ओबीसी राजनीति को लेकर एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर देशव्यापी जाति जनगणना कराने की मांग की है। कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने भी आज कर्नाटक की रैली में पीएम मोदी को चुनौती देते हुए कहा कि अगर केंद्र सरकार में दम है तो वो जाति जनगणा का डेटा सार्वजनिक करे। इन दोनों बयानों का मतलब एक ही है कि कांग्रेस अब खुलकर जाति जनगणना के पक्ष में खड़ी हो गई है। मंडल राजनीति के बहाने ओबीसी राजनीति ने कांग्रेस को यूपी-बिहार में हाशिए पर पहुंचा दिया, अब उसी के सहारे कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल सत्तारूढ़ बीजेपी को चुनौती देना चाहते हैं। बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने पहले से ही जाति जनगणना शुरू करा दी है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी इस मुद्दे पर बैकफुट पर है। वो जाति जनगणना नहीं चाहती है। विपक्ष ने उसकी इस कमजोर नस को पकड़ लिया है।
बीजेपी ने अभी तक बड़ी सफाई से कांग्रेस को "ओबीसी विरोधी" करार देते हुए उसकी तस्वीर पेश की है। लेकिन कांग्रेस ने अब जो मांग शुरू कर दी है, उसने बीजेपी को परेशान कर दिया है। बाकी विपक्ष भी इस मुद्दे पर हमलावर है।
जाति जनगणना के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (आरेजडी) और जेडीयू शुरू से साथ हैं। सपा प्रमुख ने यही मांग यूपी में भी की है। लेकिन कांग्रेस का इस मुद्दे पर इन लोगों के साथ खड़े होना बहुत महत्वपूर्ण है। राष्ट्रव्यापी अंतिम जाति जनगणना 1931 में की गई थी और सभी सरकारी नीतियां इन पुराने आंकड़ों पर आधारित हैं। मंडल कमीशन ने कहा था देश में 52 फीसदी ओबीसी जातियां हैं। लालू और मुलायम की सफलता ने इसे सही भी साबित किया।
कांग्रेस के अंदर राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल जो खुद ओबीसी हैं, ने कांग्रेस आलाकमान से जाति जनगणना की मांग के अभियान में शामिल होने को कहा था। हाल ही में जब तमिलनाडु के सीएम स्टालिन ने चेन्नई में सम्मेलन बुलाया था तो वहां इस पर सभी विपक्षी दलों के बीच सहमति बनी थी। उसके बाद अब खड़गे का पत्र और राहुल गांधी का बयान सामने आया है।
120 सीटों का गणित
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ओबीसी राजनीति नहीं करती रही है। दरअसल, किसी समय तो ओबीसी उसका वोट बैंक हुआ करते था। लेकिन मंडल आंदोलन के बाद जब लालू प्रसाद यादव बिहार में और यूपी में मुलायम सिंह यादव बड़े ओबीसी नेता के रूप में उभरे तो उससे सीधा नुकसान कांग्रेस का हुआ। दोनों राज्यों में लोकसभा की 120 सीटें हैं। मंडल आंदोलन के बाद इन 120 सीटों में से ज्यादातर लालू और मुलायम की पार्टियों या अन्य विपक्षी दलों ने कांग्रेस से हथिया लीं। अब कांग्रेस उसी सधी हुई रणनीति के तहत उनमें से कुछ सीटों पर वापसी करना चाहती है या कम से कम विपक्ष के पाले में ले जाने की योजना बना रही है। यूपी-बिहार की 120 सीटें अगर बीजेपी हार जाती है तो केंद्र की सत्ता में उसकी वापसी में मुश्किलें आ सकती हैं। 2014 और 2019 के आम चुनाव में देखा गया कि बीजेपी ने इन 120 सीटों में जबरदस्त सेंध लगाई थी। 2019 लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में बीजेपी को 22 सीटें मिली थीं। वहीं उसी साल यूपी से उसे 62 सीटें मिलीं थीं। यानी 120 सीटों में से 84 बीजेपी ले गई थी।
ओबीसी राजनीति को लेकर कांग्रेस का इतिहास बेहतर रहा है। उत्तर प्रदेश में स्व. एनडी तिवारी के नेतृत्व में बाद में एमपी के मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह के नेतृत्व में ओबीसी आरक्षण को धार दी गई थी। हालांकि शुरुआत वीपी सिंह की सरकार ने अगस्त 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके की थी। बाद में वीपी सिंह की सरकार गिर गई। बाद में केंद्रीय मंत्री के रूप में कांग्रेस के अर्जुन सिंह ने सबसे पहले उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू कराया। इसे उस समय मंडल 2.0 कहा गया था।
क्या हुआ तेरा वादा
कांग्रेस ने ओबीसी के लिए जो काम किए हैं, उसके पास बताने को बहुत कुछ है। दूसरी ओर ओबीसी समर्थक नीतियों पर भाजपा का रिकॉर्ड निराशाजनक है। बीजेपी ओबीसी कल्याण के लिए एक मंत्रालय बनाने की मांग को आज तक पूरा नहीं कर पाई है। आज भी मोदी सरकार में सचिव स्तर का कोई भी अधिकारी ओबीसी समुदाय से नहीं है। पिछले आठ वर्षों में केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी उम्मीदवार का प्रवेश भी काफी हद तक प्रतिबंधित रहा है। अब तक 32.5 लाख सरकारी कर्मचारियों में से केवल सात लाख ओबीसी हैं और इनमें से 6.4 लाख ग्रुप सी में हैं। यह आंकड़ा मोदी सरकार की ओबीसी नीति की पोल खोलता है।
हिन्दुत्व के एजेंडे की काटः चेन्नई में कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने यह माना था कि जाति जनगणना की मांग और बीजेपी ने किस तरह ओबीसी से अपने वादे पूरे नहीं किए, इसे बताकर उसके हिन्दुत्व के एजेंडे की काट की जा सकती है। स्टालिन ने तो कहा भी था कि सोशल जस्टिस यानी सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन के जरिए हम बीजेपी को हरा सकते हैं। चूंकि लोकसभा चुनाव महज एक साल दूर हैं, इसलिए जातिगत जनगणना के लिए केंद्र पर दबाव बनाने का इससे अच्छा मौका कोई और नहीं हो सकता। स्टालिन के सम्मेलन में भाग लेने वाले नेताओं का कहना था कि आम चुनाव के लिए इससे अच्छी राजनीतिक रणनीति और कोई नहीं हो सकती।
स्टालिन ने बताया कि कैसे डीएमके ने तमिलनाडु में 2019 में बीजेपी को इसी मुद्दे पर चुनौती दी थी और बीजेपी एक भी सीट नहीं जीत पाई।
बीजेपी का डर क्या है
जाति जनगणना का सबसे बड़ा पक्ष यह है कि यह समाज की विभिन्न जातियों के बारे में एक डेटा देगा कि किसी जाति या उपजाति के लोग ज्यादा हैं। डेटा आने के बाद नए जातिगत गठबंधन बनेंगे जो धार्मिक ध्रुवीकरण को कम कर देंगे या खत्म कर देंगे। यह भाजपा के लिए नुकसानदेह होगा।राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि जातिगत जनगणना बीजेपी जैसी राष्ट्रवादी पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकती है, जो परंपरागत रूप से सभी जातियों को सिर्फ हिंदू यूनिट के रूप में देखती है। लेकिन जब जातियों के डेटा होंगे तो वो जातियां अपने हिसाब से अपनी राजनीति को शक्ल देंगी और बीजेपी उससे कमजोर होगी।