दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने कन्हैया कुमार और दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ दायर चार्जशीट ख़ारिज कर दिया है। अदालत ने कहा है कि दिल्ली पुलिस ने इस मामले में क़ानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। उसने राजद्रोह चलाने के लिए ज़रूरी अनुमति दिल्ली सरकार से नहीं ली है। वह पहले यह अनुमति लेकर आए।
इसके पहले कन्हैया कुमार और जेएनयू के 9 अन्य छात्रों पर राजद्रोह लगाने से जुड़ी चार्जशीट के लिए अनुमति देने से दिल्ली सरकार ने इनकार कर दिया।
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क़ानून का पालन नहीं किया पुलिस ने
दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार और दूसरों पर राजद्रोह का मुक़दमा शुरू करने से पहले इसके लिए अनिवार्य अनुमति दिल्ली सरकार से क्यों नहीं ली? फ़िलहाल यही सवाल सबसे अहम है। क़ानून का रखवाला माने जाने वाली दिल्ली पुलिस ने आख़िर क्यों ख़ुद क़ानून का पालन नहीं किया, यह सवाल उठना लाज़िमी है। कन्हैया कुमार और दूसरों पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाने की बात पुलिस कह रही है और यह बेहद गंभीर मामला है। पुलिस को इस मामले की तैयारी इस कदर करनी चाहिए थी कि वह अपने मामले को अदालत में ठीक से रख पाती।दबाव में है दिल्ली पुलिस?
क्या वह अपनी किरकिरी कराना चाहती थी या जानबूझ कर यह मामला गिरा देना चाहती थी? इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या पुलिस पर कोई बाहरी दबाव है जिसके तहत वह बग़ैर तैयारी के ही मामला अदालत तक ले गई? यदि वह दबाव है तो कौन सा दबाव है, यह सवाल भी अहम है। यह सवाल अहम इसलिए भी है कि पुलिस ने चार्जशीट तैयार करने में ही तीन साल लगा दिए और मामला अदालत तक ले भी गई तो उसके लिए अनिवार्य अनुमति तक नहीं ली।क्या है मामला?
दिल्ली पुलिस ने बीते सोमवार को जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार व 9 अन्य लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट कोर्ट में दाख़िल कर दी थी। इसमें कन्हैया कुमार, उमर खाल़िद और अनिर्बान भट्टाचार्य के नाम भी हैं। इन लोगों पर राजद्रोह के अलावा दंगा करने और आपराधिक साजिश रचने के आरोप हैं। क़ानून के मुताबिक़, इस चार्जशीट को पहले दिल्ली सरकार के न्याय विभाग को वेटिंग (राज्य सरकार सरकारी वकीलों से पुलिस की चार्जशीट पर राय लेती है कि चार्जशीट वैधानिक मानदंडों के अनुरूप है कि नहीं। मानदंडों के अनुरूप न होने पर सरकार इसे पुलिस को बदलाव या ख़ारिज करने के लिए वापस कर देती है।) के लिए सौंपा जाना था।दिल्ली सरकार ने साल 2016 में ही इस पूरे मामले की जाँच मजिस्ट्रेट से कराई थी।
दिल्ली के ज़िला मजिस्ट्रेट संजय कुमार की जाँच में कन्हैया कुमार या किसी और के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं पाया गया था। जाँच में यह पाया गया था कि कुछ लोगों ने विश्वविद्यालय परिसर में नारेबाज़ी की थी। पर वे लोग कौन थे और कहां रहते थे, यह पता नहीं चल सका था।
मजिस्ट्रेट जाँच में यह भी कहा गया था कि उन लोगो के बारे में पता लगाया जाए और उनकी भूमिका की जाँच हो।
कन्हैया के ख़िलाफ़ सबूत नहीं
मजिस्ट्र्ट जाँच की रिपोर्ट में कहा गया है कि कन्हैया के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला है। उनके ख़िलाफ़ न तो कोई वीडियो मिला है न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि जो सात वीडियो दिए गए थे, उनकी जाँच हैदराबाद स्थित फ़रेंसिक प्रयोगशाला में कराई गई। सात में से एक वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई। यह वह वीडियो है, जिसे एक न्यूज़ चैनल ने दिखाया था। इसमें बाहर से एक ऑडियो क्लिप डाल दी गई थी।दिल्ली के ज़िला मजिस्ट्रेट संजय कुमार ने यह जाँच की थी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उमर ख़ालिद को वीडियो में देखा गया है। आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु के प्रति उनका समर्थन और सहानुभूति सबको पता है। उनकी भूमिका की जाँच अलग से हो।
मजिस्ट्रेट जाँच रिपोर्ट में जेएनयू के एक सुरक्षा गार्ड की कही बात को भी शामिल किया गया है। उस गार्ड ने कहा था कि उमर ख़ालिद, अनिर्वाण भट्ट्चार्य और आशुतोष कुमार ने 'शायद' नारे लगाए थे।
कश्मीरी मूल के कई छात्र मुँह पर कपड़े लपेटे नारे लगाते हुए पाए गए। वे कौन थे, यह पता नहीं लगा है, उनकी भूमिका की जाँच हो।
इस मजिस्ट्रेट जाँच से यह तो साफ़ है कि मुक़दमा चलाने के लिए अनुमित नहीं देने के मुद्दे पर दिल्ली सरकार अपनी जगह ठीक है। वह कह सकती है कि उसकी जाँच में कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला तो वह मुक़दमे की अनुमित कैसे दे।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि दिल्ली पुलिस की इस जल्दबाज़ी के पीछे ऊपरी दबाव है। यह दबाव उन लोगों को है जो कन्हैया कुमार के साथ ही दिल्ली सरकार, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और सत्तारूढ़ दल आम आदमी पार्टी को घेरना चाहते हैं।
अब वे यह प्रचारित कर सकते हैं कि आम आदमी पार्टी और उसके मुखिया ने एक 'देशद्रोही' बचाया और उस पर मुक़दमा चलाने की इजाज़त तक नहीं दी। चुनाव के ठीक पहले इसके राजनीतिक मायने हैं और उसका फ़ायदा साफ़ तौर पर भारतीय जनता पार्टी को ही मिलेगा। बेजीपे और उससे जुड़े छात्र सगंठन अखिल भारती विद्यार्थी परिषद ने ही जेएनयू का यह मुद्दा उठाया था।