नीति आयोग ने 23 पैमानों पर आधारित सालाना स्वास्थ्य सूचकांक हाल हीं में जारी किया है। शाश्वत निर्लज्ज भाव से उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे निचले पायदान पर विराजमान रहे। जो बात किसी विश्लेषक ने नहीं देखी वह यह कि 2015-16 के मुक़ाबले 2017-18 में स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट बिहार में सबसे ज़्यादा (6.35 प्रतिशत) रही।
अगर किसी व्यक्ति की हत्या होती है तो अभियुक्त को फाँसी नहीं तो आईपीसी के तहत आजीवन कारावास का प्रावधान है। अगर व्यक्ति मर गया लेकिन इरादा जान से मारने का नहीं केवल शारीरिक क्षति पहुँचाने का था तो दस साल और अगर किसी उतावलेपन या उपेक्षा से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो दो साल की सजा का प्रावधान है। स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में देश में लाखों बच्चे पिछले तमाम दशकों से हर साल असमय मौत की गोद में सो जाते हैं।
इस साल फिर नीति आयोग ने केंद्र और राज्य की सरकारों को आइना दिखाया लेकिन सत्ता चलाने के लिए खाल मोटी रखना ज़रूरी है। तभी तो पिछले वर्ष संसद में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने कुछ आँकड़े दिए थे जिनके अनुसार भारत और राज्यों की सरकारों का स्वास्थ्य पर सम्मिलित ख़र्च दुनिया में सबसे कम है। यहाँ तक कि जो दुनिया में सबसे ग़रीब देश हैं उनसे भी कम। तुर्रा यह कि बिहार देश में स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत के भी एक-तिहाई ख़र्च करता है, लेकिन पिछले 12 साल से सत्ता पर काबिज सरकार के मुखिया को ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता है। मालदीव जैसे मुल्क़ का भी हमारे मुक़ाबले प्रति व्यक्ति ख़र्च अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के लिहाज़ से पाँच गुना है, भूटान, थाईलैंड और श्रीलंका का भी काफ़ी ज़्यादा है। लेकिन जब सत्ता पक्ष वोट के लिए जनता के पास जाता है तो कहता है, ‘आज भारत ने इतना विकास किया है कि हम जीडीपी में दुनिया में पाँचवें स्थान पर आ गए हैं’। नासमझ जनता कराहते हुए यह मान लेती है कि उसके ‘जिगर के टुकड़े’ का बीमार होना और चिकित्सा सुविधा के अभाव में मर जाना उसकी नियति है (या लीची खाने/खिलाने का दोष)।
बच्चे को कफ़न में लपेटे हुए भी जनता 70 साल से यही समझ रही है कि ‘विकास माने जीडीपी वॉल्यूम में इंग्लैंड से आगे निकल जाना या हमारे नेता का दुनिया के बड़े नेताओं के गले मिलना और साथ बराबर पर बैठ कर ठहाके लगना है’।
वैसे, 2017 में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई गयी और इन्हीं स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में एलान किया कि इस मद में ख़र्च को जीडीपी का 2.50 फ़ीसदी किया जायेगा (यानी दोगुने से भी ज़्यादा), लेकिन ऐसे एलान अमल में शायद ही आते हैं। बजट आने पर पता चला कि ख़र्च में और कटौती हो गई।
समझ में नहीं आता कि जब यही कराहते हुए लोग, बीमार बुढ़िया या बेटे के गम में विलाप करती माँ के वोट से ही ये सत्ता में साल-दर-साल और दशक-दर-दशक काबिज नेता सत्ता-सुख भोग रहे हैं तो स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति यह आपराधिक उदासीनता क्यों और कैसे संभव?
