सरकार पर असहमति व विरोध की आवाज़ को दबाने और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किए जाने के लगने वाले आरोपों के बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने बहुत बड़ी बात कही है। उन्होंने क़ानूनी विद्वान जूलियस स्टोन के कथन का ज़िक्र करते हुए कहा, 'हर कुछ वर्षों में एक बार शासक को बदलने का अधिकार, अपने आप में तानाशाही के ख़िलाफ़ सुरक्षा की गारंटी नहीं होनी चाहिए'। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि चुनाव, दिन-प्रतिदिन के राजनीतिक संवाद, आलोचना और विरोध की आवाज़ 'लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग' हैं।
मुख्य न्यायाधीश की यह टिप्पणी तब आई है जब हाल के वर्षों में सरकार पर आरोप लगते रहे हैं कि असहमति और विरोध की आवाज़ को दबाया जा रहा है। इसके लिए यह तर्क दिया जाता है कि मीडिया की रिपोर्टिंग पर एफ़आईआर और यूएपीए व एनएसए के तहत मुक़दमे दर्ज करने के अंधाधुंध मामले आए हैं। इसमें विनोद दुआ और सिद्दीक़ कप्पन जैसे पत्रकार भी शामिल हैं। किसान आंदोलन जैसे प्रदर्शन को ख़त्म करने के लिए सरकार द्वारा सख़्ती किए जाने के आरोप लगते रहे हैं। सामाजिक मुद्दे उठाने वाले और सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने और राजद्रोह जैसे मुक़दमे थोपे जाने के आरोप भी लगते रहे हैं। जैसे कि भीमा कोरेगाँव मामले से जुड़े कार्यकर्ता के मामले में आरोप लगाए जाते रहे हैं। विपक्षी दल के नेताओं पर विरोध की भावना से कार्रवाई के आरोप तो लगते ही रहे हैं।
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना बुधवार को प्रलीन ट्रस्ट द्वारा वर्चुअल मोड के माध्यम से आयोजित जस्टिस पीडी देसाई मेमोरियल ट्रस्ट के 17वें व्याख्यान में बोल रहे थे। इस व्याख्यान का विषय 'क़ानून का शासन' था।
सीजेआई रमन्ना ने कहा कि आज़ादी के बाद से 17 आम चुनावों में जनता ने अपने कर्तव्यों को उचित रूप से निभाया है और अब उन लोगों की बारी है जो राज्य के प्रमुख अंगों का प्रबंधन कर रहे हैं कि वे इस पर विचार करें कि क्या वे संवैधानिक जनादेश पर खरा उतर रहे हैं।
मुख्य न्यायाधीश की यह टिप्पणी साफ़ तौर पर आज के राजनीतिक हालात पर टिप्पणी लगती है।
उन्होंने कहा, 'यह हमेशा अच्छी तरह से माना गया है कि शासक को बदलने का अधिकार, हर कुछ वर्षों में अपने आप में तानाशाही के ख़िलाफ़ सुरक्षा की गारंटी नहीं होना चाहिए... यह विचार कि आख़िरकार लोग ही संप्रभु हैं, यह मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के विचार में परिलक्षित होना चाहिए। तर्कसंगत और उचित सार्वजनिक संवाद को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए यह ठीक से काम करने वाले लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है।'
उन्होंने क़ानून के शासन के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बरकरार रखने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष तौर पर न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। उन्होंने आगे कहा कि यदि ऐसा हुआ तो क़ानून का शासन सिर्फ़ एक दिखावा रह जाएगा।
इसके साथ ही उन्होंने जजों को भी आगाह किया। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को जनमत की भावनात्मक आवेश से भी प्रभावित नहीं होना चाहिए, जिसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से बढ़ाया जा रहा है। सीजेआई ने कहा कि न्यायाधीशों को इस तथ्य के प्रति सचेत रहना होगा कि इस प्रकार बढ़ा हुआ शोर ज़रूरी नहीं है कि यह बताए कि सही क्या है और बहुसंख्यक किस पर विश्वास करते हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया के नये टूल के पास किसी मुद्दे को बढ़ाने की काफ़ी ज़्यादा क्षमता है लेकिन वह सही और ग़लत या वास्तविक और फर्जी में फर्क पहचानने में सक्षम नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि इसी कारण मीडिया ट्रायल से प्रभावित होकर फ़ैसले नहीं लिए जा सकते हैं।
उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद से 70 से अधिक साल के बाद जब 'पूरी दुनिया कोविड -19 के रूप में एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रही है, हमें निश्चित रूप से ठहरकर ख़ुद से पूछना होगा कि हम हमारे सभी लोगों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए किस हद तक क़ानून के शासन का इस्तेमाल कर पाए हैं।