राजनीति में वंशवाद को लेकर लंबे समय से बहस होती रही है। वंशवाद के मुद्दे को लेकर बीजेपी, कांग्रेस पर सबसे ज़्यादा हमले करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अपनी चुनावी सभाओं में कांग्रेस को वंशवाद का जनक बताते रहे हैं। यह बात दूसरी है कि बीजेपी में भी कांग्रेस से कम वंशवाद नहीं है। इस पर हम आगे ख़बर में चर्चा करेंगे। फ़िलहाल यह बता दें कि राजनीति में वंशवाद का साधारण सा मतलब यही है कि किसी पार्टी में स्थापित नेताओं का अपने बेटों, बेटियों, रिश्तेदारों को अपनी पार्टी का टिकट दिलवाना और अपनी राजनीतिक विरासत उन्हें सौंप देना।
त्रिवेदी सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल डाटा और सीईआरआई की ओर से जुटाए गए आंकड़ों में यह बात सामने आई है कि 2019 में चुने गए कुल लोकसभा सांसदों में से 30 फ़ीसदी सांसद राजनीतिक परिवारों से संबंध रखते हैं, जो कि रिकॉर्ड आँकड़ा है। यह आंकड़े अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित किए गए हैं।
आंकड़ों के मुताबिक़, ऐसे राज्य जहाँ वंशवाद राष्ट्रीय औसत से भी ज़्यादा है, वे राजस्थान (32%), ओडिशा (33%), तेलंगाना (35%), आंध्र प्रदेश (36%), तमिलनाडु (37%), कर्नाटक (39%), बिहार (43%), महाराष्ट्र (42%) और पंजाब (62%) हैं। ज़ाहिर है कि वंशवाद भारत में भौगोलिक रूप से काफ़ी व्यापक है।
आश्चर्य की बात है कि वशंवाद किसी एक राजनीतिक दल में नहीं है बल्कि सभी दलों में है। कोई अगर यह सोचे कि राज्य स्तरीय राजनीतिक दल प्राइवेट कंपनियों की तरह होते हैं या ज़्यादा वंशवादी होते हैं, तो ऐसा नहीं है। राष्ट्रीय दल इस मामले में सभी राज्यों में वहाँ के राज्य स्तरीय दलों से भी आगे हैं।‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़, हिंदी भाषी राज्य बिहार में यह अंतर बाक़ी राज्यों से कम है। बिहार में 58% वंशवादी उम्मीदवार राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हैं जबकि राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों में यह आंकड़ा महज 14% है। इसी तरह हरियाणा में यह आंकड़ा 50% के मुक़ाबले 5%, कर्नाटक में 35% के मुक़ाबले 13%, महाराष्ट्र में 35% के मुक़ाबले 19%, ओडिशा में 33% के मुक़ाबले 15% है।
अन्य राज्यों, तेलंगाना में यह आंकड़ा 32% के मुक़ाबले 22%, यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश जहाँ वंशवाद को लेकर काफ़ी बातें होती हैं वहाँ 28% के मुक़ाबले 18% है।
ख़बर के मुताबिक़, कुछ राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों का वंशवादी उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने को लेकर जो आंकड़ा है वह भी राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। इसमें जनता दल(एस) 66%, शिरोमणि अकाली दल 60%, टीडीपी 52%, राष्ट्रीय जनता दल 38%, बीजू जनता दल 38%, समाजवादी पार्टी का आंकड़ा 30% है। इनमें से अधिकांश राजनीतिक दलों को राजनीतिक परिवारों द्वारा ही चलाया जा रहा है।
भारत में ऐसे भी राजनीतिक दल हैं, जिनमें वंशवादी राजनीति बहुत कम है। इन दलों में सीपीआई और सीपीआई (एम) शामिल हैं। इन दलों के 5% से कम उम्मीदवार राजनीतिक परिवारों से संबंध रखते हैं।
राष्ट्रीय दलों की बात करें तो कांग्रेस अभी भी वंशवाद में सबसे आगे है। कांग्रेस के 31% उम्मीदवार राजनीतिक परिवारों से संबंध रखते हैं। लेकिन वंशवाद को लेकर कांग्रेस को घेरने वाली बीजपी भी इसमें बहुत पीछे नहीं है और इस बार उसके 22% उम्मीदवार वंशवादी थे यानी राजनीतिक परिवारों से आए थे। बीजेपी के बारे में यह आंकड़ा दिलचस्प है क्योंकि पहली बात तो यह है कि यह वही बीजेपी है जो वंशवाद को लेकर कांग्रेस पर हमला बोलती है।
लोकसभा चुनाव में करारी हार मिलने के बाद जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी की पहली बैठक हुई तो ख़बरों के मुताबिक़, राहुल गाँधी ने पार्टी के कुछ नेताओं पर अपने बेटों को टिकट दिलाने के लिए दबाव बनाने पर ग़ुस्सा ज़ाहिर किया। बताया जाता है कि राहुल गाँधी ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिंदबरम पर अपने-अपने बेटों को टिकट दिलाने के लिए पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाने की बात कही।