राज्य सरकारों की अनदेखी
पिछले दस साल से भारत और राज्यों की सरकारें स्वास्थ्य पर कुल मिलाकर मात्र तीन रुपया से कुछ कम प्रति-व्यक्ति रोजाना ख़र्च करती हैं। बिहार में यह ख़र्च केवल 1.20 रुपया। इसमें भी वेतन और सरकारी स्वास्थ्य तंत्र चलाने में इसका 75 प्रतिशत चला जाता है। यानी दवा-दारू (वैसे यहाँ मद्य-निषेध के कारण दारू महँगी है) के लिए मात्र 30 पैसे।
तसवीर का दूसरा पहलू
अब अगर सरकारें जनता के स्वास्थ्य के प्रति उदासीन हैं तो ऐसा नहीं होता कि ग़रीब अपने बेटे/बेटी को दम तोड़ते देखता रहे। वह बेहद महँगे निजी स्वास्थ्य सेवाओं का सहारा लेता है, अनाज बेचता है और फिर जब कमी पड़ती है तो खेत भी। हर साल बीमारी में अपनी जेब से ख़र्च के कारण चार करोड़ लोग ग़रीबी की सीमा रेखा से नीचे उस रसातल में पहुँच जाते हैं जहाँ से दुबारा निकलना संभव नहीं होता। चूँकि देश का सबसे ग़रीब राज्य बिहार सबसे ज़्यादा सरकारी स्वास्थ्य सेवा के अभाव का दंश झेलता है, लिहाज़ा देश में सबसे अधिक अपनी जेब से ख़र्च करके बीमार नौनिहालों और बूढ़े माँ-बाप को बचाने का काम बिहार के लोग करते हैं। जहाँ हिमाचल प्रदेश सरकार अपने लोगों के स्वास्थ्य पर क़रीब 2500 रुपये प्रति-व्यक्ति प्रति-वर्ष ख़र्च करती है वहीं ‘सुशासित बिहार’ की सरकार मात्र 450 रुपये (जो एक सामान्य डॉक्टर की एक बार की फ़ीस के आधा भी नहीं है) और उत्तर प्रदेश सरकार 890 रुपये ख़र्च करती है। नतीजतन जहाँ बिहार की ग़रीब जनता को सरकारी ख़र्च का पाँच गुना अपनी जेब से लगाना पड़ता है और वे शोषक निजी चिकित्सा-व्यवस्था के हाथों में फँस जाते हैं, वहीं हिमाचल के लोग शायद ही निजी डॉक्टरों और नर्सिंग होम के शिकार बनते हैं। बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है।
सरकारी उदासीनता के कारण स्वास्थ्य पर लोगों का अपनी जेब से ख़र्च बढ़ता जा रहा है, जबकि सरकार का कम। दस साल के सरकारी आँकड़ों के हिसाब से उत्तर भारत के चार बड़े राज्यों –उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान– के लोग मजबूरी में घर-ज़मीन बेच कर इलाज करवा रहे हैं।
पूरे देश में जनता के स्वास्थ्य के मद में कुल ख़र्च (सरकारी और निजी जेब से) जितना है लगभग उतने ही मूल्य का यह देश अनाज पैदा करता है। यानी जो काम (खेती) लोगों को करना है उससे तो अपना पेट भर ले रहा है बल्कि निर्यात करने लायक भी पैदा कर लेता है लेकिन जब बीमार पड़ता है तो सरकार उसे उसकी जेब या ‘राम-भरोसे’ छोड़ दे रही है। देश में कुल क़रीब छह लाख करोड़ रुपये का अनाज पैदा होता है और इतना ही स्वास्थ्य पर ख़र्च होता है। इसमें सरकार मात्र एक-तिहाई ही ख़र्च करती है, बाक़ी उन ग़रीबों को दो-तिहाई (क़रीब चार लाख करोड़) को अपनी जायदाद बेच कर लगाना पड़ता है।
यानी अगर किसी परिवार के सदस्य को एक गंभीर बीमारी हो जाए तो वह किसान से खेत-मज़दूर बन जाता है और उससे भी पूरा नहीं पड़ता तो दिल्ली से सटे नोएडा या चंडीगढ़ या केरल में जा कर ईंट-गारा ढोने लगता है। अब पाठक समझ गए होंगे कि क्यों इस देश में पिछले 25 सालों से हर 37 मिनट पर एक किसान आत्मह्त्या कर रहा है और क्यों इसी दौरान हर रोज़ 2052 किसान खेती छोड़ देते हैं। सरकारें आत्महत्या का कारण गृह-क़लह या बीमारी बताती रही हैं और क्यों जब लगभग 180 बच्चे (अधिकांश बेहद ग़रीब दलित वर्ग के) एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से मर गए तो लीची और ग़रीबों की चिकित्सा -विज्ञान के प्रति नासमझी पर इल्ज़ाम थोपा गया।