डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अपने कार्यकाल के अंतिम साल में भारत का दौरा करने का फ़ैसला सामरिक या आर्थिक रिश्तों के नज़रिये से अहम माना जा रहा है लेकिन ट्रंप केवल इन्हें प्रगाढ़ बनाने के इरादे से ही भारत आ रहे हैं, यह कहना सटीक नहीं होगा। डोनाल्ड ट्रंप की नज़र सामरिक रिश्तों पर कम, भारत से आर्थिक लाभ उठाने के नज़रिये से अधिक और इनसे भी अधिक अहम अमेरिका में भारतीय मूल के वोट बैंक पर है। ट्रंप की नज़र इस दौरे से अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक छवि को घरेलू स्तर पर चमकाने पर टिकी होगी। अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों में गुजराती समुदाय के बहुतायत में होने की वजह से उनकी नज़र अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनाव में गुजराती मूल के साथ भारतीय समुदाय के अन्य अमेरिकी नागरिकों के वोट बैंक को रिझाने पर रहेगी।
‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा अमेरिकी शहर ह्यूस्टन में जब पिछले सितंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया था तब से ही पिछले महीने महाभियोग के फंदे से बिना आहत हुए बच निकलने वाले डोनाल्ड ट्रंप की नज़र भारत दौरे पर टिकी है। वास्तव में भारत दौरा उनके राजनीतिक भविष्य के लिए काफ़ी अहम साबित होगा। अमेरिका में भारतीय मूल के क़रीब 40 लाख लोग अपने धन-मत-बल से अमेरिकी राजनीति पर अच्छा प्रभाव डालते हैं जिन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश अमेरिकी राजनीतिज्ञों की रहती है।
डोनाल्ड ट्रंप भले ही अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए भारत आ रहे हैं लेकिन इसी बहाने उनके साथ अमेरिका के जो आला मंत्री आ रहे हैं उनकी भारतीय समकक्षों के साथ होने वाली बातचीत से भारत के नज़रिये से रिश्तों को और गहरा बनाने और सामरिक रिश्तों में मिठास लाने में मदद मिलेगी। जिन सात राष्ट्रपतियों ने भारत का दौरा किया है उनमें डोनाल्ड ट्रंप पहले हैं जो अकेले भारत के दौरे पर ही निकले हैं। आम तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति के विदेश दौरे में दो-तीन देशों के भ्रमण का कार्यक्रम बनाया जाता है। इससे पता चलता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारत के साथ रिश्तों को अहमियत देने लगे हैं।
डोनाल्ड ट्रंप के साथ उनके दामाद और सलाहकार जेरेड कुशनर, अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि राबर्ट लाइटीजर, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार राबर्ट ओ ब्रेयन, वित्त मंत्री स्टीव अंमुनुशिन, वाणिज्य मंत्री विलबर रास और बजटीय विभाग के आफ़िस ऑफ़ मैनेजमेंट के निदेशक मिक मुलावेनी भी उच्च स्तरीय शिष्टमंडल में शामिल हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति कैबिनेट स्तर के चार आला अधिकारियों को साथ लेकर भारत आ रहे हैं इससे पता चलता है कि वह भारत के साथ रिश्तों की ठोस नींव को और मज़बूती देने के लिए गंभीर हैं।
भारत और अमेरिका के आपसी सामरिक रिश्तों को गहरा बनाने की नींव तो इस सदी के शुरू में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार कोंडेलीजा राइस के कार्यकाल में डाली गई थी। भारत के साथ सामरिक सम्बन्धों को लेकर अमेरिकी राजनीतिक हलकों में व्यापक आम राय रही है। लेकिन जिस तरह भारतीय प्रधानमंत्री ने रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में खुलकर पिछले साल ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी’ समारोह में बोला उसे मौजूदा विपक्षी डेमोक्रेटों ने अन्यथा लिया है और अमेरिकी राजनीति में हस्तक्षेप माना है।
