...तो एक और सहयोगी दल बीजेपी से नाराज हो गया। शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी में दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए समझौता नहीं हो पाया। दिल्ली की चार सीटों पर अकाली दल के उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने की चर्चा थी। हरिनगर, राजौरी गार्डन, कालकाजी और शाहदरा, ये चार सीटें हैं जिन पर अकाली दल के उम्मीदवारों को लड़ाया जाना था। इसीलिए बीजेपी ने अपनी पहली लिस्ट में इन चारों सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित नहीं किए थे। 2015 के चुनाव में भी बीजेपी ने ये चारों सीटें अकालियों के लिए छोड़ी थीं लेकिन अकाली दल उस वक्त एक भी सीट नहीं जीत सका था। इसके बाद 2017 में जब राजौरी गार्डन सीट पर उपचुनाव हुआ तो उसके उम्मीदवार मनजिंदर सिंह सिरसा यहां से विजयी हुए।
इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी से समझौते के लिए अकाली दल ने जो तीन सदस्यीय कमेटी बनाई थी, वह छह सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर रही थी। पिछले चुनाव में मिलीं चार सीटों के अलावा अकाली दल रोहतास नगर और तिलक नगर सीट की भी मांग कर रहा था। लेकिन जब अपनी पहली लिस्ट में बीजेपी ने इन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए तो लगा कि बीजेपी इस बार भी चार सीटें देने के लिए तैयार है। लेकिन नामांकन के आख़िरी दिन से कुछ घंटे पहले ही अकाली दल के नेता और दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने एलान कर दिया कि इस बार शिरोमणि अकाली दल दिल्ली का विधानसभा चुनाव ही नहीं लड़ेगा।
अगर बात सीटों पर अटकी होती या फिर यह विवाद होता कि अकाली दल अपने चुनाव चिन्ह तकड़ी (तराजू) पर चुनाव लड़ना चाहता है तो इस विवाद पर बात हो सकती थी। यह भी कहा जा सकता था कि इन मुद्दों के कारण बात टूट गई। लेकिन अकाली दल ने इसका जो कारण बताया है वह बहुत ही चौंकाने वाला है और साथ ही भविष्य के लिए कई संकेत भी दे रहा है।
सिरसा ने कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) के मुद्दे पर उनका दल बीजेपी से सहमत नहीं है। उन्होंने साफ-साफ कहा कि नागरिकता संशोधन क़ानून को धर्म की लाइन पर नहीं बांटा जाना चाहिए था। सिरसा ने कहा, ‘क़ानून में यह लिखा जाना चाहिए था कि जो भी अल्पसंख्यक होगा, हम उसे भारत की नागरिकता देंगे। अल्पसंख्यकों में भेदभाव करके बीजेपी ने ठीक नहीं किया। इसलिए या तो बीजेपी अपने रुख में बदलाव करे या फिर हम दिल्ली विधानसभा का चुनाव ही नहीं लड़ेंगे।’
नागरिकता संशोधन क़ानून के मुद्दे पर या फिर बीजेपी की दूसरी नीतियों के कारण उसके सहयोगी लगातार टूट रहे हैं। एक वक्त था जब बीजेपी के तीन बड़े सहयोगी हुआ करते थे, हरियाणा में चौटाला परिवार, पंजाब में बादल परिवार और महाराष्ट्र में शिवसेना यानी ठाकरे परिवार। इन परिवारों को बीजेपी परिवार का ही हिस्सा माना जाता था और यह कहा जाता था कि इनका अटूट रिश्ता है।
हरियाणा में बीजेपी का दुष्यंत चौटाला के साथ मजबूरी का रिश्ता है और शिवसेना का साथ छूट ही चुका है। अब दिल्ली में अकाली दल के साथ बीजेपी का रिश्ता टूटने का मतलब पंजाब में दोनों पार्टियों के रिश्तों में दरार के रूप में देखा जा रहा है।
किसे मिलेंगे दिल्ली के सिख वोट
दिल्ली में बीजेपी और अकाली दल में समझौता नहीं होने का सीधा-सा मतलब यह है कि दिल्ली के अकाली समर्थक सिख वोटरों का वोट कहीं और चला जाएगा। वह वोट कहां जाएगा, इस सवाल का जवाब यही है सिख वोट कांग्रेस के पक्ष में तो कभी भी नहीं जाएंगे और ऐसी हालत में उनके पास दो रास्ते होंगे या तो वोट न डालें और या फिर आम आदमी पार्टी के पक्ष में वोटिंग करें। जाहिर है कि यह सीधे-सीधे बीजेपी को नुकसान पहुंचाने जैसा है। बीजेपी इस रवैये के कारण अकाली दल को शायद माफ़ नहीं कर पाए।
