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केजरीवाल ने दिल्ली में जाटों को ओबीसी लिस्ट में रखने की मांग क्यों की?

केजरीवाल ने दिल्ली में जाटों को ओबीसी लिस्ट में रखने की मांग क्यों की?

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल ने जाटों को ओबीसी सूची में शामिल करने के लिए पीएम मोदी को पत्र लिखा है। केजरीवाल ने गुरुवार 9 जनवरी को इस संबंध में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी बात भी रखी। लेकिन केजरीवाल ने जाटों के लिए आरक्षण का दांव क्यों खेला, इस राजनीति को समझियेः

आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर केंद्र सरकार से जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची में शामिल करने का आग्रह किया, जिससे शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिल सके। उन्होंने केंद्र पर पिछले 10 साल से जाटों को धोखा देने का आरोप लगाया और आरोप लगाया कि बीजेपी को जाटों की याद तभी आती है जब चुनाव करीब आता है। केजरीवाल का जाट प्रेम इस वर्ग के मतदाताओं में पूरा नैरेटिव बदल सकता है। और भाजपा को नुकसान हो सकता है। अभी सिर्फ भाजपा के पास प्रमुख जाट चेहरे हैं, जिनमें आप से भाजपा में गये कैलाश गहलोत और विवादित बयान देने के लिए चर्चित पूर्व सांसद प्रवेश वर्मा शामिल हैं। प्रवेश वर्मा तो केजरीवाल के खिलाफ नई दिल्ली विधानसभा सीट से पार्टी टिकट पर चुनाव भी लड़ रहे हैं। 

दिल्ली विधानसभा के लिए 70 सदस्यों को चुनने के लिए 5 फरवरी को एक ही चरण में मतदान होगा। जाटों का दिल्ली में महत्वपूर्ण प्रभाव है, क्योंकि अनुमान है कि इस समुदाय के करीब 10 फीसदी मतदाता हैं लेकिन तमाम पार्टियों से उनके 12 फीसदी से ऊपर जाट प्रत्याशी जीतकर दिल्ली विधानसभा में पहुंचते हैं।

केजरीवाल ने गुरुवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा- दिल्ली के जाट समुदाय को पिछले 10 वर्षों से प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा ने धोखा दिया है। दिल्ली के जाट समुदाय को केंद्र सरकार के किसी भी कॉलेज, विश्वविद्यालय या संस्थान में आरक्षण नहीं मिलता है। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को केवल चुनाव से पहले दिल्ली के जाटों की याद आती है।

राजस्थान के जाट समुदाय के सदस्यों को केंद्रीय सूची के तहत ओबीसी आरक्षण का लाभ दिया जाता है, जबकि दिल्ली में उसी समुदाय के लोगों को दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे केंद्रीय संस्थानों में इन लाभों से वंचित किया जाता है। आखिर क्यों।


-अरविन्द केजरीवाल, संयोजक आम आदमी पार्टी, 9 जनवरी 2025 सोर्सः आप प्रेस कॉन्फ्रेंस

केजरीवाल ने मोदी को लिखे पत्र में कहा कि दिल्ली में केंद्र सरकार की सात यूनिवर्सिटी हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के दर्जनों कॉलेज हैं। दिल्ली पुलिस, एनडीएमसी, डीडीए, एम्स, सफदरजंग, राम मनोहर लोहिया जैसे केंद्र सरकार के कई संस्थानों में नौकरियां हैं। ऐसे में केंद्र सरकार की इस वादाखिलाफी के कारण दिल्ली के ओबीसी समुदाय के हजारों युवाओं के साथ अन्याय हो रहा है।'' उन्होंने कहा कि केंद्रीय ओबीसी सूची में "गड़बड़ियों को ठीक करने" की फौरन आवश्यकता है। उन्होंने केंद्र से जाट समुदाय और पांच अन्य ओबीसी जातियों के प्रति अपना "पक्षपातपूर्ण रवैया" छोड़ने का आग्रह किया।

केजरीवाल की जाट राजनीतिः दिल्ली में 364 गांव हैं, जिनमें 225 गांव जाटों के हैं। करीब 15 सीटों को जाट बहुल मतदाता दिल्ली में प्रभावित करते हैं। अधिकांश सीटें बाहरी दिल्ली इलाके में हैं और दिल्ली के अंदर बसे कुछ गांवों में या तो जाट हैं या फिर गुर्जर।

