मोदी सरकार ने आधिकारिक तौर पर 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने का एलान किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विभाजन के दरमियान हुई हिंसा और विस्थापन का उल्लेख करते हुए ट्वीट किया है कि इसे याद रखने की जरूरत है। पूछा जाना चाहिए कि विभाजन के समय हुए खून-खराबे और बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े विस्थापन को याद रखना क्यों जरूरी है?
अव्वल तो विभाजन जैसे दुस्वप्न को भूलकर आगे बढ़ने की जरूरत है। बेशक विभाजन के समय हुई गलतियों और बदमजगी से बचने की आज भी जरूरत है। इसलिए इतिहास से निश्चित तौर पर सबक लिया जा सकता है।
लेकिन सवाल तो यह है कि क्या नरेंद्र मोदी ने विभाजन के इतिहास से सबक लेने के लिए विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने की घोषणा की है? दरअसल, सच्चाई कुछ और है।
विभाजन केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए त्रासद रहा है। महाद्वीप की भौगोलिक परिस्थितियों और विभाजन के तौर-तरीकों को देखा जाए तो लगता है कि बंटवारा बहुत अनियत, अनियंत्रित और अनियोजित था।
भारत-पाक सीमा को निर्धारित करने वाला रेडक्लिफ पहली बार भारत आया था और उसने महज डेढ़ माह की अवधि में यह 'जादू' कर दिखाया था। 6 सप्ताह में उसने हिंदू, मुसलिम और सिख प्रतिनिधियों से मुलाकात करके बंगाल और पंजाब का विभाजन तय कर दिया था।
सांप्रदायिक हिंसा का माहौल
औपनिवेशिक भारत का एक हिस्सा इस्लाम के आधार पर अलग हो गया। मुसलिम बहुल पूर्वी और पश्चिमी दो टुकड़ों में पाकिस्तान वजूद में आया। विभाजन के समय दोनों मुल्कों के सीमा-सरहद के इलाकों में हुई हिंसा ने आज़ादी के जश्न को फीका जरूर कर दिया था। सरहदी इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा जारी थी।
हिन्दू, मुसलिम और सिख तीनों कौमों के करोड़ों लोग हिंसा, विस्थापन, आगजनी, हत्या और बलात्कार जैसी त्रासद पीड़ा से गुजर रहे थे। इसीलिए गांधीजी आज़ादी के जश्न को छोड़कर सांप्रदायिक 'पागलपन' को दूर करने के लिए अहिंसा और सौहार्द जैसे नैतिक मूल्यों से हिंसा और उन्माद का मुकाबला करने के लिए बंगाल के नोआखली में थे।
विभाजन की त्रासदी पर हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओं में कहानियां, उपन्यास, संस्मरण, आत्मकथा लिखे गए। न जाने कितनी फिल्में बनीं और प्रसारित हुईं। हम आज भी वह मंजर देख-पढ़कर सिहर जाते हैं। ढेर सारी किताबों में दर्ज विभाजन के लाखों खौफनाक दृश्य हमारी रगों का खून जमाने लगते हैं।
माना जाता है कि करीब 2 करोड़ लोग पलायन के लिए मजबूर हुए और तकरीबन 10 लाख लोग मारे गए। हजारों महिलाओं ने अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या कर ली। कभी-कभी घर के मुखिया ने परिवार की सभी औरतों को खुद ही मार दिया, ताकि 'विधर्मी दरिंदों' के हाथों उनकी जिंदगी ना खराब कर दी जाए।
विभाजन की परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए लंदन के 'संडे टाइम्स' के संपादक एच.डब्ल्यू. हडसन ने लिखा था, “हिंदुस्तान में एक ही समय में दो क्रांतियां हो रही हैं। पहली 150 वर्षीय ब्रिटिश सरकार से मुक्ति और आज़ादी, और दूसरी हिंदू और मुसलमानों की एक दूसरे से जुदाई। हजार वर्षीय इस्लामी विजय और पेशकदमियों की प्रतिक्रिया इससे पूर्णतः इनकार की हिंदुओं की मनोवृत्ति।...
