हम्पटी डम्पटी सैट ऑन अ वॉलहम्पटी डम्पटी हैड अ ग्रेट फ़ॉल ऑल द किंग्स हार्सेस एंड ऑल द किंग्स मैनकुडन्ट पुट हम्पटी टुगेदर अगेन(बैठा था दीवार पर हम्पटी डम्पटी / गिर पड़ा बहुत ज़ोर से हम्पटी डम्पटी / राजा के सारे घोड़े, राजा के सारे लोग / वापस न बिठा पाए हम्पटी डम्पटी)
एक गोबदू से मोटे लड़के पर लिखे गए इस नर्सरी गीत की तर्ज़ पर न्यूयॉर्क पोस्ट के पहले पन्ने की सुर्खी है ‘ट्रम्पटी डम्पटी!’। यह अख़बार फ़ॉक्स न्यूज़ वाले रूपर्ट मर्डोक का है जो अमेरिका और दूसरे मुल्कों में मोटे तौर पर दक्षिणपंथी परम्परावादियों का समर्थन करता रहा है। यह शीर्षक उस जुलूस का हिस्सा है जो डोनाल्ड ट्रम्प के हाल तक साथ खड़े लोग ही निकाल रहे हैं। जो हकालपट्टी अमेरिका में ट्रम्प की देखने को मिल रही है, किसी को उसका अंदाज़ा ही नहीं रहा होगा।
ये वही ट्रम्प हैं जो अमेरिका को फिर से महान बनाने (मागा) निकले थे। अब फिर निकलेंगे।
आख़िर किसे ही उम्मीद रही होगी कि वह अमेरिकी राजधानी में सरकार के मुख्यालय कैपिटल बिल्डिंग पर हमले के लिए उसका राष्ट्रपति ही उकसा रहा था। किसे उम्मीद थी कि अमेरिका का राष्ट्रपति अपने ही देश के जनादेश को मानने से मना कर देगा। हार को स्वीकारेगा ही नहीं। और बाइडन के चुनाव को चोरी का बता देगा। महाभियोग का अभियुक्त बनेगा। बहुत सारे गोपनीय काग़ज़ राष्ट्रपति भवन से उठाकर अपने घर ले जाएगा। कौन सोच सकता है कि अमेरिका का राष्ट्रपति ख़ुद फेक न्यूज़ फैलाने का काम करेगा, साथ में लोगों को बाँटने का, मानवाधिकार उल्लंघन का काम करेगा। कौन सोच सकता था कि चुनावों को जीतने के लिए उन देशों का सहारा लेने लगेगा, जो लोकतांत्रिक है ही नहीं। एक तरफ़ लोग कम होते जा रहे हैं, दूसरी तरफ़ ट्रम्प के ख़िलाफ़ दर्ज होने वाले आरोप बढ़ते जा रहे हैं।
इनमें वे आरोप भी शामिल हैं जिनके मुताबिक़ ट्रम्प ने अपनी रियल एस्टेट कम्पनी में फ़्रॉड किया है, टैक्स की जानकारी देने में पारदर्शिता नहीं अपनाई है, और ओमान जैसे दूसरे देशों की सरकारों के साथ अपनी कंपनी के ज़रिए ऐसी परियोजनाओं में साझेदारी की है, जिससे उनके ख़िलाफ़ सीधे ‘कन्फ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट’ का मामला बनता है।
रायता है कि फैलना बंद ही नहीं हो रहा।
ऐसे में फिर से राष्ट्रपति पद का ख़ुद को उम्मीदवार बताना एक तरह से बहादुरी भी है और दूसरी तरह से अहमकाना भी। पर ट्रम्प हैं तो मुमकिन है। भले ही लोकतंत्र के उदारवादी सुर ये मान रहे हैं कि अब के ट्रम्प में वह बात कहां।
अमेरिकी वोटर उनके झूठ और फ़रेब से थक चुके हैं, उनका मानना है। आख़िर मध्यावधि चुनावों में जिस जिस उम्मीदवार को ट्रम्प की शह थी, उन्हें मात मिली। रिपब्लिकन पार्टी के चतुर नेताओं को जैसे ही समझ में आने लगा कि ट्रम्प भरोसे चुनाव नहीं जीते जा सकते, वह न सिर्फ़ अपना हाथ झाड़ कर खड़े होने लगे, बल्कि उनमें से बहुतों ने ट्रम्प को दुत्कारना भी शुरू कर दिया। ख़ास तौर पर वे लोग जो राजनीति में गंभीरता से हैं और लोकतंत्र और संविधान को गंभीरता से लेते हैं। उसे मोटा चंदा देने वाले कारोबारी अब पीछे हट रहे हैं। यहाँ तक कि ख़ुद बेटी इवांका जो पहले सहायक थीं, अब अपने पिता से दूर हैं। ‘बिछड़े सभी बारी बारी’, प्यासा फ़िल्म का गाना है।
