कोरोना संकट ने बड़ी संख्या में लोगों के सामने भूख का संकट खड़ा कर दिया है और यही स्थिति राशन के लिए लगने वाली लंबी-लंबी लाइनों में दिख रही है। यह संकट इसलिए आया क्योंकि एक तो बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियाँ गईं, जिनकी नौकरी बची भी उनकी तनख्वाह कम हो गई, दूसरी आमदनी पर निर्भर लोगों की आय भी घटी और जो कुछ रुपये बचत के थे वे बीमारों के इलाज में खर्च हो गए। कई लोगों को अब मुश्किल से ही काम मिलता है और ऐसे में पूरे परिवार का ख़र्च चलाना मुश्किल हो जाता है।
मध्य वर्ग की कैसी स्थिति है, यह सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई के आँकड़ों से भी पता चलता है। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ़ मई महीने में 1.5 करोड़ से अधिक भारतीयों की नौकरी चली गई। मई ही वह महीना था जब कोरोना की दूसरी लहर चरम पर थी। हर रोज़ 4 लाख से भी ज़्यादा केस आने लगे थे। अस्पतालों में बेड, दवाइयाँ और ऑक्सीजन जैसी सुविधाएँ भी कम पड़ गई थीं। ऑक्सीजन समय पर नहीं मिलने से बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुई थीं। अस्पतालों में तो लाइनें लगी ही थीं, श्मशानों में भी ऐसे ही हालात थे। इस बीच गंगा नदी में तैरते सैकड़ों शव मिलने की ख़बरें आईं और रेत में दफनाए गए शवों की तसवीरें भी आईं।
बड़ी संख्या में लोगों की नौकरी जाने की रिपोर्ट के साथ ही हाल ही सीएमआईई के एक सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया है कि 97 फ़ीसदी लोगों की आय घट गई है। आमदनी है नहीं और ऊपर से महंगाई अलग से। कंगाली में आटा गीला की हालत आम लोगों की हो गई लगती है। खाने के तेल से लेकर रसोई गैस तक और डीजल-पेट्रोल सब महंगा है। यह सब भूख के संकट में वृद्धि का कारण बन रहा है। ख़ासकर शहरी क्षेत्रों में। यह हाल उस देश का है जो पहले से ही दुनिया के लगभग एक तिहाई कुपोषित लोगों के लिए ज़िम्मेदार है।
प्रमुख भारतीय शहरों में खाद्य वितरण केंद्रों पर आने वाले आप्रवासियों और श्रमिकों की लंबी-लंबी लाइनें हैं। लोगों का कहना है कि कुछ खाने के लिए तरस रहे लोगों की इतनी लंबी लाइनें कब देखी थीं, यह याद नहीं है। द इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार राजधानी में प्रवासी समुदायों के साथ काम करने वाले और सतर्क नागरिक संगठन की अदिति द्विवेदी ने कहा, 'भोजन के लिए यह हताशा और दो वेतन भोगियों वाले परिवारों में राशन के लिए लंबी लाइनें अभूतपूर्व हैं।'
आम लोगों की हालत का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि पिछले साल भारत की अर्थव्यवस्था में 7.3% की कमी आई थी। यानी विकास दर इतनी नकारात्मक रही थी।
पिछले साल एक तिमाही में तो विकास दर शून्य से नीचे यानी नकारात्मक में क़रीब -24 फ़ीसदी रही थी। इसके बाद अर्थव्यवस्था उबर ही रही थी कि दूसरी लहर ने भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी।
बहरहाल, अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार पिछले साल क़रीब 23 करोड़ भारतीयों का औसत दैनिक वेतन 375-रुपये की सीमा से नीचे आ गया। अध्ययन में कहा गया है, '90% उत्तरदाताओं ने बताया कि उनके परिवारों को लॉकडाउन के परिणामस्वरूप भोजन की मात्रा में कमी का सामना करना पड़ा।' अध्ययन में कहा गया है कि 375 रुपये से कम दैनिक आय वाले घरों में रहने वाले लोगों की संख्या मार्च 2020 में 29 करोड़ 86 लाख से बढ़कर अक्टूबर के अंत में 52 करोड़ 90 लाख हो गई।
रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण-पूर्वी दिल्ली में 45 वर्षीय नरेश कुमार को अपनी स्थानीय खाद्य वितरण दुकान के बाहर जून में लगभग हर दिन सुबह 5 बजे लाइन लगानी पड़ती थी ताकि आपूर्ति खत्म होने से पहले वह वहाँ पहुँच सकें। कुमार कहते हैं कि वह पिछले साल अपनी और अपनी पत्नी दोनों की नौकरी खोने के बाद भी काम ढूंढने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नरेश तो खाद्य वितरण दुकान से अनाज लेने के लिए योग्य थे, लेकिन ऐसे करोड़ों लोग हैं जो उसके योग्य नहीं हैं, लेकिन कोरोना संकट के बाद वे उस दयनीय हालत में पहुँच गए हैं। अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल अर्थशास्त्री रीतिका खेरा, मेघना मुंगिकर और ज्यां द्रेज द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 10 करोड़ से अधिक लोग सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बाहर हैं क्योंकि कवरेज की गणना पुरानी जनगणना के आँकड़ों पर की जाती है।
भारत के सबसे ग़रीब लोगों को हर महीने पाँच किलोग्राम चावल, गेहूँ और मोटे अनाज रियायती दरों पर एक रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से उपलब्ध कराने के लिए सरकार बाध्य है। बता दें कि जून 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1.5 ट्रिलियन रुपये के पैकेज से नवंबर तक प्रति व्यक्ति प्रति माह अतिरिक्त छह किलो अनाज देने की घोषणा की थी। कार्यक्रम को अप्रैल में फिर से शुरू किया गया था और इसे नवंबर 2021 तक बढ़ा दिया गया है। राज्य सरकारों ने भी गरीबों तक भोजन पहुँचाने के लिए प्रयास किया है। अप्रैल में दिल्ली में लॉकडाउन के बीच मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि 72 लाख राशन कार्ड धारकों को दो महीने के लिए मुफ्त खाद्यान्न प्रदान करने के साथ-साथ 156,000 ऑटोरिक्शा चालकों व टैक्सी चालकों को 5,000 रुपये हर माह वित्तीय सहायता की घोषणा की गई है।
हालाँकि सरकारों की तरफ़ से ऐसी सहायता की घोषणा के बावजूद स्वयंसेवी संस्था द्वारा मुफ़्त राशन बांटने की जगह पर भी ऐसे लोगों की भीड़ देखी जा रही है। द इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, मुंबई में 'खाना चाहिए' के सह-संस्थापक स्वराज शेट्टी ने कहा, 'पिछले साल ज़्यादातर प्रवासी श्रमिक थे, लेकिन इस साल हम मध्यम वर्ग के लोगों को मदद मांगने के लिए लाइनों में खड़े देख रहे हैं।'