दिल्ली में 8 फ़रवरी को मतदान होना है और यह विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी (आप) दोनों के लिए ही बहुत अहम है। लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत मिलने के बाद बीजेपी ने कभी नहीं सोचा था कि महाराष्ट्र में वह सरकार नहीं बना पाएगी और हरियाणा में उसे सरकार बनाने के लाले पड़ जाएंगे। 2018 में वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता भी गंवा चुकी है। झारखंड में भी जिस आसानी से कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर बीजेपी को राज्य की सत्ता से हटाया है, उससे पीएम नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की आभा धूमिल पड़ गई है। वह भी तब, जब पिछले छह महीनों में मोदी सरकार ने धारा-370, राम मंदिर और नागरिकता संशोधन क़ानून जैसी तुरूप की चालें भी चली हैं। इसके बावजूद भी अगर बीजेपी सत्ता से बाहर होती जा रही है तो यह उसके लिए चिंतित करने वाली बात है और उसे दिल्ली में अपना वनवास ख़त्म करना ही होगा।
अगर दिल्ली में बीजेपी का सत्ता का वनवास ख़त्म नहीं हुआ तो फिर जहां राष्ट्रीय स्तर पर उसके प्रभाव पर संदेह पैदा होने लगेंगे, वहीं दिल्ली में उसकी वापसी असंभव ही हो जाएगी। 1998 के बाद से दिल्ली की सत्ता में लौटने का सपना उसके लिए सपना ही रह जाएगा।
दूसरी तरफ ‘आप’ के लिए भी दिल्ली का चुनाव अस्तित्व का सवाल है। यही वजह है कि पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल ने सबकुछ दांव पर लगा दिया है। ‘आप’ आन्दोलन से निकली पार्टी है और हमारे देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब कोई पार्टी किसी आन्दोलन से निकली और वह जोर-शोर के साथ सत्ता में भी आई लेकिन उसका जादू लंबे समय तक बरक़रार नहीं रह सका।
हार के बाद जुट गए केजरीवाल
2015 में प्रचंड बहुमत के साथ ‘आप’ ने 67 सीटें जीतीं लेकिन उसके बाद एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि यह पार्टी लंबी रेस की खिलाड़ी है। डूसू चुनावों से लेकर नगर निगम चुनाव और उसके साथ ही राजौरी गार्डन उपचुनाव, कहीं भी ‘आप’ का जादू रिपीट होता नजर नहीं आया। अगर पिछले कुछ सालों में ‘आप’ के नाम पर कोई एक अदद कामयाबी नजर आती है तो वह है बवाना का उपचुनाव। जाहिर है कि अगर अब 8 फ़रवरी को अगर ‘आप’ सत्ता में वापसी नहीं करती तो वह बिखर जाएगी और उसके बाद उसका क्या हश्र होगा, कोई नहीं जानता। हालांकि यह इतना आसान नहीं है क्योंकि पिछले साल मई में लोकसभा चुनाव हारने के बाद से ही केजरीवाल एक तरह से हर दिन चुनाव ही लड़ रहे हैं। उसके बाद से एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब केजरीवाल ने कोई बड़ी घोषणा नहीं की हो।
लोकसभा चुनाव हारने के बाद सबसे पहले केजरीवाल ने महिलाओं की डीटीसी और मेट्रो में फ़्री सवारी का दांव खेला। उसके बाद 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त कर दी। पानी के सारे पुराने बिल माफ़ कर दिए। बुजुर्गों के लिए तीर्थ यात्रा शुरू करा दी और एक-एक करके इतनी खैरात बांट दीं कि उन्हें भी यह लगने लगा है कि अगर अब भी ‘आप’ को वोट नहीं मिलेंगे तो फिर किसे मिलेंगे।
दरअसल, बिजली हाफ़ और पानी माफ़ के नाम पर ही तो केजरीवाल ने पिछला चुनाव जीता था। इसके बाद भी जब ‘आप’ नगर निगम चुनावों समेत सारे बड़े चुनाव हार गई तो केजरीवाल को यह साफ़ दिखने लगा कि ‘जनता मांगे मोर’। और इसीलिए उन्होंने अब इतना कुछ मुफ्त बांट दिया है कि उन्हें लग रहा है कि जनता इसके बदले ‘67 के पार’ का नारा साकार कर देगी।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनावों से बेहतर स्थिति में नज़र नहीं आ रही है। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत ‘आप’ से ज्यादा हो गया था। ‘आप’ को 18 फीसदी और कांग्रेस को 21 फीसदी वोट मिले थे। सात में से पांच सीटों पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही थी और दिल्ली की पांच विधानसभा सीटों पर उसने लीड भी बनाई थी। तब यह माना जाने लगा था कि कांग्रेस फिर से जिंदा हो रही है लेकिन ठीक उसी वक्त शीला दीक्षित की मौत ने कांग्रेस को फिर रसातल में धकेल दिया।
शीला दीक्षित का उत्तराधिकारी चुनने में कांग्रेस आलाकमान ने तीन महीने बर्बाद कर दिए। अभी तो कांग्रेस संभली भी नहीं है कि विधानसभा चुनावों की तारीख़ों का एलान हो गया है।
कांग्रेस को मुसलिम वोटर्स से आस
अगर चुनाव नतीजों पर गौर करें तो पता चलता है कि कांग्रेस ने 2013 के विधानसभा चुनाव में जो 8 सीटें जीती थी, उनमें सीलमपुर, गाँधी नगर, चांदनी चौक, मटिया महल और ओखला ऐसी सीटें थीं जहां मुसलिम वोटों ने कांग्रेस को जिताया था। पिछले लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस का वोट प्रतिशत इसीलिए बढ़ा था कि मुसलिम वोटरों ने ‘आप’ को नकारकर कांग्रेस को चुना था। अब नागरिकता क़ानून के विरोध के सिलसिले में कांग्रेस फिर मुसलिम वोटरों की तरफ़ देख रही है।
वोट बंटने पर बीजेपी को होगा फायदा!
दिल्ली में दस सीटें ऐसी हैं जिन पर मुसलिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं। केजरीवाल ने नागरिकता क़ानून के आन्दोलन में कोई सीधा स्टैंड नहीं लिया। इसीलिए कांग्रेस को अगर कहीं से उम्मीद है तो वह मुसलिम वोटर ही हैं। जाहिर है कि अगर ये वोट कांग्रेस की झोली में आ जाते हैं तो फिर उसे दो-चार सीटें मिल सकती हैं लेकिन इसका बड़ा फायदा बीजेपी को हो सकता है। बीजेपी के ख़िलाफ़ पड़ने वाले वोट अगर बंट जाते हैं तो फिर बीजेपी कुछ उम्मीदें बांध सकती है।
2015 के विधानसभा चुनाव में मुसलिम वोट एकमुश्त ‘आप’ के पक्ष में पड़े थे तो बीजेपी 32 फ़ीसदी वोटों के बावजूद सिर्फ 3 सीटें ही जीत सकी थी। इसलिए कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन उसके अपने जिंदा होने के लिए तो ज़रूरी है ही, इससे बीजेपी को भी अपनी वापसी का रास्ता दिखाई दे रहा है। दिल्ली की राजनीति में पूरा एक महीना काफी उथल-पुथल और पूरे देश की राजनीति पर असर डालने वाला साबित होगा। अब दिल्ली के चुनाव की तारीख़ें घोषित हुई हैं तो असल में यह देश की राजनीति का भविष्य तय करने वाली तारीख़ें भी हैं।