सिखों की पार्लियामेंट मानी जाने वाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी यानी एसजीपीसी पर फिर बादलों की अगुवाई वाले शिरोमणि अकाली दल का क़ब्ज़ा हो गया है। इसके सियासी मायने क्या हैं धर्म और सियासत का यह गठजोड़ क्यों पंजाब की राजनीति के लिए बड़ा संदेश है क्या इससे बादल परिवार के सत्ता में वापसी की राह आसान होगी
2017 में पहली बार इस सर्वोच्च धार्मिक संस्था के प्रधान बने गोबिंद सिंह लौंगोवाल, प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल की मेहरबानी से लगातार तीसरी बार 27 नवंबर को इस सर्वोच्च धार्मिक संस्था के प्रधान बन गए। एक तरह से उन्हें बादल परिवार के प्रति निभाई गई अतिरिक्त वफ़ादारी का 'ईनाम' मिला है। दूसरे कुछ सिख अथवा पंथक नेता भी एसजीपीसी प्रधान के प्रबल दावेदार थे, लेकिन शिरोमणि अकाली दल प्रमुख और सांसद सुखबीर सिंह बादल ने गोबिद सिंह लौंगोवाल का चयन करके सबको दरकिनार कर दिया। दरअसल, अरबों रुपए के भारी-भरकम सालाना बजट वाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का लौंगोवाल को तीसरी बार मुखिया बनाकर बादलों ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं।
पंजाब की सियासत का ऐतिहासिक तथ्य है कि जो अकाली दल एसजीपीसी पर काबिज होता है, उसी को मुख्यधारा का अकाली दल माना जाता है और सत्ता का सबसे बड़ा दावेदार भी।
धर्म और सियासत के गठजोड़ की यह कमान दिग्गज अकाली रहनुमा, कई बार के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने तीन दशक से बख़ूबी संभाली हुई है। सो पंजाब की राजनीति में उनकी सरपरस्ती वाला शिरोमणि अकाली दल अग्रिम पंक्ति का राजनीतिक दल है। हाल-फ़िलहाल शेष अकाली दल अथवा पंथक संगठन हाशिए पर हैं।
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी हिंदुस्तान की पहली ऐसी संस्था है जिसका अपना संविधान है। लंबे संघर्ष के बाद और अंग्रेज़ों से बाक़ायदा लड़कर 1919 में यह वजूद में आई थी। तब महात्मा गाँधी ने भी इस लड़ाई में सिखों का साथ दिया था। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी यानी एसजीपीसी का मुख्य काम गुरुद्वारों का संचालन-प्रबंधन करना और वहाँ के 'चढ़ावों' पर नियंत्रण रखना है। कमेटी के तहत देशभर के हज़ारों गुरुद्वारे आते हैं और इसके वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या भी हज़ारों में है। सैकड़ों स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों का संचालन भी एसजीपीसी के हाथों में है। इसका वार्षिक बजट ख़रबों रुपये का होता है।
अक्सर आरोप लगाया जाता है कि एसजीपीसी बादलों की अगुवाई वाले शिरोमणि अकाली दल की आर्थिक और धार्मिक 'रीढ़' के तौर पर काम करती है। इसीलिए इसके आम चुनाव और साल बाद होने वाले कार्यकारिणी एवं प्रधान पद के चयन के लिए बादल और शिरोमणि अकाली दल पूरा दमखम लगाते हैं। इस बार भी लगाया तथा माकूल नतीजा हासिल किया।
अतीत में एसजीपीसी प्रधान रह चुके बीबी जागीर कौर और प्रोफ़ेसर कृपाल सिंह बडूंगर सहित संत बलवीर सिंह और जत्थेदार तोता सिंह भी इस बार मज़बूत दावेदार थे, लेकिन बादलों ने आख़िरकार लगातार दो बार अध्यक्ष रहे गोबिंद सिंह लौंगोवाल को 'धार्मिक सत्ता' सौंपी तो इसकी अहम वजहें हैं। बेशक वफ़ादारी, (आम सिखों में) लगभग निर्विवाद और अलहदा क़िस्म की धार्मिक छवि रखना तो है ही।
श्री गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाशोत्सव के मुख्य समागम के मौक़े पर पंजाब सरकार और शिरोमणि अकाली दल के बीच सीधे टकराव की नौबत आ गई थी और हालात बादलों की खुली फ़ज़ीहत के बन गए थे। तब एसजीपीसी प्रधान गोबिंद सिंह लौंगोवाल ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ संभावित टकराव को टाल कर बड़े-छोटे बादल की ‘इज़्ज़त’ बचाई थी। इस बार एक यह वजह रही उन्हें तीसरी बार प्रधान बनाने की। अब क़दम-क़दम पर लौंगोवाल ने बादलों के प्रति अपनी वफ़ादारी का खुला इज़हार किया। विरोधियों के आरोप हैं कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का करोड़ों रुपये का फ़ंड इसके लिए, नियमों को धत्ता बताकर इस्तेमाल किया गया।
