जिन लोगों ने 4 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के फ़ैसले के बाद यह मान लिया था कि अब दिल्ली सरकार के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या हो गई है या फिर जिन्होंने यह मान लिया था कि अब केंद्र के रास्ते उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार में टकराव नहीं होगा, उन्हें अब लग रहा होगा कि असल में ऐसा नहीं है। उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों की लड़ाई का निपटारा अभी भी नहीं हुआ है। अफ़सरों की नियुक्ति और तबादलों को लेकर अब तक टकराव था ही, अब ताज़ा टकराव वकीलों के पैनल को लेकर पैदा हो गया है।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फ़रवरी में हुए दंगों में दिल्ली सरकार की तरफ़ से पैरवी कौन करे, इस सवाल पर अब खुलकर टकराव हो रहा है। यों तो टकराव कोरोना को लेकर भी हुआ जब उपराज्यपाल ने हर मरीज़ को कोविड सेंटर भेजने की बात कही लेकिन तब सवाल प्रतिष्ठा का नहीं बना। अब टकराव नाक का सवाल बन गया है और ऐसा लगता है कि यह विवाद आसानी से हल होने वाला नहीं है।
दूसरे राज्यों में इस तरह अधिकारों की लड़ाई नहीं होती क्योंकि वहाँ पुलिस भी राज्य सरकार के अधीन होती है। दिल्ली में स्थिति विकट है। फ़रवरी में दिल्ली में दंगे हुए। जाँच एजेंसी दिल्ली पुलिस है और दिल्ली पुलिस का पक्ष अदालत में रखने के लिए पुलिस अपने वकील पेश नहीं कर सकती। वकील नियुक्त करने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास है और दिल्ली सरकार को दिल्ली पुलिस की जाँच पर ही विश्वास नहीं है। ऐसी हालत में दंगों की जाँच से लेकर अपराधियों को सज़ा दिलाने की सारी प्रक्रिया किस कदर गड़बड़ हो जाएगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। न्यायिक प्रक्रिया में जब जाँच एजेंसी और प्रॉसिक्यूशन अलग-अलग रास्ते पर चलेंगे तो फिर ज़ाहिर है कि सब कुछ सही-सही साबित कर पाना आसान नहीं होगा।
अब क़ानूनी स्थिति यह है कि 4 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने वकीलों की नियुक्ति का अधिकार सीधे तौर पर दिल्ली सरकार को सौंप दिया था। इस हिसाब से दंगों की जाँच का काम तो दिल्ली पुलिस को ही करना है लेकिन इन दंगों में दिल्ली सरकार की तरफ़ से वही वकील पेश होंगे जिनकी नियुक्ति दिल्ली सरकार करेगी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगों के कुल 85 मामले दर्ज हो चुके हैं और इसके अलावा नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के भी 24 मामले हैं। यमुनापार में दोनों मामले एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं क्योंकि हिंसा की शुरुआत 23 फ़रवरी को इन्हीं प्रदर्शनों के दौरान ही हुई थी।
जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे 22 फ़रवरी की रात कुछ महिलाएँ शाहीन बाग़ की तर्ज पर आ डटी थीं तो 23 फ़रवरी को कपिल मिश्रा मौजपुर स्टेशन के पास अपने समर्थकों के साथ पहुँच गए थे। तभी टकराव हुआ जिसमें 53 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और करोड़ों रुपए की प्रॉपटी जैसे मकान, दुकानें, वाहन वगैरह तबाह हो गए।
अब जो मामले बने हैं, उन्हें साबित करने के लिए दिल्ली पुलिस ने अपनी थ्योरी तैयार की है लेकिन दिल्ली सरकार को उन पर क़तई विश्वास नहीं है। यह सच है कि आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन भी इन दंगों में हत्या के आरोप में गिरफ्तार हैं और आप ने उन्हें सस्पेंड भी कर दिया है लेकिन आप सरकार दिल्ली पुलिस की जाँच पर लगातार उँगली उठाती रही है। उनका यह भी कहना है कि निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट तक दिल्ली पुलिस की जाँच पर आपत्ति कर चुके हैं तो फिर आख़िर दिल्ली पुलिस द्वारा सुझाए गए वकीलों को कैसे पेश होने दिया जाए।
इस टकराव की शुरुआत निचली अदालतों में मामले पेश होने के वक़्त ही हो गई थी। दिल्ली पुलिस इन मामलों में अपनी तरफ़ से वकील पेश कर रही थी और दिल्ली सरकार अपनी तरफ़ से। अदालत में मजिस्ट्रेट ने इस बात पर दोनों पक्षों को डाँट भी लगाई कि आख़िर यह तय क्यों नहीं हो पा रहा कि मामले में कौन वकील होगा लेकिन तब भी बात नहीं सुलझाई गई। इसके बाद अदालत ने कुछ अभियुक्तों की ज़मानत तक मंज़ूर कर ली और कहा कि इस लड़ाई में किसी की ज़मानत के अधिकार को नहीं रोका जा सकता।
राजनीतिक टकराव?