दिल्ली के पूर्व सीएम साहिब सिंह वर्मा भाजपा के सबसे सशक्त जाट चेहरे थे। हालांकि कांग्रेस में सज्जन कुमार जैसा चेहरा भी था। लेकिन सज्जन 1984 के सिख विरोधी दंगों की भेंट चढ़ गये और फिर वापसी नहीं कर पाये। साहिब सिंह वर्मा के सामने दिल्ली में कोई जाट नेता टिक नहीं पाया। उनके निधन के बाद बीजेपी ने उनके बेटे प्रवेश वर्मा को लोकसभा में भेजा। लेकिन इस बार यानी 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दिया। इसकी वजह उनके कई विवादित बयान बने। जिसमें एक समुदाय विशेष का बहिष्कार करने का आह्वान शामिल है। लेकिन भाजपा ने अपने फैसले को बदल लिया।  

नई दिल्ली से भाजपा प्रत्याशी प्रवेश वर्मा केजरीवाल को कभी नक्सली और आतंकी तक कह चुके हैं। साथ ही पाकिस्तान के मंत्री से साठगांठ का भी आरोप लगा चुके हैं। चुनाव आयोग ने उन पर 96 घंटे की रोक लगाई लेकिन जब वो समय सीमा खत्म हुई तो प्रवेश वर्मा ने अपने विवादित बयानों को दोहराया था।


हालांकि नई दिल्ली सीट जाट बहुल नहीं है। लेकिन अगर नई दिल्ली जिले की ही बात करें तो 14 गांव जाट बहुल हैं। आप के हालात को देखते हुए 14 गांवों के जाट मतदाता नई दिल्ली में पासा पलट सकते हैं। इसीलिए केजरीवाल ने अपनी सीट के मद्देनजर भी जाट आरक्षण का दांव खेला है। हालांकि नई दिल्ली सीट मुख्यमंत्री पद के दावेदार की मानी जाती है। आप को अगर बहुमत मिलता है तो केजरीवाल ही फिर से सीएम बनेंगे, इसलिए नई दिल्ली में जाट फैक्टर इतना मायने नहीं रखेगा, अगर मतदाता ने सोच लिया कि वो भावी सीएम प्रत्याशी को वोट दे रहा है। 

शीला दीक्षित ने 2008 से 2013 तक इस सीट पर कब्जा किया। 2013 में, केजरीवाल ने उन्हें 44,269 वोटों के साथ हरा दिया, जबकि उन्हें 18,405 वोट मिले। 2015 में, उन्होंने 57,213 वोट हासिल करके सीट बरकरार रखी, जबकि उनकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी, भाजपा की नुपुर शर्मा को केवल 25,630 वोट मिले। उन्होंने 2020 में फिर से जीत हासिल की, 46,758 वोट हासिल करके भाजपा के सुनील यादव को 21,697 वोटों से हराया। इस बार नई दिल्ली की लड़ाई में केजरीवाल के लिए राह इतनी आसान नहीं होगी।

आप प्रमुख केजरीवाल का जाट प्रेम नया नहीं है। जब वो सीएम रहे, उनकी कैबिनेट में जाट समुदाय से मंत्री बनाये जाते रहे। लेकिन अभी हाल ही में उनका और एक प्रमुख जाट चेहरे कैलाश गहलोत का साथ छूट गया। जबकि गहलोत को उन्होंने पूरा महत्व दिया हुआ था। कैलाश गहलोत के जाते ही आप के नांगलोई जाट सीट से विधायक रघुविंदर शौकीन को फौरन मंत्री बना दिया। नांगलोई जाट निर्वाचन क्षेत्र से दो बार विधायक रहे शौकीन की कैबिनेट में मौजूदगी का असर ग्रामीण मतदाताओं पर पड़ने की उम्मीद है।

दिल्ली में ऊंची जातियों का बोलबाला

दिल्ली के चुनाव में ऊंची जाति के प्रभुत्व वाला सीन हर बार बनता है। जाटों की सामाजिक स्थिति दिल्ली में और समुदायों से बेहतर है। जाट परिवारों के अधिकांश लोग सरकारी नौकरियों खासकर दिल्ली पुलिस, सीआरपीएफ आदि में हैं। लेकिन दिल्ली के चुनाव में ब्राह्मण समुदाय का ही बोलबाला रहता है। दिल्ली की आबादी में ऊंची जातियां लगभग 30 से 35% हैं और 1993 के बाद से, विधानसभा में औसतन 45% सीटें उनके पास रहती हैं। दिल्ली के चुनाव में AAP का उदय होने के साथ ही ऊंची जातियों की स्थिति फिर बेहतर हो गई। आप पर एक समय तो यह आरोप तक लगा कि वहां ब्राह्मणों का बोलबाला है। भाजपा और कांग्रेस भी इससे अलग नहीं हैं। लेकिन जाटों के आरक्षण का दांव रणनीति के हिसाब से केजरीवाल का मास्टरस्ट्रोक कहा ही जाएगा।

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