी  का कोई प्रभाव किसी अन्य सीट पर हो, ऐसा है नहीं। कल तक भाजपा की नीतियों की आलोचना करने वाली नेत्री अब अपने हलके में किस तरह मतदाताओं को नयी विचारधारा समझाने में सफल होंगी, ये चुनौती किरण चौधरी ने खुद ही ली है और अपनी बेटी को राजनीति के बड़े पटल पर स्थापित करने की जिम्मेदारी भी निभानी है।

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