अगर सच्चाई देखें तो यह टकराव क़ानूनी से ज़्यादा राजनीतिक नज़र आता है। केंद्र की बीजेपी सरकार पर यों तो आरोप लगता रहा है कि वह संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता बरकरार नहीं रख पा रही लेकिन इस मामले में यह साफ़ भी हो रहा है। दिल्ली के दंगों के दौरान भी यह बात साफ़ हो गई थी। इसकी वजह यह थी कि एक तरफ़ कपिल मिश्रा नज़र आ रहे थे तो दूसरी तरफ़ आम आदमी पार्टी की हमदर्दी थी। यही वजह है कि केंद्र सरकार अब उपराज्यपाल की मार्फत यह चाहती है कि दंगों में सरकार की तरफ़ से लड़ने का अधिकार उन वकीलों को मिले जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार करे। इसीलिए केंद्र सरकार ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अमन लेखी का नाम उन वकीलों में शामिल किया जिन्हें इन दंगों में सरकार की तरफ़ से पेश किया जाना है। यह सभी जानते हैं कि सॉलिसिटर जनरल या उनकी टीम पूरी तरह से राजनीतिक नियुक्ति होती है।
यह ठीक है कि उन्हें सरकार की तरफ़ से लड़ने के लिए नियुक्त किया जाता है और यह उनका प्रोफ़ेशन है लेकिन फिर भी यह माना जाता है कि वे वही पक्ष पेश करेंगे जो सरकार चाहती है। सरकारें बदलने के साथ ही उसके पैरोकार भी बदल जाते हैं और उनकी जगह नए वकील ले लेते हैं। इसलिए राजनीतिक संरक्षण तो साफ़ नज़र आता है।
दूसरी तरफ़ देखा जाए तो दिल्ली में स्टैंडिंग काउंसिल राहुल मेहरा को आप सरकार की तरफ़ से पेश होकर सरकार का पक्ष रखना है। राहुल मेहरा भी आम आदमी पार्टी की नीतियों के समर्थक माने जाते हैं। केंद्र सरकार का तर्क यह है कि दंगों की जाँच और अदालत में उनकी सुनवाई के लिए ऐसा पैनल होना चाहिए जो इन मामलों की गंभीरता को देखते हुए लड़ सके जबकि दिल्ली सरकार का कहना है कि हमें अपने स्टैंडिंग काउंसिल पर पूरा भरोसा है और हमें केंद्र की किसी टीम की ज़रूरत ही नहीं है। इसीलिए जब उपराज्यपाल अनिल बैजल ने वकीलों का पैनल दिल्ली सरकार को भेजा तो गृह विभाग संभाल रहे डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने उसे रद्द कर दिया। उपराज्यपाल ने इस पर सीएम अरविंद केजरीवाल को चिट्ठी लिख दी कि मामले पर पुनर्विचार करें और दिल्ली पुलिस के बनाए वकीलों के पैनल को ही पेश होने दें लेकिन दिल्ली कैबिनेट ने इस प्रस्ताव को पूरी तरह नकार दिया और साफ़ कर दिया कि यह अधिकार तो दिल्ली सरकार का है और हम ही वकीलों के नाम तय करेंगे।
मोटे तौर देखा जाए तो अब इस मामले को यहीं ख़त्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वकीलों की नियुक्ति का अधिकार दिल्ली सरकार के पास ही है। मगर, यह टकराव यहीं ख़त्म होने वाला नहीं है। इसका कारण यह है कि मामला तो राजनीतिक प्रतिष्ठा का बन चुका है। इस राजनीतिक प्रतिष्ठा में वोटों की राजनीति का समीकरण भी जुड़ा हुआ है। ऐसे में दोनों पक्ष पीछे हटने वाले नहीं हैं। 4 जुलाई 2018 के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार में किसी मुद्दे पर सहमति नहीं बनती है तो फिर वह मामला राष्ट्रपति के पास भेजा जा सकता है। उपराज्यपाल अपने इसी अधिकार के तहत इस मामले की एक बार फ़ाइल मंगवा चुके हैं और दिल्ली सरकार को पुनर्विचार के लिए भी कह चुके हैं। दिल्ली सरकार टस से मस नहीं हुई तो अब हो सकता है कि दिल्ली में अधिकारों के टकराव का यह ऐसा पहला मामला बन जाए जो राष्ट्रपति के दरबार में पहुँचे।
हालाँकि दोनों ही पक्षों की नीयत यह होनी चाहिए कि दंगों में मानवता की हत्या करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले लेकिन जिस तरह दोनों पक्षों में टकराव हो रहा है लगता है कि वे एक-दूसरे को ही नीचा दिखाने पर उतारू हैं। दंगों की जाँच से लेकर अपराधियों को सज़ा दिलाने तक की प्रक्रिया से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है।