इस मनोवृत्ति के कुप्रभाव से न फौजी जवान, पुलिस वाले बच सके और ना प्रशासनिक अधिकारी ही। लूट-मार और दंगों के बीच उनकी निष्पक्षता जाती रही। अक्सर वे दंगाइयों के मददगार बन गए।”
पंजाब बाउंड्री फोर्स के कमांडर टी.डब्ल्यू. रीज़ ने पहली रिपोर्ट में कहा था, “सांप्रदायिकता भयंकर रूप में अपनी चरम सीमा पर थी। हत्या एवं लूटमार की बर्बरता मध्यकाल की पशुता को मात कर रही थी। ना उम्र का ख्याल रखा गया और ना औरत-मर्द का। सीनों से बच्चों को चिपकाई माओं को टुकड़े-टुकड़े किया गया। गोलियों से उन्हें छेद डाला गया, छातियों में बरछे उतार दिए गए। दोनों ओर निर्दयता और हिंसा का समान प्रदर्शन किया गया।”
चारों ओर कत्लेआम
पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी किताब 'आज़ादी या मौत' में लिखा कि “जैसे ही सीमाओं का पतन हुआ, तो अनुमानतः 14 से 70 मिलियन लोग अपने घरों से बेघर हो गए। यह मानव इतिहास में सबसे बड़ा विस्थापन था। पारस्परिक कत्लेआम हद से ज्यादा बढ़ गया। पूरे के पूरे उत्तरी भारत में बंगाल, बिहार, संयुक्त राज्यों और दिल्ली में, हरेक प्रतिद्वंद्वी समुदाय का सिर्फ कत्ल कर रहा था या कत्ल हो रहा था। वे दिन लद चुके थे, जब एक आदमी अपने जन्म स्थान, व्यवसाय, प्रांत या व्यक्तित्व साफ-साफ बता देता था। अब तो धर्मनिरपेक्षतावादी भी मुसलिम, हिंदू या सिक्खों के तौर पर जाने जाते थे, वे बस खतना या बिना खतना के तौर पर पहचाने जाते थे।”
सरहदी इलाकों में बंटवारे के समय हिंदुओं और मुसलमानों में अलगाव और अविश्वास इस कदर बढ़ गया था कि रेलवे स्टेशनों पर 'हिंदू पानी- हिंदू चाय' और 'मुसलिम पानी- मुसलिम चाय' अलग-अलग ठिकानों पर मिलती थी।
लेकिन सरहदी इलाकों और दिल्ली को छोड़कर स्वतंत्र भारत के दूसरे हिस्से विभाजन के दंश से लगभग अछूते रहे।
संवैधानिक राष्ट्र बना भारत
धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान के बावजूद आज़ादी के आंदोलन के मूल्यों पर आगे बढ़ते हुए भारत एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक राष्ट्र बना। लेकिन उस समय भारत में ऐसी ताकतें जिंदा थीं जो ना सिर्फ द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर अलग मुसलिम राष्ट्र की समर्थक थीं बल्कि वे उसी तरह भारत को भी अतीतजीवी हिन्दूराष्ट्र बनाना चाहती थीं।
इन ताकतों ने पाकिस्तान से लुट-पिटकर आने वाले हिंदू सिख विस्थापितों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काया। नतीजे में दिल्ली के मुसलिम इलाकों में हमले हुए। राजधानी होने के बावजूद लंबे समय तक दिल्ली में सांप्रदायिक तनाव रहा।
आरएसएस, हिंदू महासभा की भूमिका
तत्कालीन गृह मंत्रालय और पुलिस की खुफिया रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस और हिंदू महासभा की इसमें बड़ी भूमिका थी। गौरतलब है कि गाँधीजी की हत्या में नाथूराम गोडसे के साथ एक विस्थापित मदनलाल पाहवा भी था; जिसने अपने बयान में भड़काने वाली इन हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों की ओर इशारा किया था।
गांधीजी की हत्या के बाद हिंदूवादी शक्तियाँ लंबे समय तक समाज में अस्वीकार्य रहीं। लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए संघ ने अपनी वैचारिकी का धीरे-धीरे प्रचार-प्रसार किया। पहले जनसंघ और फिर बीजेपी के माध्यम से संघ ने अपनी राजनीतिक ताकत को भी मजबूत किया। नब्बे बरस के बाद संघ के राजनीतिक दल बीजेपी ने भारत में पूर्ण बहुमत की सत्ता स्थापित की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संघ के प्रचारक रहे हैं। संघ का घोषित एजेंडा हिंदू राष्ट्र है। विभाजन की त्रासदी और इसलामी राष्ट्र पाकिस्तान को बार-बार भारतीयों की स्मृति में झोंककर हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने की रणनीति है।
दूसरी तरफ समाज को हिंदू और मुसलमान की बायनरी में विभाजित रखना है। समाज इस बायनरी में जितना विभाजित होगा, उतना ही बीजेपी को चुनावी फायदा होगा। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने 'विभाजन की विभीषिका' की स्मृति को मनाने का एलान किया है।