दत्तात्रेय गोत्र और कौल ब्राह्मण जाति में जन्मे राहुल गाँधी! यह इक्कीसवीं सदी के एक बड़े युवा नेता का बायोडेटा है! ये युवा नेता सेकुलरवादियों का आख़िरी चिराग़ है!अब किसी ज्योतिषी से पूछने की क्या ज़रूरत! यह बायोडेटा ही सारी कुंडली है, सारा पोथी-पत्रा है, ख़ुद बता रहा है कि भारत का भविष्य क्या है!
मोहन भागवत ने 2013 में एक डेडलाइन दी थी। वह यह कि अगले 30 बरसों में भारत 'परम वैभव' पा लेगा। 'परम वैभव' यानी हिन्दू राष्ट्र। लगता है कि भागवत की भविष्यवाणी पूरी तरह ग़लत हो जायगी! भारत शायद उससे काफ़ी पहले ही हिन्दू राष्ट्र बन जाय! बन जाय? या बन चुका है?
क्या आपको नहीं लगता कि सेकुलर शब्द संविधान के अलावा अब पूरे राजनीतिक विमर्श में अछूत बन चुका है? सेकुलरवाद की राजनीति के तम्बू समेटे जा चुके हैं। मुसलमानों की बात अब कोई नहीं करता। हाँ मुसलमानों से बात कर लेते हैं चोरी-छिपे! और जब कमलनाथ के टेप आते हैं, तो मुँह चुराना ही पड़ता है।
राहुल की 'हिन्दू' छवि बनाना संघ की जीत है!
इसलिए योगी आदित्यनाथ ग़लत नहीं कहते कि राहुल का जनेऊ दिखा कर सनातनी हिन्दू दिखाने का प्रयास हमारी (यानी कि संघ परिवार की) वैचारिक विजय है। महज़ वैचारिक ही क्यों, यह आपकी बहुत बड़ी राजनीतिक विजय है योगी जी।
वोटों की लड़ाई में चाहे कोई हारे-जीते, सच यह है कि कांग्रेस राजनीतिक ज़मीन हार चुकी है। उसने मान लिया है कि अपने एजेंडे पर चल कर वह खड़ी भी नहीं रह सकती, भलाई इसी में है कि वह संघ के एजेंडे पर चलना शुरू कर दे।
राहुल गाँधी मन्दिर-मन्दिर घूम रहे हैं। वैसे कहने के वह अजमेर शरीफ़ भी चले जाते हैं। न भी जायें तो कोई हर्ज नहीं। मुसलमान उन्हें कभी साम्प्रदायिक दुराग्रही नहीं मानेंगे। क्योंकि वह हैं नहीं।
लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मुसलमान उन्हें क्या मानते हैं। फ़र्क़ इससे पड़ता है कि हिन्दू उन्हें क्या मानते हैं। फ़र्क़ इससे पड़ता है कि राहुल गाँधी के परनाना जवाहरलाल नेहरू को किसी ग़यासुद्दीन का वंशज बताने वाली व्हाट्सऐप की तोपों का मुँह मोड़ा जा सकता है या नहीं।
पिछले पाँच सालों से यह तोपें दनादन गोले दाग़ती रही हैं। लगातार। बिना रुके, बिना थके। काँग्रेस कभी इन हमलों का कोई जवाब नहीं दे पाई। इसलिए कि काँग्रेस तो वैचारिक धरातल बहुत पहले ही छोड़ चुकी है, इन्दिरा गाँधी के ज़माने से ही। तब से कांग्रेस ने राजनीति को महज़ वोटों की, सत्ता की लड़ाई बना लिया। विचारधारा की बात उसके बाद कांग्रेस के भीतर कब हुई? इसीलिए महात्मा गाँधी कांग्रेस दफ़्तर में टँगे फ़ोटो में सिमट गए। नेहरू तक को कांग्रेस ने जन्मदिन और पुण्यतिथि के अलावा कब याद किया?
