आज जबकि कोरोना अपने उत्ताप पर है, मुझे अपना जन्मदिन (22 मई) बेहद कचोट रहा है। कचोटे जाने की वजह है स्मृतियों में जन्म के छठे दिन मेरे 'महामारी' की चपेट में आ जाने की हौलनाक कथा जो माँ (अपने जीवन पर्यन्त) मेरे हर जन्मदिन पर सुनाती थीं। बाद के दिनों में, जबकि हमारे बेटों का कैशोर्य शुरू हो गया था (और दादी से दुलार की नूराकुश्ती उनका शगल बन चुका था) वह ज्यों ही अपना स्टीरियो टाइप शुरू करतीं, उनके नाती अंत तक का पूरा स्टोरी रिकॉर्ड बजा डालते थे।
माँ बताती थीं कि ज्यों ही उन्हें शक हुआ कि मेरे बार-बार होने वाले दस्त दरअसल डायरिया है, वह मुझे लेकर पिता के क्लीनिक की तरफ़ भागीं जो घर से ज़्यादा दूर नहीं था। आज की तरह उन दिनों सलाइन वॉटर की बोतल नहीं आती थीं। अगले 35 घंटे तक मेरे पिता और उनके सहायक इन्ट्राविनस सीरिंज से निरंतर मेरे शरीर में सलाइन वॉटर की सप्लाई करते रहे। माँ के पास उन पूरे 35 घंटों की विस्तृत दास्तान है जिसे वह हर बार पूरा-पूरा सुनातीं (पहले मुझे, फिर मेरी पत्नी को और बाद में अपने नातियों को) जिसका उपसंहार था कि 35 घंटे बाद जब मैं थोड़ा चैतन्य हुआ तो पिताजी ने मुस्कराकर पड़ोस वाली विद्या जीजी से (जो ताउम्र हमारी फ़ैमिली मेंबर की मानिंद रहीं) कहा ‘इन्हें (मां को) ले जाओ और चाय-वाय पिलाओ।’ माँ बमुश्किल वहाँ से हटीं। उनके गणित के मुताबिक़ आगे चलकर, मेरा पेट जो बार-बार गड़बड़ करता था, वह 6 दिन की उम्र में हुए उस डायरिया की बदौलत था। यह अलग बात है कि उनके नाती बहस में उनसे उलझ पड़ते ‘हमने तो देखा है कि पापा को कंकड़-पत्थर सब हज़म हो जाता है।’ माँ कभी अपने संस्थापनाओं से पीछे नहीं हटतीं ‘अरे जाओ, तुम क्या जानो तुमने अभी देखा ही क्या है’
अपने बचपन और लड़कपन तक, डायरिया के आतंक की मुझे ख़ूब याद है। आगरा के शाहगंज मोहल्ले में (सरकारी नॉर्मल स्कूल के मैदान के सामने) 'हैजे का अस्पताल' हुआ करता था। चुंगी (आगरा नगर महापालिका) का यह अस्पताल बच्चों की 3 बीमारियों (कॉलरा, डायरिया और डिप्थीरिया) की विशेषज्ञता वाला था जो 24 घंटे अपने मरीज़ों से जूझता रहता। अक्सर अपने-अपने मोहल्लों में हम लोग सुनते कि फलां रामदयाल के बेटे के उलटी- दस्त रुक नहीं रहे थे तो वह रात के दो बजे उसे लेकर हैजा वाले अस्पताल गया लेकिन डॉक्टरों की ढेर कोशिश के बाद भी बच्चे को बचाया नहीं जा सका, या कि ढिकां मोहसिन की चच्ची अपनी बेटी को लेकर तीन बजे रात को हैजे वाले अस्पताल भागी थी। उसके गले में जाला (डिप्थीरिया) पड़ गया था। सुबह तक बेटी में सुधार आया।
यह आज़ादी के बाद की सरकारी प्राथमिकताओं वाली ‘जन स्वास्थ्य’ नीतियों का बचा-खुचा स्वर्णकाल था। डॉक्टरों की आत्मा में तब भी ख़ुदा के भेजे फ़रिश्तों का वास बचा था और 'लेडी विद द लैंप' वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल के साथ नर्सों की रिश्तेदारी, नामालूम कैसे तब तक बरक़रार थी। अमीर और ग़रीब, सरकारी अस्पतालों में सब की देखभाल एक ही नज़र से होती थी। लोगों को भरोसा था कि अगर कहीं भगवान है तो सरकारी अस्पताल के स्टाफ़ क्वार्टरों की दक्खिनी साइड से चिपटे तालाबंद बंगले में, उसकी रिहाइश है। कोरोना काल में देशव्यापी स्तर पर भरभरा कर ढह जाने वाले हैरतअंगेज़ ‘पब्लिक हेल्थ सिस्टम’ की हक़ीक़त को अपनी पथराई आँखों से देखकर सहमी नयी पीढ़ी से उस स्वर्णकाल की चर्चा करो तो कहेंगे-काहे को सुबह-सुबह छोड़ रहे हो अंकल!
