जी का जंजाल बन चुके कृषि क़ानूनों को लेकर बीजेपी और मोदी सरकार को आख़िरकार पीछे हटने का फ़ैसला करना ही पड़ा। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले किए गए इस अहम फ़ैसले को जहां बीजेपी के समर्थक सरकार का मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं, वहीं राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सरकार ने किसानों और विपक्ष के भारी दबाव और चुनाव में हार के डर से यह फ़ैसला लिया है।
अब बहस इस बात पर हो रही है कि क्या मोदी सरकार के इस फ़ैसले से बीजेपी को कोई फ़ायदा होगा या फिर किसानों की नाराज़गी बरकरार रहेगी?
तीन राज्यों में असर
इसे समझने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि किसान आंदोलन का असर किन-किन चुनावी राज्यों में और इनके किन इलाक़ों में हो सकता था। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाक़े में इस आंदोलन का तगड़ा असर था और ख़ुद मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक इस बात को कह चुके थे कि बीजेपी का कोई नेता मुजफ़्फरनगर, मेरठ के गांवों में नहीं निकल सकता।
इसके अलावा उत्तराखंड के हरिद्वार और उधमसिंह नगर के इलाक़ों में किसान आंदोलन काफ़ी मज़बूती से चला। पंजाब में तो किसानों ने बीजेपी के नेताओं का छोटे-मोटे कार्यक्रमों में जाना तक दूभर कर दिया था। सिंघु, टिकरी और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर भी किसान डटे हुए थे।
हरियाणा में हर दिन बीजेपी और जेजेपी के नेताओं का पुरजोर विरोध हो रहा था और राजस्थान से भी विरोध की ख़बरें आ रही थीं। हरियाणा और राजस्थान की सीमा पंजाब से मिलती है।
मुश्किल थे हालात
लेकिन इन तीन चुनावी राज्यों- पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को लेकर बीजेपी और मोदी सरकार के पास साफ फीडबैक था कि यहां जीत हासिल करना तो दूर कुछ इलाक़े ऐसे हैं, जहां उसके उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार करना तक भारी पड़ जाएगा। इनमें से भी उत्तर प्रदेश को लेकर बीजेपी और संघ परिवार किसी भी तरह का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था। ऐसे में ये बड़ा फ़ैसला सरकार को लेना पड़ा।
खड़ी हुई आरएलडी
एक और अहम बात है। किसान आंदोलन जब शुरू हुआ तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान महापंचायतें शुरू हो गईं। इन महापंचायतों ने इस इलाक़े में एक वक़्त में मजबूत सियासी आधार रखने वाली आरएलडी को फिर से जिंदा होने का मौक़ा दे दिया।
फिर साथ आए जाट-मुसलमान
2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद यहां हिंदू मतों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ था और जाट मतदाता बीजेपी के साथ चले गए थे। इससे आरएलडी की कमर टूट गई थी। लेकिन किसान महापंचायतों में जाट और मुसलमान एक बार फिर साथ आए तो बीजेपी नेताओं की सांसें उखड़ने लगीं।
मुज़फ्फरनगर के सांसद और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान का तक उनके अपने इलाक़ों में जोरदार विरोध होने लगा और बड़ी संख्या में जाट और मुसलमान आरएलडी के झंडे के नीचे गोलबंद होते दिखाई दिए।
धीरे-धीरे विधानसभा चुनाव नज़दीक आने लगे और लखीमपुर खीरी की घटना के कारण आग में घी पड़ गया। किसानों और विपक्ष ने इसे इस क़दर मुद्दा बना लिया कि बीजेपी के लिए संभलना मुश्किल हो गया।
किसान आंदोलन ने बदले हालात
पश्चिमी उत्तर प्रदेश बीजेपी के लिए सियासी रूप से बेहद उपजाऊ इलाक़ा रहा है। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में उसने यहां शानदार प्रदर्शन किया था। लेकिन इस बार किसान आंदोलन की वजह से हालात पूरी तरह उलट हो गए थे।
अब जब सरकार ने कृषि क़ानूनों की वापसी का एलान कर दिया है तो कहा जा रहा है कि बीजेपी को इससे कोई सियासी फ़ायदा हो सकता है या फिर वह डैमेज कंट्रोल कर सकती है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट और मुसलिम बाहुल्य इलाक़ों में बीजेपी के ख़िलाफ़ नाराज़गी अभी भी दिखाई देती है।
माफ़ कर देंगे किसान?
सवाल यह है कि आरएलडी के झंडे के नीचे गोलबंद हो चुके जाटों में से क्या कुछ लोग बीजेपी के साथ चले जाएंगे। कांग्रेस ने किसान महापंचायतों के जरिये जो किसानों को अपनी ओर खींचा है या फिर वे किसान जिन्हें आंदोलन में भाग लेने के कारण पुलिस के जुल्म-जबरदस्ती का सामना करना पड़ा है, जिन पर मुक़दमे हुए हैं, क्या वे बीजेपी को माफ़ कर देंगे। ऐसा सोचना तो आसान है लेकिन ज़मीन पर ऐसा होना मुश्किल है।
ध्रुवीकरण करना चाहती है बीजेपी
बीजेपी इस इलाक़े में फिर से ध्रुवीकरण करना चाहती है। इसलिए उसने एक बार फिर कैराना में कथित पलायन के मुद्दे को उठाया है। ऐसा होना मुश्किल है कि 1 साल से बीजेपी और मोदी सरकार के ख़िलाफ़ झंडा उठाए बैठा किसान उसके साथ चला जाएगा।
इस इलाक़े के किसानों का साफ कहना है कि योगी सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया। चार साल में पहली बार गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ाया और वह भी बहुत कम है। खेतों को चट कर रहे जानवरों को लेकर भी योगी सरकार से किसान बेहद नाराज़ हैं। डीजल महंगा होने की वजह से भी किसानों को माली नुक़सान हो रहा है।
कृषि क़ानूनों की वापसी के बाद भी किसानों की अधिकता वाले इस इलाक़े में बीजेपी कुछ सियासी फ़ायदा हासिल कर पाएगी, ऐसा ताज़ा हालात में तो बिलकुल नहीं दिखता।
बात पंजाब की करें तो वहां बीजेपी अमरिंदर सिंह के साथ गठबंधन कर सकती है क्योंकि यह ऑफ़र अमरिंदर सिंह ने ही दिया था कि कृषि क़ानून वापस होने पर वह बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। लेकिन किसान नेता पिछले एक साल में बीजेपी के नेताओं की दुर्गति कर चुके हैं। ऐसे में यहां अमरिंदर सिंह के साथ मिलकर बीजेपी जीत हासिल कर पाएगी, ऐसा होना बेहद मुश्किल दिखता है। वैसे भी पंजाब में बीजेपी कोई सियासी ताक़त नहीं है और अमरिंदर सिंह कांग्रेस से बाहर आने के बाद कुछ बड़ा कर जाएंगे, इसमें शक है।
उत्तराखंड के तराई वाले इलाक़े में भी सिख और किसान समुदाय बीजेपी का लगातार विरोध कर रहा था। लेकिन क्या कृषि क़ानून की वापसी के बाद वह फिर से नरेंद्र मोदी पर भरोसा करेगा, ऐसा कहना मुश्किल है।
जो दर्द किसानों ने पिछले एक साल में झेला है, उससे पैदा हुआ ग़ुस्सा इतनी जल्दी ठंडा हो जाएगा, ऐसा कहीं से नहीं लगता।