फ़िल्म कब आयी कब चली गयी किसी को पता ही नहीं चला। देश के अधिकांश हिस्सों में तो यह फ़िल्म रिलीज़ ही नहीं हो पायी। लेकिन यही वह फ़िल्म थी जिसे भारत में समानांतर सिनेमा या कहें 'आर्ट फ़िल्म' की बुनियाद माना जाता है। इस फिल्म का नाम है 'भुवन शोम'। पचास साल पहले यानी 1969 में रिलीज हुई यह फ़िल्म उन गिनी चुनी फ़िल्मों में से एक है जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का गौरव बढ़ाया।
क्या है फ़िल्म में
फ़िल्म के नायक शोम बाबू रेल महकमे में एक सख़्त और अनुशासन प्रिय अधिकारी हैं, जिन्होंने अनुशासनहीनता करने पर अपने अधीन काम करने वाले अपने बेटे तक को नहीं छोड़ा। एक विधुर का जीवन जी रहे शोम बाबू के जीवन में सब कुछ सूखा-सूखा है। फिर एक दिन वह अपनी रोजमर्रा की दुनिया से बाहर निकलते हैं और चिड़ियों के शिकार के लिए कच्छ के इलाक़े में पहुँचते हैं। वहाँ पहुँचकर उनकी मुलाकात गाँव की एक चंचल युवती गौरी से होती है, जो उन्हें मेहमान बना कर उनकी मदद करती है।
भोली भाली गौरी इतनी समझदार और व्यवहारिक भी है कि शिकार के समय वह अपने ग्रामीण परिवेश के कपड़े पहनती है ताकि पक्षी अनजान इंसान मानकर उड़ न जाएं। जिस भैंसे से डर कर शोम बाबू बंदूक लिये बचते हुए भागते हैं, उसी भैंसे पर गौरी आसानी से सवारी करने लगती है। वह इसी तरह के छोटे-छोटे काम करती है और शोम बाबू उसके बारे में सोचने पर मजबूर हो जाते हैं।
गौरी का पति भी रेल में कर्मचारी होता है जिसके दंड की फ़ाइल शोम बाबू की मेज पर होती है। गौरी इस तथ्य से अनजान है, लेकिन शोम बाबू को पता चल जाता है कि जिस युवती की मदद और मेहमाननवाज़ी का वह आनंद ले रहे हैं, उसके होने वाले पति के भ्रष्टाचार का मामला उनके विचाराधीन है।
शोम बाबू का जीवन को क़ानून के एक-एक अक्षर के साथ मिलाकर जीने का नज़रिया बदलने लगता है। गौरी की सोहबत शोम बाबू को पूरी तरह बदल देती है। रेलवे के सख़्त नौकरशाह शोम बाबू फिल्म के क्लाइमैक्स दृश्य में बच्चों की तरह उत्साही बन जाते हैं और युवती के पति का तबादला कर क्षमा कर देते हैं।
क्या कहती है फ़िल्म
मृणाल सेन फिल्म के जरिये स्थापित करना चाह रहे थे कि प्रेम जैसा कोमल तत्व हमारे जीवन के लिये अनिवार्य है। उनकी इस सोच को कैमरा मैन के के महाजन ने बेहद मेहनत से अपनी लाजवाब शूटिंग के ज़रिये स्थापित किया है। सामानांतर सिनेमा को श्वेत-श्याम छायांकन के जरिये काव्यात्मक ऊँचाई तक ले जाने वाले महाजन ने लगभग पूरी फ़िल्म प्राकृतिक रोशनी में शूट की है। कमरे में लिये गए शॉट के दौरान उन्होंने छत से खपरैल या ईंटें हटवा कर रोशनी की व्यवस्था की थी।
मृणाल सेन का जादू!
सोचिये कि ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में रेगिस्तान के मैदान को आखिरकार कितने एंगल से दिखाया जा सकता है और वह भी तब जब फ़िल्म की कहानी धीमी गति से चल रही हो। कहानी में एक्शन और भाग दौड़ की गुंजाइश ही ना हो।
के. के. महाजन गौरी और शोम बाबू के क्लोज़ अप, मिड शॉट तथा रेगिस्तान के लॉन्ग शॉट के जरिये ऐसा माहौल बनाते हैं कि लगता है जैसे शोम बाबू और गौरी के बीच प्यार जैसा कुछ कुछ घट रहा है।
फ़िल्म में हास्य बोध तो झलकता है, लेकिन हिंदी फिल्मों के परंपरागत हास्य बोध से बिल्कुल अलग। यह अकारण नहीं है कि भुवन शोम को आधुनिक भारतीय सिनेमा में एक मील का पत्थर माना जाता है।
फ़िल्म बनाने की दिक्क़तें
इस फ़िल्म का बजट एक लाख रुपए था, लेकिन कोई इसमें पैसा लगाने को तैयार नहीं हुआ। तब मृणाल सेन ने नेशनल फिल्म डेवलेपमेंट कारपोरेशन यानी एनएफडीसी की मदद से यह फ़िल्म बनायी। लेकिन प्रदर्शन की समुचित व्यवस्था नहीं कर पाए। इसलिये बहुत से शहरों में फ़िल्म का प्रदर्शन ही नहीं हो सका। फिर भी धीर धीरे भुवन शोम की शोहरत फैलती गयी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसको महत्व मिलने के बाद भारत में भी फ़िल्म समारोहों, दूरदर्शन और फडिल्म समीक्षकों ने इसे तवज्जो देनी शुरू की। इसे हिंदी कला फिल्मों की बुनियाद डालने वाली फ़िल्म माना गया।
कितनों ने की शुरुआत!
भुवन शोम की एक खासियत यह भी है कि इसमें कई लोगों का पहला प्रयास शामिल था। बतौर निर्देशक, मृणाल सेन की यह पहली हिंदी फिल्म थी। उत्पल दत्त जाने माने बांग्ला थियेटर ऐक्टर माने जाते थे, पर हिंदी सिनेमा में पहली बार पर्दे पर उतरे थे। ऐसे ही सुहासिनी मुले की भी यह पहली फिल्म थी।
इसी फिल्म से महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज़ से हिंदी समाज पहली बार रुबरू हुआ। वह फ़िल्म के सूत्रधार के तौर पर कमेंट्री करते हैं। छाया कार के. के. महाजन की भी यह पहली फिल्म थी और संगीतकार विजय राघव राव की भी यह पहली फिल्म कही जाती है।
भुवन शोम फ़िल्म और इसके निर्देशन के लिए मृणाल सेन को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उत्पल दत्त को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। अब जब भी भारत की कालजयी फिल्मों का जिक्र होता है तो उसमें भुवन शोम का नाम शामिल करना अनिवार्य होता है।