मेरे जन्म के समय डायरिया नवजात शिशुओं की भयानक बीमारी थी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बच्चों को गड़प कर जाने का इसका ग्राफ़ 42% का था। यानी 100 में 42 शिशु इसकी भेंट चढ़ जाते थे। इसी डर से माँ सहित दुनिया-जहाँ की हर माँ इसको 'महामारी' मानती थीं।
आज़ादी के बाद की कोशिशों से इसकी मृत्यु दर घटकर 22.5% पर आ गयी। बेशक 60-70 सालों में बदलाव आया है, लेकिन आज भी निमोनिया के बाद छोटे बच्चों की विश्व की दूसरे नम्बर की सर्वाधिक ख़तरनाक बीमारी का सरताज़ डायरिया को ही हासिल है। 'यूनिसेफ़’ के मुताबिक़ आज भी यह हर दिन (1 से 5 साल के बीच की उम्र वाले) 2195 बच्चों को निगल जाती है। यह आँकड़ा एड्स, मलेरिया और खसरा के संयुक्त आँकड़ों से भी ज़्यादा है और भयावह तसवीर पेश करता है।
डब्ल्यूएचओ की मानें तो आज भी पूरी दुनिया में डायरिया से होने वाली बच्चों की कुल मौतों का 42 प्रतिशत अकेले भारत और नाइजीरिया के हिस्से का है।
हर साल 2 लाख बच्चे निमोनिया, डायरिया के शिकार
यह सारी क़िस्सागोई बयान करने के लिए मैं यदि आज बचा हुआ हूँ तो अपनी माँ की बदौलत क्योंकि समय रहते मेरे डायरिया ग्रस्त हो जाने का उन्हें अहसास न हुआ होता और तुरंत मुझे गोद में लेकर वह पिता के क्लीनिक तक दौड़ न गयीं होतीं तो मेरा बच पाना नामुमकिन था। मेरा जीवन इसलिए शेष है क्योंकि पिता डॉक्टर थे और 35 घंटे तक वह और उनका क्लीनिक मुझे लेकर जूझते रहे थे। परन्तु क्या ऐसा सौभाग्य सभी बच्चों को हासिल है बच्चों की पहले और दूसरे नम्बर पर गिनी जाने वाली सिर्फ़ दो 'महामारियों' (निमोनिया और डायरिया) की स्थिति देखें तो पता चलता है कि हर साल 2 लाख बच्चों को ये दोनों बीमारियाँ अपनी भूख का हिस्सा बना लेती हैं यानी 100 में एक बच्चा अपनी 5 वर्ष की उम्र पूरी नहीं कर पाता। यद्यपि 'संयुक्त राष्ट्र संघ' ने यह लक्ष्य बनाया था कि सन 2025 तक वह इस मृत्यु दर को प्रति 1 हज़ार में 1 बच्चे तक ले आएगा लेकिन हाल ही में जारी 'कोविड-19 का बच्चों पर दुष्प्रभाव' नामक अपने दस्तावेज़ में उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि मौजूदा वैश्विक महामारी ने उन्हें उनके लक्ष्य से खासा दूर फेंक दिया है।
विश्व स्वस्थ्य संगठन ने पिछले साल ही दावा किया था कि सन 1990 की तुलना में सन 2018 तक आते-आते विभिन्न बीमारियों के कारण सारी दुनिया में होने वाली नवजात बच्चों की मृत्यु दर में कमी आई है।