धर्म और राजनीति का घालमेल
2015 में सूबे में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में अकाली-भाजपा का शासन था। तब एक के बाद एक श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की कई बड़ी घटनाएँ हुई थींं, जिनसे राज्य के चप्पे-चप्पे में असंतोष फैल गया था और पुलिस की गोली से दो लोग मारे गए थे। सरकार संकट में आ गई थी। संदेह की आग बादलों की दहलीज तक भी आ गई थी। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों का खुला आरोप था कि बेअदबी की इन घटनाओं के सिलसिले के पीछे सुखबीर सिंह बादल की साज़िश है। अब बड़े-छोटे बादल, उन घटनाओं के लिए मौजूदा कांग्रेस सरकार द्वारा गठित विशेष पुलिस जाँच दल (एसटीएफ़) का सामना कर रहे हैं। ख़ैर, राज्य में जब ऐसी घटनाएँ हो रही थींं, तब सर्वोच्च सिख संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के प्रधान प्रो. कृपाल सिंह बडूंगर थे। वह 'धार्मिक फ़्रंट' पर शिरोमणि अकाली दल, सरकार और बादलों को बचाने में नाकाम रहे थे। सो उनकी जगह भाई गोबिंद सिंह लौंगोवाल के रूप में ऐसा चेहरा ढूंढा गया जो धर्म और राजनीति के सारे खेल से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो।
संत हरचंद सिंह लौंगोवाल के परम शिष्य रहे भाई गोबिंद सिंह लौंगोवाल तीन बार विधायक और एक बार मंत्री रहे हैं। यानी पंथ और सियासत के समीकरणों के अच्छे-खासे अनुभवी। उन्हें एसजीपीसी का प्रधान बनाया गया तो वह बादलों की उम्मीदों पर खरे उतरते गए।
प्रधान बनने के बाद गोबिंद सिंह लौंगोवाल ने व्यापक पैमाने और ज़मीनी स्तर पर विशेष 'धर्म चेतना' अभियान चलाया जो अंततः साख खो रहे शिरोमणि अकाली दल के बहुत काम आया। फिर उन्होंने इस साल मनाए जा रहे श्री गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाशोत्सव की एसजीपीसी की ओर से आयोजित तमाम छोटी-बड़ी गतिविधियों का राजनैतिक फ़ायदा शिरोमणि अकाली दल को लेने दिया। तो इन बड़े कारणों ने भाई गोबिंद सिंह लौंगोवाल को लगातार तीसरी बार प्रधान बना दिया। हालाँकि तमाम बातों के बावजूद उनका क़द किसी भी लिहाज़ से मरहूम जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा जितना बड़ा नहीं है, जो कई साल तक निरंतर एसजीपीसी के ‘सर्वशक्तिमान’ प्रधान रहे और एक तरह से इतिहास कायम किया।
ख़ैर, शिरोमणि अकाली दल के कतिपय नेता ख़ुद कहते हैं कि गोबिंद सिंह लौंगोवाल महज़ बादलों का मोहरा हैं और यक़ीनन एसजीपीसी के प्रधान पद की कुर्सी पर बैठकर उनके सियासी हितों की ख़ूब पूर्ति करेंगे।
उन्हें प्रधान बनाने की एक बड़ी अहम वजह यह भी है कि उनकी पहचान 'धर्म चेतना' के लिए शिद्दत के साथ काम करने वाली शख्सियत के तौर पर रही है और ग्रामीण पंजाब के बड़े हिस्से में उनका नाम है। पिछले कुछ अरसे से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-संगठन राष्ट्रीय सिख संगत की पंजाब के ग्रामीण इलाक़ों और धार्मिक क्षेत्रों में सरगर्मियाँ काफ़ी तेज हुई हैं जो शिरोमणि अकाली दल के लिए स्वाभाविक चिंतन और चिंता का विषय है। शिरोमणि अकाली दल का भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन है। सीधे तौर पर दोनों कोई गंभीर टकराव नहीं चाहते। प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल अब नए क़िस्म की ‘धर्म लहर’ के सहारे ग्रामीण पंजाब में अपने खोए जनाधार को तो मज़बूत करना ही चाहते हैं, पार्टी का धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे के पीछे छुपा धार्मिक चेहरा भी निखारना चाहते हैं। यह काम शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के ज़रिए, इसके प्रधान गोबिंद सिंह लौंगोवाल बख़ूबी कर सकते हैं और करेंगे भी!