पिछले साल अगस्त में जब प्रधानमंत्री मोदी ने जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 को बेअसर कर दिया और उसके बाद वहाँ के राजनेताओं और आम लोगों पर कड़ी बंदिशें लगा दीं, उसके ख़िलाफ़ अमेरिकी डेमोक्रेटों ने ही झंडा उठाया है।
इस बीच भारत की घरेलू राजनीति में उथल-पुथल और नागरिकता क़ानून (सीएए) जैसे मसलों पर भी अमेरिका में भारत विरोधी माहौल बढ़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लगातार रसातल में जाने की वजह से भी अमेरिकी राजनीतिक हलकों में भारत को लेकर निराशा पैदा हुई है और भारत को लेकर वही उत्साह अमेरिकी आर्थिक और राजनयिक हलकों में नहीं देखा जा रहा जो 2014 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देखा गया था। हालाँकि नरेन्द्र मोदी तब अमेरिका में प्रतिबंधित थे।
वैसे हाल के सालों में भारत और अमेरिका के बीच राष्ट्र प्रमुखों के स्तर पर और कैबिनेट स्तर की जो उच्च स्तरीय बैठकें हुई हैं और नियमित आदान-प्रदान हुए हैं वे भारत अमेरिका के बीच गहराते सामरिक रिश्तों की ओर इशारा करते हैं। भारत चुनिंदा देशों में है जिसके साथ सामरिक रिश्तों को गहराई देने के लिए अमेरिका ‘टू प्लस टू डायलाग’ करता है। इसके तहत भारत और अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्री एक साथ बैठ कर आपसी हितों के द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर चर्चा करते हैं और आपसी सहयोग की दिशा तय करते हैं।
भारत-अमेरिका संबंध
पिछली सदी के उत्तरार्ध में लम्बे चले शीतयुद्ध के दौर की वजह से भारत और अमेरिका के बीच का रिश्ता प्यार और तकरार का रहा है। भारत और अमेरिका के सामरिक हित टकराते रहे हैं। फिर भी भारत अमेरिकी लोगों को आकर्षित करता रहा है लेकिन शीतयुद्ध के समीकरण अमेरिका को भारत से गहन राजनीतिक रिश्ता बनाए रखने में अड़चन बनते रहे हैं। अब शीतयुद्ध के बाद 21वीं सदी के मौजूदा दौर में भारत और अमेरिका के सामरिक हित कई क्षेत्रों में मेल खाने लगे हैं तो अमेरिका ने भारत को गले लगाया है और सामरिक साझेदारी के मौजूदा गहरे रिश्तों को 21वीं सदी की सबसे बड़ी उभरती हुई साझेदारी की संज्ञा दी जाने लगी है।
अमेरिका का हित है कि वह हिंद प्रशांत इलाक़े में चीन का दबदबा बढ़ने से रोके और इसमें उसे भारत एक स्वाभाविक साझेदार लगता है क्योंकि भारत भी चीन की आक्रामक समर नीति को चुनौती देना चाहता है।
अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि चीन की चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए वह भारत को सक्षम बनाना चाहता है और इसके लिए अति उच्च तकनीक वाली अमेरिकी शस्त्र प्रणालियाँ और दूसरे शस्त्र की सप्लाई भारत को करना चाहता है, हालाँकि इसका छुपा इरादा अमेरिकी हथियार कम्पनियों का धंधा चमकाना और अमेरिकी लोगों को अधिक से अधिक रोज़गार दिलाना भी कहा जा सकता है। गत डेढ़ दशक के दौरान अमेरिका ने भारत को 18 अरब डॉलर लागत के सैनिक सामान सप्लाई किए हैं और आने वाले सालों में कई अरब डॉलर के रक्षा सौदौं की गुंज़ाइश है जिसे लेकर अमेरिकी सामरिक समुदाय काफ़ी उत्साहित है।
साफ़ है कि भारत के साथ अमेरिकी सामरिक साझेदारी की एक बड़ी क़ीमत भी भारत को चुकानी पड़ती है। अमेरिका की एक शर्त यह भी रही कि भारत अपने पारम्परिक साझेदार रूस के साथ रक्षा रिश्ते तोड़ ले जिसका भारत ने प्रतिकार किया है। भारत की भी दुनिया को यह दिखाने की मजबूरी है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका भारत के साथ खड़ा है जिसका लाभ भारत को पाकिस्तान और चीन के भारत विरोधी आक्रामक रवैये से निबटने में मिलता है। साफ़ है कि भारत-अमेरिका रिश्ता परस्पर ज़रूरत के नज़रिये से आगे बढ़ रहे हैं।