कर्नाटक में दिए एक भाषण पर लोकसभा की सदस्यता गँवा बैठे राहुल गांधी क्या अदालत की शरण लेंगे? तत्काल ऐसा होता नहीं दिख रहा। तो क्या वह यह पूरा महीना निकल जाने देंगे और 2 साल की सज़ा कबूल कर जेल चले जाएंगे? फ़िलहाल यह कहना मुश्किल है। लेकिन जो फैसला शुक्रवार को आया, उस पर सोमवार तक अपील न करना बताता है कि कांग्रेस और टीम राहुल सूरत की चुनौती को अवसर में बदलने की रणनीति पर गंभीरता से विचार कर रही है। ज़ाहिर है, यह सारे पुल नष्ट कर, सारी नावें जलाकर नदी पार करने का दुस्साहसी विवेक ही कहला सकता है- यानी यह स्थिति कि या तो डूबना है या फिर पार कर जाना है। अब यह राजनीति है या रोमांटिसिज्म- यह आने वाले दिन बताएंगे।
दरअसल, इसमें संदेह नहीं कि राहुल और कांग्रेस के सामने उनकी सबसे मुश्किल चुनौतियों के दिन हैं। संसद में उनका लगातार घटता प्रतिनिधित्व इसका बस एक प्रमाण है। बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के जादू को काटने के लिए विपक्षी एकता के जिस नुस्खे का सहारा लेने की कोशिश चल रही है, वह अपरिहार्यत: सफल ही होगा, उसकी उम्मीद करने की बहुत ठोस वजहें नहीं हैं।
मगर कांग्रेस की असली चुनौती इतनी भर नहीं है। उसके सामने दरअसल एक राजनीतिक दल के रूप में खुद को पुनर्परिभाषित और नए ढंग से प्रस्तुत करने की चुनौती भी है। यह अनायास नहीं है कि आज की कांग्रेस के हाथ से स्वाधीनता आंदोलन की विरासत भी छिनती जा रही है। बीजेपी बहुत सुनियोजित ढंग से उन राष्ट्रीय प्रतीकों को आत्मसात करती जा रही है जिनका कभी विरोध करती थी और जिन पर देश अब भी भरोसा करता है। बीजेपी देश को यह समझाने में अगर कामयाब रही है कि भारतीय लोकतंत्र की बहुत सारी बुराइयों की जड़ कांग्रेस के भीतर रही तो यह बस बीजेपी के प्रचार की सफलता नहीं है, इसमें कांग्रेस की भूमिका भी रही है। संवैधानिक तंत्र के दुरुपयोग से लेकर राज्यपालों और आयोगों की इस्तेमाल तक की राजनीति वही है जो कल कांग्रेस करती थी और आज बीजेपी कर रही है।
कांग्रेस के सामने दूसरी और कहीं ज्यादा खतरनाक चुनौती उस सांप्रदायिकता का सामना करने की है जो कल तक बस राजनीति में थी लेकिन अब समाज में चली आई है।
भारतीय राष्ट्र राज्य को एक नए हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की बात जितना राजनीतिक प्रतिष्ठान नहीं कर रहा, उससे कहीं ज़्यादा वह विराट मध्यवर्ग कर रहा है जिसका देश के मौजूदा संसाधनों पर सर्वाधिक कब्ज़ा है। मध्यवर्गीय घरों के सोशल मीडिया समूह नफरत से भरे संदेशों से पटे पड़े मिलते हैं और जो आदमी सद्भाव की, भाईचारे की और धर्मनिरपेक्षता की बात करता है वह परिवारों में भी अकेला पड़ रहा है।
यह सांप्रदायिकता कल तक छुपी हुई थी, वह मुस्लिम तुष्टीकरण की दलील देती थी, अपनी सहिष्णुता का दावा करती थी और कहती थी कि हिंदू राष्ट्र में ही सब सुरक्षित हैं, लेकिन आज कहीं ज़्यादा खुलकर, लगभग पूरी बेशर्मी से, नफ़रत की राजनीति की वकालत कर रही है।
