‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में ही ऊँची जाति के कुछ लोगों ने एक दलित उप-सरपंच को कथित रूप से पीट-पीट कर मार डाला। इससे पहले भी उन पर कई बार जानलेवा हमला हो चुका था और उन्होंने क़रीब दो हफ़्ते से पुलिस सुरक्षा के लिए आवेदन दिया हुआ था। परिजनों का आरोप है कि दलित के ग्राम पंचायत में लंबे समय से प्रतिनिधि के रूप में चुना जाना पसंद नहीं था। अक्सर ऐसी घटनाएँ आती रही हैं जिसमें सवर्णों के नल से पानी पीने के चलते पीटा गया, दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़ने से रोका गया, दलितों का घर जला दिया गया हो। ऐसी घटनाओं में आरोप यह लगते रहे हैं कि सर्वण दलितों को अपने बराबर नहीं देखना चाहते हैं।
ऐसी घटनाओं से एक बात तो साफ़ है कि समाज का एक तबक़ा सभी को बराबरी के हक़ को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। इसी कारण दलितों को पीट-पीट कर मार डालने तक की घटनाएँ होती रही हैं।
देश भर में दलितों पर हमले के मामले लगातार आते रहे हैं। ताज़ा मामला गुजरात में बोटाद ज़िले के रणपुर तालुका के जलिला गाँव का है। दलित उप-सरपंच मांजी सोलंकी अपनी मोटरसाइकिल से घर लौट रहे थे। मांजी के बेटे तुषार सोलंकी ने कहा कि क़रीब घर से डेढ़ किलोमीटर दूर एक कार ने उन्हें टक्कर मार दी। कार में सवार लोगों ने क्लब और लोहे के पाइप से उनकी पिटाई कर दी। अहमदाबाद के अस्पताल में उनकी मौत हो गई। पुलिस अधिकारियों ने कहा है कि अपराध की स्थिति देखकर लगता है कि पीड़ित का परिवार जो कह रहा है वह प्रथम दृष्टया सही है।
द इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के मुताबिक़, मांजी के बेटे तुषार ने भी कहा है, ‘पिछले 20 वर्षों से, मेरे परिवार के व्यक्ति गाँव के सरपंच चुने जा रहे हैं। फ़िलहाल मेरी माँ गीता सरपंच के रूप में काम कर रही हैं, जबकि मेरे पिता उप-सरपंच थे। 2010 से दरबार और मेरे पिता के बीच झगड़ा चल रहा था। दरबार (क्षत्रिय) इस तथ्य को बर्दाश्त नहीं कर सकता कि दलितों को सरपंच चुना जाता है।’
देश भर में दलितों पर अत्याचार
एक रिपोर्ट के अनुसार, यह सौराष्ट्र क्षेत्र में तीन महीने में तीसरी घटना है जब कथित रूप से क्षत्रियों द्वारा किसी दलित की हत्या कर दी गई हो। ऐसी घटनाएँ सिर्फ़ गुजरात में ही नहीं, बल्कि पूरे देश भर में होती हैं। 'दलित का घर जला दिया गया', 'दलित की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई', 'सवर्णों के नल से पानी पीने के चलते पीटा गया' और 'दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़ने से रोका गया' ऐसी ख़बरें हर दिन अख़बारों में छोटे से बड़े कॉलम में मिल जाएँगी।
एक सामाजिक अध्ययन में कहा गया है कि दलित अभी भी देश भर के गाँवों में कम से कम 46 तरह के बहिष्कारों का सामना करता है। जिसमें पानी लेने से लेकर मंदिरों में घुसने तक के मामले शामिल हैं। हाल ही में महाराष्ट्र के खैरलांजी, आंध्र प्रदेश के हैदराबाद, गुजरात के ऊना, उत्तर प्रदेश के हमीरपुर, राजस्थान के डेल्टा मेघवाल में ऐसे कई मामले हुए हैं जिसमें दलितों के साथ असमानता, अन्याय और भेदभाव वाला व्यवहार हुआ है।
रोहित वेमुला की आत्महत्या
दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएच.डी छात्र रोहित वेमुला ने 17 जनवरी, 2016 की रात फाँसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली। वह दलित समुदाय के थे। रोहित सहित विश्वविद्यालय के पाँच दलित छात्रों को हॉस्टल से निकाल दिया गया था। 25 साल के रोहित गुंटुर ज़िले के रहने वाले थे और विज्ञान तकनीक और सोशल स्टडीज़ में दो साल से पीएचडी कर रहे थे।
पिछले पाँच साल में दलितों की स्थिति बदतर हुई है। उन पर हमले बढ़े हैं, उन्हें विश्वविद्यालयों की नौकरियों में आरक्षण को विश्वविद्यालय स्तर से घटा कर विभागीय स्तर पर कर दी गयी जिससे दलितों में भी काफ़ी रोष है।
ऊना में दलितों को पीटा
ऊना तालुका के मोटा समधियाना गाँव में 10 जुलाई 2016 की रात एक मरी हुई गाय की खाल निकाल रहे दलितों को स्थानीय लोगों ने गोहत्या के आरोप में पकड़ लिया, उन्हें बाँधा और बुरी तरह पीटा। इस घटना ने पूरे देश में एक बहस को जन्म दिया।
एक भीमा कोरेगाँव का उदाहरण भी सामने है। दिसंबर 2017 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगाँव में दलितों पर हमले हुए, आगजनी और हिंसा हुई और पुलिस ने उन्हें ही गिरफ़्तार भी किया। इसके एक साल बाद जब उसी जगह पर दलितों के संगठन भीम आर्मी ने कार्यक्रम करना चाहा तो उसकी अनुमति नहीं दी गई और उसके नेता चंद्रशेखर ‘रावण’ को गिरफ़्तार कर लिया गया। इतना ही नहीं, पुलिस ने भीम आर्मी के कई कार्यकर्ताओं और नेताओं को हिरासत में भी लिया है।
दलित चेतना जाग रही है
दरअसल, अब दलित चेतना जाग रही है और समाज के लोग बड़ी भूमिका में आ रहे हैं तो सामंती विचार इसे सह नहीं पा रहा है। यह दलित चेतना में उभार यकायक नहीं है। सदियों से शोषित और प्रताड़ित समुदाय में जागरण हो रहा है और सवर्ण समाज इसको पचा नहीं पा रहा है।
बीते पाँच साल में इस समुदाय को पहले से अधिक निशाने पर लिया गया है, उन पर हमले पहले से ज़्यादा हुए हैं। इसकी वजह यह है कि एक ख़ास क़िस्म की शुद्धतावादी सोच देश पर हावी है, जिसमें न तो सबको साथ लेकर चलने की सोच है न ही दूसरों के लिए थोड़ी भी जगह देने की गुँजाइश। ऐसे में 'सबका साथ-सबका विकास' कैसे होगा