नागरिकता संशोधन क़ानून के मामले में अकाली दल का इस तरह पलटी खाना किसी की समझ में नहीं आ रहा है। अगर वह इस क़ानून से सहमत नहीं थी तो फिर उसने लोकसभा और राज्यसभा में इसका समर्थन क्यों किया। चुनाव न लड़ने की घोषणा से चंद घंटे पहले तक सीटों की सौदेबाजी क्यों होती रही
चुनाव चिन्ह कोई मुद्दा नहीं
अगर अकाली दल वाकई नाराज है तो फिर हरसिमरत कौर बादल ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा क्यों नहीं दे दिया। जाहिर है कि मामला नागरिकता क़ानून का नहीं है। लगता यही है कि दिल्ली में बीजेपी से समझौता न हो पाने के कारण अकाली दल ने दबाव बनाने के लिए नागरिकता क़ानून का सहारा लिया है लेकिन इसके दूरगामी नतीजे सामने आ सकते हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि दोनों दलों में चुनाव चिन्ह को लेकर कोई मतभेद थे क्योंकि खुद मनजिंदर सिंह सिरसा पिछला चुनाव बीजेपी के चुनाव चिन्ह कमल पर लड़े थे। वैसे भी, ऐसे कई मौक़े आए हैं जब अकाली नेता कमल के चुनाव चिन्ह पर लड़े और जीते हैं। यहां तक कि 2013 के विधानसभा चुनाव में तिलक नगर से बीजेपी उम्मीदवार श्याम शर्मा को अकाली दल के चुनाव चिन्ह पर मैदान में उतारा गया था। इसलिए यह कोई मसला हो ही नहीं सकता।
अकाली दल के इस रुख के बाद अब अगर बीजेपी पंजाब में अकाली दल को छोड़कर अपनी अलग राह पकड़ ले तो किसी को हैरानी नहीं होगी। वैसे भी, पंजाब में बीजेपी के बहुत नेता यही मांग करते रहे हैं कि उन्हें अकालियों के साथ मिलकर चलने से फायदा कम हो रहा है और नुक़सान ज्यादा।
अकालियों की सरकार में बीजेपी का हिस्सा बहुत कम होता है लेकिन जब अकालियों की बदनामी होती है तो उस बदनामी का पूरा गुस्सा बीजेपी को भी झेलना पड़ता है। पिछले लोकसभा चुनावों में अकालियों ने बीजेपी को पंजाब में सिर्फ चार सीटें दी थीं और उनमें से दो सीटों पर उसे कामयाबी मिली। सन्नी देओल गुरदासपुर से और सोमप्रकाश होशियारपुर से जीते थे। अकाली भी बाकी 9 में से सिर्फ तीन ही सीटें जीत पाए।
इसी तरह 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी सिर्फ तीन सीटें जीत पाई और उनमें भी उपचुनाव में फगवाड़ा सीट हार गई। पंजाब में उसके सिर्फ अब दो ही विधायक हैं। जो स्थिति बीजेपी की दिल्ली में है, वही हालत पंजाब में भी है। आपको याद होगा कि नवजोत सिंह सिद्धू ने बीजेपी इसीलिए छोड़ी थी कि वह चाहते थे कि पार्टी अकाली दल की पिछलग्गू बनना छोड़ दे। अब नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर दोनों के संबंधों में खटास एक निर्णायक मोड़ पर आ पहुंची है।
आज बीजेपी दिल्ली की कुर्सी पाने के लिए छटपटा रही है। ऐसे में अकाली दल द्वारा बीजेपी का ऐन मौक़े पर साथ छोड़ देना धोखा देने के बराबर ही है। अगर बीजेपी को अकाली दल के इस फ़ैसले से नुकसान उठाना पड़ा तो फिर दोनों दलों के करीब आने की संभावनाएं खत्म हो जाएंगी।
अगर बीजेपी किसी तरह दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी इज्जत बचा भी ले गई तो भी वह इस जख्म को भूल नहीं पाएगी। अकाली दल ने जिस तरह खुल्लमखुल्ला कह दिया है कि दोनों दलों की दोस्ती तभी संभव है जब बीजेपी नागरिकता क़ानून पर अपने स्टैंड से पीछे हटे तो ऐसी हालत में बीजेपी के लिए भी लौटना मुश्किल ही होगा। वैसे, राजनीति में कब, कौन, कहां और कैसे पलट जाए, इसका भरोसा नहीं है। आगे-आगे देखिए होता है क्या।