शोध में पता चला है कि वंशवादी उम्मीदवारों को पार्टियाँ इसलिए ज़्यादा टिकट देती हैं क्योंकि उनके परिवारों का पार्टी के भीतर रसूख होता है और इस कारण चुनाव में उनके किसी राजनीतिक परिवार से न आने वाले नेताओं के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन करने की संभावना रहती है।
जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया कि बीजेपी ने 22% वंशवादी उम्मीदवारों को टिकट दिया, इससे बीजेपी सांसदों में इन वंशवादी उम्मीदवारों का आंकड़ा बढ़कर 25% हो गया है और हैरान करने वाली बात यह है कि यह कांग्रेस के 13% के आंकड़े से ज़्यादा है। जबकि बीजेपी की सहयोगी शिवसेना में यही आंकड़ा केवल 8% है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब राजनीति में वंशवाद की इतनी बुराई की जाती है तो मतदाता आख़िर ऐसे नेताओं को क्यों चुनते हैं और साथ ही वे यह माँग भी करते हैं कि उन्हें स्थिर राजनीतिक नेतृत्व नहीं चाहिए यानी इसमें बदलाव चाहिए।
बढ़ती रही वंशवाद की बेल
कांग्रेस के अलावा बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान का परिवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और चौधरी अजित सिंह का परिवार, कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा का परिवार, आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव-चंद्रबाबू नायडू का परिवार, तेलंगाना में के. चंद्रशेखर परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार, पंजाब में बादल परिवार आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनकी लोकतंत्र में वशंवाद को लेकर ख़ासी आलोचना होती है।
बात बीजेपी के वंशवाद की करें तो निवर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह नोएडा से विधायक हैं। हिमाचल प्रदेश के पूर्व सीएम पीके धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर हमीरपुर सीट से सांसद हैं। केंद्रीय मंत्री मेनका गाँधी और उनके बेटे वरुण गाँधी दोनों ही सांसद हैं।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह एटा से सांसद हैं, और तो और कल्याण सिंह के पोते संदीप सिंह, योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं।राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत राजे झालावाड़ से पार्टी के टिकट पर सांसद हैं। बीजेपी के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय विधायक हैं। मोदी सरकार में निवर्तमान ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल के पिता वेदप्रकाश गोयल अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे थे। मोदी सरकार में निवर्तमान क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद बीजेपी के वरिष्ठ नेता ठाकुर प्रसाद के बेटे हैं। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा पश्चिमी दिल्ली से सांसद हैं।
बीजेपी के दिग्गज नेता रहे चरती लाल गोयल के बेटे विजय गोयल निवर्तमान खेल मंत्री हैं। दिवंगत बीजेपी नेता प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन मुंबई नॉर्थ-सेंट्रल से सांसद हैं तो पूर्व केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं।
लेकिन यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि इस बार राहुल गाँधी को अमेठी में, पाटलिपुत्र सीट से लालू यादव की बेटी मीसा भारती को, कन्नौज से मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल यादव को, के. चंद्रशेखर राव की बेटी कविता को निजामाबाद से, मुज़फ़्फ़रनगर में राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजित सिंह और बागपत से जयंत चौधरी को, झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन को दुमका से, अनंतनाग से मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी महबूबा मुफ़्ती को और चंद्रबाबू नायडू के बेटे नारा लोकेश को लोकसभा चुनाव में हार मिली है। इससे लगता है कि लोगों ने राजनीतिक परिवारों और वंशवादी राजनीति को पूरी तरह नकार दिया है।