पिछले हफ़्ते की भारत-पाक मुठभेड़ से हमारे पत्रकार बंधुओं को बड़ी नसीहत लेने की ज़रूरत है। ख़ास तौर से हमारे वायु-सेना प्रमुख एयर मार्शल बी.एस. धनोआ के बयान के बाद! धनोआ ने कोयम्बटूर में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि 26 फ़रवरी को पाकिस्तान में घुसकर जब हमारे जहाजों ने बालाकोट पर बम बरसाए तो ‘हमें पता नहीं कि कितने लोग मारे गए। हमारा काम निशाने को ठोक देना है, लाशें गिनना नहीं हैं।’
दूसरे शब्दों में हमारे वायु सेना प्रमुख ने टीवी चैनलों और अख़बारों के इस दावे को पुष्ट नहीं किया कि बालाकोट में सैकड़ों आतंकवादी मारे गए।
हमारे टीवी चैनल अलग-अलग दावे कर रहे थे। कोई 400, कोई 350, कोई 300 और बीजेपी अध्यक्ष 250 आतंकियों के मारे जाने का दावा कर रहे थे। इस अपुष्ट ख़बर को दूसरे दिन हमारे अख़बारों ने भी ज्यों का त्यों निगल लिया।
विदेश सचिव से अपनी उनकी पत्रकार परिषद में जब उनसे यही सवाल किया गया तो उन्होंने कह दिया कि मृतकों के आँकड़े बताना रक्षा मंत्रालय का काम है। जब सरकारी प्रवक्ता से यही सवाल किया गया तो उसने कहा कि बालाकोट में हमारे जहाज़ों ने चार भवनों को गिराया लेकिन यह नहीं बता सकते कि वहाँ कितने लोग मरे, क्योंकि न तो वहाँ हमारे जासूस थे और न ही हमारे पास उच्च कोटि के तकनीकी साधन हैं।
- लगभग यही स्थिति पाकिस्तान के एफ़-16 जहाज़ को गिराने के बारे में है। एयर मार्शल धनोआ ने सिर्फ़ इतना ही कहा कि हमारा मिग-21 हवाई मुठभेड़ में गिर गया। उन्होंने यह नहीं कहा कि हमने एफ़-16 को चकनाचूर कर दिया। लेकिन हमारे टीवी चैनल और अख़बार हमें यही दिलासा दिलाते रहे और हम अपना सीना फुलाते रहे कि वाह, क्या ग़जब का काम हमारे बहादुर सैनिकों ने किया है।
सैनिकों ने वास्तव में ग़जब की बहादुरी दिखाई कि उन्होंने पाकिस्तान के घर में घुसकर उसे सबक़ सिखाया लेकिन उस बहादुरी को जब निराधार बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है तो हमारी सरकार की छवि भी ख़राब होती है। उसकी बातों पर से लोगों का भरोसा उठने लगता है।
इसकी ज़िम्मेदारी हमारे नेताओं की उतनी नहीं है, जितनी पत्रकारों की है। पत्रकारों को कोई भी ख़बर स्पष्ट प्रमाण के बिना कतई नहीं चलानी चाहिए। युद्धों या दंगों या राष्ट्रीय विपत्तियों के समय बे-सिर-पैर की ख़बरें बहुत भयानक सिद्ध होती हैं। वे आग में घी का काम करती हैं। पत्रकारों, ख़ासकर टीवी चैनलों पर ख़बर पढ़ने वालों का यह नैतिक दायित्व है कि वे अब बताएँ कि उन्हें किन स्रोतों ने गुमराह किया था।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग से साभार)