उसे गोरक्षा के नाम पर की जाने वाली मॉब लिंचिंग नहीं डराती है, उसे अंतरधार्मिक शादियों पर लव जेहाद के नाम पर चलाई जाने वाली पाबंदी परेशान नहीं करती है, उसे दलितों और पिछड़ों से छीने जाने वाले अवसर किसी नैतिक दुविधा में नहीं डालते, उसे कश्मीर या कहीं और मानवाधिकारों के दमन के लिए इतनी दलील पर्याप्त लगती है कि आतंकवाद और माओवाद से लड़ने के लिए यह हिंसा ज़रूरी है, उसे अपराध रोकने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ें बुरी नहीं लगतीं।
तो यह एक नया भारत है। इस भारत का पर्यावरण विषाक्त बनाया जा रहा है। इस नए भारत में पुरानी कांग्रेस धीरे-धीरे अछूत बनाई जा रही है। कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी क्या करें? क्या कुछ चोला बदल कर बीजेपी जैसे हो जाएं और नरेंद्र मोदी का जादू टूटने की प्रतीक्षा करें? या फिर वे मर-मिट कर भी पुराने भारत को जिलाने और बचाने का ज़रूरी दायित्व निभाएं? और इसके लिए कांग्रेस को भी बिल्कुल नया बना डाले राहुल गांधी ने जब कांग्रेस की तत्कालीन राजनीति से अलग हटकर भारत जोड़ो यात्रा शुरू की तो शायद इसका मक़सद यही था- देश के लोगों को भरोसा दिलाना कि यह देश कुछ लोगों की जागीर भर नहीं है- यह सब का है और इसमें सबके लिए बराबरी और सम्मान की जगह है।
लेकिन क्या मौजूदा माहौल में यह आदर्शवादी राजनीति चलेगी? राहुल अगर ये हवा बदलना चाहते हैं तो उन्हें एक पूरा तूफ़ान पैदा करना होगा।
यहां से उनकी और कांग्रेस की नई रणनीति की राह खुल सकती है। यह एहसास सबको है कि कांग्रेस को अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पानी होगी। लेकिन यह काम अदालतों के ज़रिए संसद सदस्यता वापस हासिल करने भर से नहीं होगा, इसकी लड़ाई बिल्कुल जमीन पर उतर कर लड़नी होगी। संभव है, यह 2024 तक न हो सके, लेकिन आने वाले वर्षों में भी संभव हुआ तो राहुल से ज्यादा देश के लिए शुभ होगा।
मगर फिर दोहराने की ज़रूरत है, यह जुआ है जिसमें काफी कुछ गंवाने का ख़तरा है और कई वर्षों के राजनीतिक वनवास का अंदेशा भी। यह कहा भी जा रहा है कि दो साल की सजा के बाद राहुल गांधी के चुनाव लड़ने पर भी कई साल तक प्रतिबंध लगाया जा सकता है। क्या राहुल चुनावी राजनीति से दूर रहकर बचे रह सकते हैं? क्या प्रियंका गांधी उनकी ओर से मोर्चा और मैदान संभाल सकती हैं?
इन सवालों के जवाब आसान नहीं है।
बीजेपी के साथ मौजूदा माहौल भी है, सत्ता द्वारा हासिल अकूत संसाधन भी, और एक विराट संगठन भी, जिसकी शाखाएं-प्रशाखाएं बेहद सक्रिय हैं। कांग्रेस को इस ओर भी ध्यान देना होगा। इन वर्षों में उसमें जितना वैचारिक ढीलापन आया है उससे कहीं ज्यादा सांगठनिक ढीलापन आया है। इन कमजोरियों को दूर किए बिना वह कुछ फौरी लड़ाइयाँ भले जीत ले, लेकिन सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति से निर्णायक संग्राम नहीं लड़ पाएगी।