कांग्रेस: न वैचारिक कार्यक्रम, न संगठन
कांग्रेस के पास कोई वैचारिक संगठन है क्या? कोई वैचारिक कार्यक्रम है क्या? पार्टी ने पिछले दस-बीस-तीस सालों में ऐसा कोई कार्यक्रम कभी किया, कोई मुहिम चलायी, जिससे देश के लोगों को किसी न किसी रूप में उससे जोड़ा जा सके? कांग्रेस ने इतने बरसों में कभी कुछ ऐसा किया कि पिछले तीस-चालीस साल में देश में पैदा हुई पीढ़ियों को इतिहास का कुछ अ ब स द जानने को मिले?
नहीं न। क्यों? इसलिए कि कांग्रेसियों को कभी लगा ही नहीं, महसूस ही नहीं हुआ कि मनुष्य ही नहीं, सारे जीवित मस्तिष्कों को किसी न किसी विचार की ज़रूरत होती है। और यह भी कि हर विचार की एक उम्र होती है। एक विचार आता है, दूसरा जाता है। विचार का कोई स्थायी भाव नहीं है। हो ही नहीं सकता।
इसलिए कांग्रेस को भविष्य दिखना बन्द हो गया!
कांग्रेस में विचार होना बन्द हो गया, इसलिए उसे भविष्य दिखना भी बन्द हो गया। क्योंकि विचार पहले आता है, भविष्य उसके बाद ही बनता है। सोच कर देखिए कि आज से हज़ारों साल पहले मनुष्य के मन में तन ढकने का विचार नहीं आया होता, तो क्या दुनिया आज ऐसी होती, जैसी है!
कोई विचार नहीं होगा तो कोई भविष्य नहीं होगा! कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट यही है। उसके पास विचार नहीं है, इसीलिए भविष्य उसके हाथ से फिसलता जा रहा है। जबकि उधर, कांग्रेस के विरुद्ध एक संगठन एक विचार लेकर चला। हिन्दू राष्ट्र का विचार।
शुरू-शुरू में सभी ने इसे एक सनकी आइडिया माना। इस विचार के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सरदार पटेल तक से लताड़ मिली, जिनकी सबसे ऊँची मूर्ति लगा कर संघ परिजन अघाते थक नहीं रहे हैं।
संघ फैलता रहा, उसका विचार भी फैलता रहा
लेकिन संघ फैलता रहा, उसका विचार भी फैलता रहा। हालाँकि बहुत धीरे-धीरे। फिर आयी 1966 की गोपाष्टमी, जब गोरक्षा को लेकर जनसंघ (आज की बीजेपी) समेत कई हिन्दू संगठनों ने संसद भवन को घेरा। सैकड़ों या शायद हज़ारों लोग मारे गये।
संघ आगे बढ़ता रहा। गाँवों में भी और देश के तमाम हिस्सों में संघ की कोई पहुँच नहीं थी। 1983 में तब इस्लाम और ईसाइयत के ख़िलाफ़ हिन्दुओं को 'संगठित' करने के लिए हिन्दू तीर्थों को जोड़ते हुए एकात्मता यात्रा शुरू हुई। और संघ दूर-दूर तक घरों में पहुँच गया।
कैसे पर्वत-सा विशाल हो गयाहिन्दू राष्ट्र का विचार
इसके बाद राम जन्मभूमि आन्दोलन को गरमाया गया, गाँव-गाँव में राम शिलाएँ पूजी गयीं, आडवाणी की रथयात्रा हुई और फिर उसके बाद जो कुछ हुआ और कैसे बीजेपी एक देशव्यापी राजनीतिक ताक़त बन कर उभरी और कैसे हिन्दुत्व और हिन्दुत्ववादी तत्वों को देश में कई सरकारों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन मिलता गया, और कैसे घर-वापसी, लव जिहाद, मुसलमानों की आबादी, गोरक्षा से लेकर श्मशान और क़ब्रिस्तान के जुमले उछले, सरकारी ख़र्चों पर दीपोत्सव हुए, नामों को बदलने का अन्तहीन सिलसिला शुरू हुआ और सेकुलरवाद कैसे एक कँटीले झाड़-झंखाड़ में तब्दील हो गया, यह सब जानते हैं। यानी राई-सा शुरू हुआ हिन्दू राष्ट्र का एक विचार एक विशाल पर्वत बन कर हमारे सामने आ खड़ा हुआ।
और इन चालीस-पैंतालीस बरसों में कांग्रेस क्या करती रही? सत्ता और गठबन्धनों के शॉर्ट कट जोड़-घटावों के अलावा कुछ भी नहीं।
कांग्रेस ने संघ को दी 'सरकारी' स्वीकृति!
