दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रशासन के मामले में निश्चित ही दूसरी पार्टियों के मुख्यमंत्रियों से थोड़ा अलग हैं, लेकिन पार्टी चलाने के मामले में उनमें और अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं में रत्तीभर का फर्क नहीं है। जिस तरह देश की तमाम क्षेत्रीय या प्रादेशिक पार्टियों में उनके संस्थापक नेता ही हमेशा अध्यक्ष रहते हैं और उनके सक्रिय राजनीति से अलग हो जाने या उनकी मृत्यु के बाद अध्यक्ष पद कारोबारी संस्थान की मिल्कियत की तरह उनके बेटे या बेटी को हस्तांतरित हो जाता है, उसी तरह आम आदमी पार्टी में भी पहले दिन से ही अरविंद केजरीवाल संयोजक बने हुए हैं और संभवतया आजीवन बने रहेंगे। पिछले दिनों उन्हें तीसरी बार पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक चुना गया है।
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी, तमिलनाडु की द्रविड मुनैत्र कडगम (डीएमके), के. चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति, हेमंत सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी, जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस, फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेन्स, महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी तथा पूर्वोत्तर राज्यों की कई क्षेत्रीय पार्टियाँ ऐसी ही हैं, जिनमें वर्षों से एक ही व्यक्ति पार्टी का मुखिया है और उसके अलावा कोई मुखिया बनने की सोच भी नहीं सकता। ये पार्टियाँ जब सत्ता में होती हैं तो सरकार का नेतृत्व भी पार्टी का मुखिया या उनके परिवार का ही कोई सदस्य करता है। आम आदमी पार्टी को भी अब ऐसी ही पार्टियों में शुमार किया जा सकता है।
नई और पारदर्शी राजनीति करने के दावे के साथ आम आदमी पार्टी की स्थापना 2012 में हुई थी। तब से अब तक केजरीवाल ही पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक बने हुए हैं और इस बार पार्टी ने उन्हें अगले पांच साल के लिए लगातार तीसरी बार संयोजक चुन लिया है। उन्हें पहली बार तीन साल के लिए विधिवत पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक 2013 में चुना गया था। अप्रैल 2016 में वह दूसरी बार राष्ट्रीय संयोजक चुने गए। अप्रैल 2019 में उनका कार्यकाल ख़त्म हो गया था लेकिन उस साल लोकसभा चुनाव और फिर 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव को देखते हुए 2020 तक उनका कार्यकाल बढ़ा दिया गया। फिर 2020 में भी कोरोना महामारी के कारण पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक नहीं हो सकी और केजरीवाल ही पार्टी के संयोजक बने रहे।
ग़ौरतलब है कि आम आदमी पार्टी में अध्यक्ष का पद नहीं है, इसमें राष्ट्रीय संयोजक ही पार्टी का सर्वोच्च पदाधिकारी या यूँ कहें कि सुप्रीमो होता है। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने बाक़ी क्षेत्रीय पार्टियों के मुखियाओं की तरह पहले से ही तय कर लिया था कि हमेशा वह ही पार्टी के सुप्रीमो रहेंगे।
केजरीवाल ने शुरुआत तो बड़े ही लोकतांत्रिक तरीक़े से की थी। इतने लोकतांत्रिक तरीक़े से कि 2013 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों का चयन भी उनके क्षेत्र के मतदाताओं की राय लेकर किया था।
हालाँकि यह फॉर्मूला सभी सीटों पर नहीं अपनाया गया था, फिर भी यह एक अभिनव प्रयोग था। लेकिन बहुत जल्दी ही न सिर्फ़ इस प्रयोग की मृत्यु हो गई, बल्कि पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को भी पूरी तरह कूड़ेदान में डाल दिया। आम आदमी पार्टी का जब संविधान बना था तो उसमें यह प्रावधान था कि राष्ट्रीय संयोजक का कार्यकाल तीन साल का होगा और कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार से ज़्यादा संयोजक नहीं चुना जाएगा। ऐसा ही नियम भारतीय जनता पार्टी में भी है और उसने अब तक मोटे तौर पर इसका पालन किया है।
इस प्रावधान के तहत अरविंद केजरीवाल लगातार दो बार पार्टी के संयोजक निर्विरोध चुने गए। लेकिन तीसरी बार चुने जाने के लिए उन्होंने पार्टी के संविधान में संशोधन करवा कर दो बार से ज़्यादा नहीं चुने जाने की बंदिश ही हटवा दी। इतना ही नहीं, उन्होंने संयोजक का कार्यकाल भी तीन साल से बढ़ा कर पांच साल करवा लिया। उनका ऐसा करना इस बात को जाहिर करता है कि वह पार्टी की बागडोर किसी और के हाथ में नहीं जाने देना चाहते हैं।
केजरीवाल को पार्टी अपने हाथ से निकल जाने का डर इस बात के बावजूद है कि पार्टी के तमाम बड़े और संस्थापक नेताओं को वह पार्टी से बाहर कर चुके हैं और कई नेता उनकी तानाशाही मनोवृत्ति को भांप कर खुद ही पार्टी छोड़ गए।
पार्टी में केजरीवाल को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। पर दिलचस्प बात यह है कि पार्टी की राष्ट्रीय परिषद को संबोधित करते हुए पार्टी के कार्यकर्ताओं को पार्टी में पद या चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिलने की इच्छा नहीं रखने की नसीहत वो धड़ल्ले से देते हैं। उन्होंने कहा, ''यदि आप मेरे पास पद या टिकट मांगने आते हैं तो इसका मतलब है कि आप इसके लायक नहीं हैं और आपको मांगना पड़ रहा है। आपको इस तरह काम करना चाहिए कि मुझे आपसे पद संभालने या चुनाव लड़ने के लिए कहना पड़े।’’