कोरोना-संकट के कारण सबसे ज्यादा मुसीबत किसे उठानी पड़ी है मैं समझता हूं कि सबसे ज्यादा मुसीबत हमारे ग़रीब लोग झेल रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि कोरोना है ही अमीरों की बीमारी! अमीर लोगों की ही हैसियत है कि वे विदेशों से आते हैं और विदेशों में जाते हैं। इस बीमारी का आयात उन्होंने ही किया है। वे भारत लौटकर जिन-जिन लोगों के संपर्क में आते हैं, उन्हें भी वे बीमार करते चले जाते हैं।
क्या वजह है कि मुंबई, दिल्ली, जयपुर और इंदौर जैसे शहरों में कोरोना का प्रकोप सबसे ज्यादा है उसकी वजह यही है। लेकिन हमारी सरकार और हमारा रवैया क्या है ग़रीबों के प्रति हमारा रवैया मेहरबानी का है, कृपा का है, एहसान का है, दया का है। वरना क्या वजह है कि कोटा में फंसे हजारों प्रवासी छात्रों के लिए मप्र, उप्र, राजस्थान और हरियाणा जैसे प्रदेश विशेष बसें चला रहे हैं ताकि उन्हें उनके गांवों और शहरों तक निःशुल्क पहुंचाया जा सके। उनके खाने-पीने और सुरक्षा का भी सारा इंतजाम सरकारें कर रही हैं। केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय भी गुपचुप देख रहा है।
दूसरी तरफ देश के छोटे-बड़े शहरों की सीमाओं पर लाखों मजदूर, मजदूरनियां और उनके बच्चे हैं, जिनके घर पहुंचने का कोई इंतजाम नहीं है। लोग सैकड़ों मील पैदल या साइकिलों से अपने गांव पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं।
घर लौटना चाहते हैं मजदूर
जो लोग फंसे हुए हैं, उनके खाने-पीने और रहने का इंतजाम सरकारें जमकर कर रही हैं लेकिन फिर भी उनमें गहरी छटपटाहट भड़की हुई है। वे अपने घर लौटने के लिए इस कदर बेताब हैं कि एक-एक ट्रक में 75-75 लोग छिप-छिपाकर सैकड़ों मील की यात्रा कर रहे हैं। एक-एक सवारी 2-2 हजार रुपये दे रही है। ट्रक के ड्राइवर उनसे ऊपर का पैसा भी वसूल कर रहे हैं। ऐसे दो ट्रक कल गुड़गांव में पकड़े गए हैं।
मैं लॉकडाउन के पहले दिन से कह रहा हूं कि इन लाखों प्रवासी मजदूरों को उनके घर भेजने की व्यवस्था कीजिए। यदि ये लोग उसी समय चले जाते तो लॉकडाउन खुलने पर ये लोग अपने आप लौट आते। वे लोग गांवों में रहते हुए ऊब जाते। अब 3 मई के बाद वे लौटेंगे या नहीं, कुछ पता नहीं।
कोटा से लौटने वाले छात्रों में अभी तक एक भी कोरोना का रोगी नहीं निकला तो ये सब मजदूर कोरोना के संभावित रोगी क्यों मान लिए गए हैं क्योंकि ये ग़रीब हैं, बेजुबान हैं, गांवदी हैं जबकि कोटा के छात्र संपन्न वर्ग के हैं, लंबी जुबान वाले हैं और शहरी हैं। यही फर्क हमें अमेरिका में भी देखने को मिल रहा हे। वहां काले-अफ्रीकी, लातीनी और एशियाई मूल के नागरिकों की काफी उपेक्षा हो रही है।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)