भारत में दलित, मुस्लिम बस्तियाँ अमेरिका में 'ब्लैक' जैसी अलग-थलग: शोध

01:00 pm Jan 26, 2024 | सत्य ब्यूरो

देश में खाई अमीरी-गरीबी की ही नहीं है। गहरी खाई दलित बस्तियों और आम बस्तियों के बीच भी है। मुस्लिम बस्तियों और आम बस्तियों के बीच भी ऐसी ही खाई है। यह खाई दरअसल इन बस्तियों तक सुविधाओं की पहुँच को लेकर है। ये बस्तियाँ आम या मुख्य बस्तियों से इसलिए अलग-थलग हो जाती हैं कि उसमें अधिकतर उन्हीं समुदायों के लोग रहते हैं। दलित बस्तियों में अधिकतर दलित और मुस्लिम बस्तियों में अधिकतर मुस्लिम। यह खाई ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में है। ऐसी बस्तियों में स्कूल जैसी सामान्य नागरिक सुविधाएँ भी पहुँच नहीं पाती हैं। यह बात डेवलपमेंट डाटा लैब के शोध में सामने आयी है।

डेवलपमेंट डाटा लैब ने 'भारत में आवासीय अलगाव और स्थानीय सार्वजनिक सेवाओं तक असमान पहुंच' नाम से रिपोर्ट तैयार की है। 15 लाख घरों के सर्वे को आधार बनाया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह मौजूदा स्थिति का शोध नहीं है और इसका आकलन दस साल पहले किया गया था। इसने कहा है कि 2011-13 में पूरे भारत को कवर करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पड़ोसी घरों के स्तर पर डेटा जुटाया गया।

इस शोध को तैयार करने वालों में डेवलपमेंट डाटा लैब के सह संस्थापक और इंपीरियल कॉलेज लंदन के प्रोफेसर सैम आशेर, सह संस्थापक और डार्टमाउथ कॉलेज के प्रोफेसर पॉल नोवोसाद, शोध सहयोगी कृतार्थ झा, शिकागो यूनवर्सिटी की फैकल्टी अंजली अदुकिया और ब्रैंडन जोल टैन शामिल हैं। 

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के गाँव ऐतिहासिक रूप से जाति के आधार पर अलग-अलग रहे हैं। हाशिये पर रहने वाले समूह गाँव के सामाजिक सर्कल और सुविधाओं से वंचित और बाहरी इलाकों में रहते रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह जांचने की कोशिश की गई कि क्या शहरों में अलग स्थिति है और क्या बाज़ार सामाजिक विभाजन को पाटता है?

शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी असमानता सूचकांक को जानने के लिए 15 लाख शहरी और ग्रामीण पड़ोसियों पर प्रशासनिक डेटा का इस्तेमाल किया गया। इसमें पाया गया कि किसी शहर के आस-पड़ोस में समान समूह के लोग रहते हैं। 

शोध में कहा गया है कि अनुसूचित जातियों यानी दलितों के लिए बस्तियाँ शहरों में भी गाँवों की तरह ही अलग-अलग हैं। मुसलमानों के लिए शहरों में तो ऐसा अलगाव और बदतर है।

शोध तैयार करने वालों में से एक पॉल नोवोसाद ने एक्स के थ्रेड में पोस्ट किया है कि 'अनुसूचित जाति और मुसलमान बस्तियाँ अमेरिकी शहरों में काले लोगों की तरह ही अलग अलग हैं।'

उन्होंने कहा है कि 'मुसलमानों के मुस्लिम पड़ोसी वाली बस्तियों में रहने की अधिक संभावना है। 26% शहरी मुसलमान ऐसी जगह पर रहते हैं जहाँ पड़ोसी 80% से ज़्यादा मुस्लिम रहते हैं। 17% शहरी एससी ऐसे पड़ोस में रहते हैं जहाँ 80% से ज़्यादा एससी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थिति ऐसी ही है।'

ऐसे इलाकों में सुविधाएँ कैसी हैं?

पॉल नोवोसाद ने कहा है, 'शहरों में सार्वजनिक सेवाएँ अनुसूचित जाति और मुसलमानों की बहुलता वाले इलाक़ों में मिलने की संभावना कम है। 100% मुस्लिम पड़ोसियों वाली बस्तियों में माध्यमिक विद्यालय होने की संभावना उन बस्तियों की तुलना में केवल आधी है जहाँ कोई मुस्लिम नहीं है।'

इसमें आगे कहा गया है, 'जब हम एससी को देखते हैं, तो मध्यम दर्जे की एससी पड़ोसियों वाली बस्तियाँ ठीक-ठाक हैं, लेकिन सबसे ज़्यादातर एससी परिवारों वाली बस्ती में माध्यमिक विद्यालय होने की संभावना कम रही।' उन्होंने कहा है कि एक ही शहर के भीतर एससी, मुस्लिम और आम पड़ोसियों वाली बस्तियों की तुलना की गई है।

उन्होंने कहा है, 'हमने सार्वजनिक सेवाओं- प्राथमिक विद्यालय, स्वास्थ्य क्लीनिक, पानी और बिजली के बुनियादी ढांचे, बंद जल निकासी-  की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए समान विश्लेषण किया।' उन्होंने आगे कहा है कि परिणाम वैसे ही आए। शहरों के भीतर अधिक एससी और मुस्लिम हिस्सेदारी वाली बस्तियों में सार्वजनिक सेवाएँ बहुत ख़राब हैं। 

रिपोर्ट के अनुसार पूरी तरह से अलग-थलग दलित और मुस्लिम इलाक़ों में बच्चों की स्थिति ज़्यादा ख़राब है। ऐसी बस्तियों वाले बच्चों की पढ़ाई आम बस्तियों की तुलना में पूरे एक साल से भी कम होती है। 17-18 वर्ष के बच्चों की कुल क़रीब 9-10 साल की पढ़ाई में पूरी दलित बस्तियों वाले बच्चों की पढ़ाई क़रीब 1.6 साल कम और पूरी मुस्लिम बस्तियों वाले बच्चों की पढ़ाई क़रीब 2.2 साल कम हो पाती है।

डेवलपमेंट डाटा लैब

पॉल नोवोसाद ने कहा है कि वे अनुसूचित जनजातियों का अध्ययन नहीं करते हैं, क्योंकि पेपर शहरों पर केंद्रित है, और अनुसूचित जनजातियों के केवल 4% सदस्य शहरों में रहते हैं। उन्होंने ओबीसी को लेकर कहा है, 'हमारे पास उपलब्ध आंकड़ों को देखते हुए ऐसे पड़ोस की पहचान करना संभव नहीं था जो मुख्य रूप से ओबीसी हैं।'