इन 18 वर्षों में यह कमी 1 करोड़ 26 लाख प्रति वर्ष की तुलना में 53 लाख थी। यानी हर दिन 34 हज़ार के मुक़ाबले 15 हज़ार बच्चे ही काल के गाल में समा रहे थे और इस प्रगति को लेकर 'डब्ल्यूएचओ बेहद आशावादी था लेकिन कोरोना वायरस ने उसकी तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कोविड-19 की चपेट में समा जाने वाले लाखों बच्चों की बात दरकिनार उसकी 'धमक' से जिन बच्चों पर असर हो रहा है उनकी तादाद करोड़ों में पहुँचेगी।
करोड़ों बच्चों पर कुपोषण का ख़तरा
जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के हालिया अध्ययन में कहा गया है कि मौजूदा महीनों में 143 देशों के जो 36 करोड़ 85 लाख बच्चे स्कूल जाने से महरूम रह गए और जिन्हें 'मिड डे स्कूल मील' नहीं मिल पा रहा है, वे ज़बरदस्त कुपोषण का शिकार हैं और आने वाले दिनों में गंभीर बीमारियों की चपेट में आने को अभिशप्त हैं। यूएनओ महासचिव एंटोनिओ गुटेरेस ने गहरी चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि पहले ही (सन 2019 तक) जो 38 करोड़ 60 लाख बच्चे ‘अति ग़रीबी’ के शिकार थे, उस भीड़ में 4 करोड़ 20 लाख से लेकर 6 करोड़ 60 लाख नए बच्चे और भी शुमार हो जायेंगे और यह संख्या उनके बीच पनपने वाली घातक बीमारियों के आमंत्रण का एलान करती है।
समझ नहीं पाता कि लॉकडाउन के हंटर से ज़ख़्मी करोड़ों कामगारों का पलायन कब 'दि एन्ड' तक पहुँचेगा। कब इतिहासकार उनके इन उदास दिनों की निराश गाथाओं का इतिहास लिखेंगे कब सांख्यिकीकार भारत के करोड़ों ग़रीबों और मज़दूरों के सैकड़ों-सैकड़ों मील के विस्थापन से जुड़े हौलनाक क़िस्सों, इनकी पृष्ठभूमि में घिसते-पिस्ते उनके मासूम बच्चों के दुःख-दर्द और उनके बीमार हो जाने के आँकड़ों को दर्ज करेंगे!
पता नहीं जिनके स्कूल छूटे हैं, उनके जीवन में सरस्वती दोबारा दाखिल होंगी या नहीं। पता नहीं कोरोना की विभीषिका से त्रस्त होकर नए-नकोरे बनने वाले बाल मज़दूरों की ज़िंदगी में खेलता बचपन कभी लौटेगा या नहीं!
पता नहीं हाईवे पर सूटकेस का स्ट्रेचर बनाकर अपने नौनिहाल को लटकाकर घसीटती पैदल माँ दोबारा अपने बच्चे के लिए बिछौने का प्रबंध कर सकेगी कि नहीं! पता नहीं ऐसे दर्दनाक हादसे पर टीवी चैनल पर हंस कर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप ‘बचपन में हमारे पापा भी हमें सूटकेस पर बैठाया करते थे’ जैसी क्रूर ‘बाइट’ देने वाले संवेदनहीन कलेक्टर को समाज कभी सख़्त सज़ा देगा या नहीं! बीबी-बच्चों के साथ पैदल, साइकल पर, थ्री व्हीलर में, लॉरियों में, ट्रैक्टर और बसों के भीतर और छत पर तिलचट्टों की तरह लद-लद कर हज़ारों हज़ार किलोमीटर का सफर करके ज़िंदा या मुर्दा अपने गाँव-देहात पहुँचने वालों के दिन कब बहुरेंगे पता नहीं मासूम बच्चों की ज़िंदगी के ये दाग़ कभी मिटेंगे भी या नहीं! पता नहीं! पता नहीं!