कांग्रेस में पनप गयी विचारशून्यता और शॉर्ट कट संस्कृति का ही यह नतीजा था कि हिन्दू वोट पाने की हड़बड़ी में राजीव गाँधी सरकार ने ख़ुद 1989 में मन्दिर का शिलान्यास कराया। यानी एजेंडा संघ का, काम कांग्रेस ने किया! हालाँकि इससे कांग्रेस को हिन्दू वोटों का कोई लाभ नहीं हुआ। लाभ अगर किसी को हुआ तो वह संघ के हिन्दुत्व के एजेंडे को ही हुआ। संघ को एक नयी स्वीकृति मिली। सरकारी स्वीकृति!
अब राहुल गाँधी भी वही कर रहे हैं। एजेंडा संघ परिवार तय कर रहा है कि सोनिया, राहुल और कांग्रेस हिन्दू विरोधी हैं, मुसलिम समर्थक हैं, तो सोनिया गाँधी तिलक लगा कर, राहुल गाँधी भगवा पहन कर, जनेऊ दिखा कर, ख़ुद को शिव भक्त बोल कर, गोत्र बता कर अपने को हिन्दू साबित करने में लगे हैं।
संघ ने अन्तत: कांग्रेस को धकेल-धकेल कर उस कोने तक हाँक दिया है, जहाँ उसके पास 'हिन्दुओं की शुभचिन्तक' पार्टी का लेबल चिपका लेने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है।
पूरा हुआ संघ के एजेंडे का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र
तो संघ के एजेंडे का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र पूरा हो गया! कांग्रेस अपने को थोड़ा-थोड़ा हिन्दू दिखाने लगी है। अगले कुछ सालों में वह ज़्यादा हिन्दू हो जाएगी क्योंकि सवर्णों से लेकर पिछड़ो और दलितों तक एक व्यापक हिन्दू पहचान को आकार देने में संघ अब पूरी तरह सफल हो चुका है। इन हिन्दू वोटों के बिना क्या कांग्रेस का कोई अस्तित्व रह सकता है?
एक व्यापक हिन्दू ध्रुवीकरण की पक्की इंजीनियरिंग संघ खोज चुका है और उसके लिए पूरा तंत्र भी खड़ा कर चुका है। कोई बहुत बड़ा बवंडर, बहुत बड़ा भूकम्प ही संघ के इस तंत्र को नेस्तनाबूद कर सकता है। फ़िलहाल तो इसकी सम्भावना नहीं दिखती। इसलिए चुनावों में कौन जीतता है, बीजेपी या कांग्रेस, संघ को इससे कोई लेना-देना नहीं। कांग्रेस अगर संघ के एजेंडे पर मजबूरी में ही सही, मंथर गति से भी चलती रहे तो भी संघ अपनी सफलता से बहुत संतुष्ट और प्रसन्न रहेगा।
यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि किसी लोकसभा चुनाव में बीजेपी की करारी हार भी अगर हो गयी, तो ऐसा भ्रम नहीं पालना चाहिए कि सेकुलर एजेंडा वापस लौट पायेगा। ख़याली पुलाव मत पकाइए। नया नैरेटिव लिखा जा चुका है और देश फ़िलहाल उसी से हाँका जायगा। संघ को चुनावों से नहीं, बल्कि तभी पराजित किया जा सकता है, जब उसके विरुद्ध कोई नया विचार खड़ा हो। वह विचार कहाँ है? किसके पास है?
क्षेत्रीय दलों के पास अपने सीमित क्षेत्रीय विचार हैं, वह चुनावी गणित में संघ को कुछ दिन भले रोक लें, उनके पास संघ से वैचारिक युद्ध कर पाने के कोई उपकरण नहीं हैं। एक कांग्रेस थी, जिसकी जड़ें देश भर में थीं, लेकिन उसके पास न कोई विचार है, न संकल्प है, बस शॉर्ट कट है। और दुर्भाग्य से यह शॉर्ट कट नागपुर ही पहुँचता है!
बीबीसी से साभार। यह लेख पहले बीबीसी में प्रकाशित हुआ था। मूल लेख का लिंक ।
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