एक ख़राब सपने के सच होने की तरह ट्रम्प सत्ता में आये थे। वह सपना ख़ुद को दुहरा सकता है। लोकतंत्र को दुनिया में जिन भी बातों से ख़तरा हो सकता है, ट्रम्प उसकी सबसे बड़ी निशानी हैं। दुनिया में लोकतंत्र का सबसे ज़्यादा क्षरण अमेरिका में ट्रम्प के आने से हुआ था। और भी कई देशों में- जहां दक्षिणपंथी ताक़तें धर्म, भेदभाव, नफ़रत, बहुसंख्यवाद की बुनियाद पर मज़बूत हुईं और जिन्हें उद्योगपतियों और मीडिया का खुले दिल से समर्थन मिला। लोकतंत्र के बचने की उम्मीद भी अमेरिका से शुरू हुई, ट्रम्प के हारने के साथ। ये चुनौती आसानी से जाने वाली नहीं है।
ट्रम्प कमजोर भले ही हो गये हों, अकेला नहीं हुए हैं। अभी भी व्हाइट सुप्रीमेसिस्ट (ख़ुद को श्रेष्ठ मानने वाले) वाले मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थकों की अराजक भीड़ ट्रम्प के साथ है। इनके लिए सच सिर्फ़ वह फंतासी है जो ये देख रहे हैं और इसके लिए वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं, चाहे वह चुनाव को चोरी का या झूठा बताना हो, कैपिटल पर हमला बोलना हो, अल्पसंख्यकों पर हमले करना हो, गर्भपात को आपराधिक करार देना हो, क़ानून हाथ में लेना हो, बंदूक़ का आतंक चलने देना हो या लिबरल मूल्यों को अस्वीकार करना हो।
ट्रम्प के साथ खड़े होने वालों में एक तो वे लोग हैं जो चुनावी नतीजों को ही झूठा बताते हैं। जिस लोकतंत्र की वजह से वे व्हाइट हाउस तक पहुँचे उसी लोकतंत्र को पहली फ़ुरसत में ठेंगा दिखला दिया।
दूसरे वे लोग हैं जो हथियारबंद होकर अमेरिकी सरकार के मुख्यालय पर ही हमला करने पहुँच गये थे। अब जब उसकी जाँच हो रही है और सुबूत जुटाए जा रहे हैं, तो पता चल रहा है कि ट्र्म्प ख़ुद इस हमला करवाने के पीछे थे।
तीसरे वे लोग हैं जो अमेरिका के नहीं हैं, पर जिन्हें उम्मीद है कि ट्रम्प के कारण नाटो कमजोर पड़ेगा, यूक्रेन को मिलने वाली सामरिक और मानवीय मदद कम हो सकेगी। ऐसे देश हैं जो लोकतंत्र के कारण नहीं जाने जाते।
चौथे हम लोग हैं भारत के। हमारी याददाश्त कुछ तो ख़राब है और कुछ बहुत सलेक्टिव। जिन्हें लुभाने और उनके प्रवासियों के वोट पाने के लिए ट्रम्प ने ग़लत अंग्रेज़ी में कहा था, ‘आई लव हिंदू!' (अख़बार नहीं!!). सवाल ये है कि क्या अब हिंदू भी डोनाल्ड ट्रम्प से उतना ही और वैसा ही लव करेंगे। डोनाल्ड ट्रम्प के लिए आपके और हमारे प्रधानमंत्री ने ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ और ‘ मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का चुनावी जयकारा तो बहुत ज़ोर से लगाया था। नरेन्द्र भाई के ज़ोरदार प्रचार के बाद भी डोलन भाई को बहुत बेआबरू होकर व्हाइट हाउस से दबे पाँव बाहर निकलना पड़ा।
क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री किसी सवाल का जवाब देना पसंद नहीं करते, इसलिए ये जान पाना बहुत मुश्किल है कि अगर राहुल गांधी, ममता बनर्जी या उद्धव ठाकरे या स्टालिन करूणानिधि के लिए कोई इमैनुएल मैक्रों, ख़ालिदा जिया, बेनयामिन नेतन्याहू या जस्टिन ट्रूडो भारत आकर चुनावी प्रचार करते, तो क्या वह भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप होता?
ये जानना भी बहुत मुश्किल है कि 2024 में जब नरेन्द्र मोदी और डोनाल्ड ट्रम्प दोनों चुनाव लड़ रहे होंगे, तब भी क्या वे अमेरिका के चुनावी प्रचार में बतौर चियरलीडर शामिल होंगे?
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)