कल मुतरेजा दोपहर में ही टपक पड़ा। सिनेमा का मैटिनी शो देखकर लौटा था। आते ही बड़ी-बड़ी बातें फेंकने लगा। इतिहास का ज्ञान देने लगा। वह भी समकालीन राजनीति का इतिहास। जिसका चश्मदीद मैं खुद को मानता हूँ। मुतरेजा इंदिरा गांधी पर बहुत तमतमाया हुआ था। मैंने पूछा- सिनेमा देखकर लोग खुश होते हैं, तुम इतना झल्लाए हुए क्यों हो। वह बोला- सर एक बार आप भी ये फिल्म देखिए, आपका भी खून खौल उठेगा। जिस इतिहास को आजतक छिपाया गया वो फिल्म में दिखाया गया है। मैं भी सोच में पड़ गया कि ऐसी कौन सी फिल्म है जिसने तीन घंटे में मुतरेजा जैसी जड़-बुद्धि को भी इतिहासकार बना दिया। पूछा तो बोला- सर कंगना रनौत की फिल्म ‘इमरजेंसी’ देखी। मैंने कहा – मुतरेजा, ज्ञान किताबों से मिलता है और सिनेमा से प्रायःमनोरंजन। फिल्में इतिहास और यथार्थ पर भी होती हैं। हालांकि आजकल कुछ परम विद्वान सिनेमा के ज़रिए अपना इच्छित इतिहास लिख रहे हैं। इस तरह न तो वो सिनेमा बना पा रहे और न इतिहास।
एक तरफ़ रोमिला थापर और आरएस शर्मा थे जिन्होंने इतिहास को वाम मार्ग पर ढकेल दिया। दूसरी तरफ़ पुरुषोत्तम नागेश ओक (पीएन ओक) जैसे शूरमा हुए जो इतिहास को दख्खिन की ओर ले गए। और अब कंगना रानौत नाम की नई इतिहासकार ने जन्म लिया है। तुम तो उल्टी गंगा बहा रहे हो मुतरेजा। तुम सिनेमा से ज्ञान लेकर आ गए और अब अपने फालतू के ज्ञान से मेरा मनोरंजन कर रहे हो। मेरे पास और भी काम हैं। तुम जाओ और मुझे अकेला छोड़ दो। मुतरेजा अपनी उजबकई में गम्भीर बात कह गया- “सर एकांत चाहिए तो सिनेमाहॉल से अच्छी कोई जगह नहीं। वहां मेरे जैसे बस दो-चार लोग ही थे। वो भी शायद इतिहास सीखने आए थे। हमारे अलावा वहां कोई नहीं था। हॉल में बिल्कुल शांति थी। तो आराम से जाइए- कैरेमलाइज़्ड पॉपकॉर्न पर निर्मला जी ने जीएसटी ज्यादा लगा दिया है इसलिए नमकीन पॉपकॉर्न खरीदिए और मजे से फिल्म देखकर इमरजेंसी का इतिहास सीखिए। कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा।” मैं समझ गया कि मुतरेजा का कंगनाकरण हो चुका है और कंगना मुतरेजत्व को प्राप्त हो चुकी हैं।
मुतरेजा कंगना का फैन है। मुझे कंगना रनौत के इतिहासबोध की ज़्यादा जानकारी नहीं है। बस इतना जानता हूँ कि कंगना सुभाष चंद्र बोस को देश का पहला प्रधानमंत्री बताती हैं। 1947 में देश की आजादी उन्हें भीख लगती है। इन बयानों के बाद कंगना को अभिनेत्री या नेत्री तो मान सकता हूं, इतिहासकार क़तई नहीं। कंगना इंदिरा गांधी की हत्या के दो साल बाद पैदा हुईं और इमरजेंसी के बारह साल बाद। उम्मीद है कि इंदिरा जी की शख्सियत और इमरजेंसी के दौर की कहानी उन्होंने किताबों में पढ़ी होगी। पर उन्हें सुनकर तो लिख लोढा पढ़ पत्थर का अहसास होता है। मेरी नज़र में इमरजेंसी पर फिल्में उस दौर के इतिहास के साथ न्याय नहीं कर सकतीं। 21 महीने की कहानी को ढाई तीन घंटे में समेट पाना बहुत मुश्किल है। इमरजेंसी से ठीक पहले मुझे 1974 में बनारस में जेपी के जुलूस के आगे बैनर लेकर चलने का भी सौभाग्य मिला था। यह बात दूसरी है कि बारह बरस के मेरे किशोर दिमाग के ऊपर से सम्पूर्ण क्रांति चली जाती थी। इमरजेंसी को लोग सिर्फ राजनैतिक चश्मे से देखते हैं। मुझे लगता है कि इमरजेंसी को सामाजिक नज़रिए से भी देखा जाना चाहिए। ये इमरजेंसी का 50वां साल है। सोचिए मौलिक अधिकारों के बिना समाज की स्थिति क्या होगी।
मैंने मुतरेजा से कहा, ‘मुझे कंगना पर भरोसा नहीं पर इस फ़िल्म में ऐतिहासिक ग़लती इसलिए नहीं होगी क्योंकि इस फ़िल्म के ऐतिहासिक सलाहकार मेरे मित्र जेपी शुक्ला हैं। उन्होंने बहुत मेहनत की है इस फ़िल्म के ऐतिहासिक सन्दर्भों पर। हालाँकि फ़िल्म मुँह के बल गिर गयी। बॉक्स ऑफ़िस पर फ़ेल रही है। अब पंडित जी का पैसा मिलेगा या नहीं मुझे पता नहीं। पर पंडित जेपी शुक्ला लखनऊ में मेरे सबसे क़रीबी मित्र थे। ‘हिन्दू’ अख़बार के स्पेशल कॉरेस्पॉन्डेंट थे। खुद सनातनी हिंदू। स्टेट गेस्ट हाउस के बग़ल में ऑफ़िसर्स हॉस्टल में रहते थे। पंडित जी विद्वान आदमी थे। चेन्नई से अख़बार छपता था इसलिए दोपहर में अपनी ख़बर लिख शाम को मेरे दफ़्तर आ जाते थे। करियर की शुरुआत पीटीआई से की थी इसलिए कॉपी बुक स्टाइल के पुराने स्कूल के पत्रकार थे। उनका अध्ययन गहरा था। सुल्तानपुर और फैजाबाद की सीमा पर मझुई नदी, जिसका पौराणिक नाम मंजूघोषा है, के किनारे के रहने वाले पंडित जी के अध्ययन का विस्तार इतिहास पुराण से लेकर समलैंगिकता की शास्त्रीय परम्परा तक है। शुक्ला जी पूजा पाठी ब्राह्मण थे। पंडित जी के तीन बच्चे थे। ऑफिसर्स हॉस्टल में ड्राइंग रूम के अलावा एक ही बेडरूम होता था। उनकी आदत थी रात को नहाने की (क्रिया के पश्चात)। पंडित जी जाड़े की कड़कड़ाती रात में भी एक, दो, तीन बजे नहाते थे। मेरे पास गाड़ी थी तो पंडित अक्सर मेरे साथ ही कवरेज के लिए निकलते और रात की मुश्किलों का बखान करते। बाद में मैं मुख्यमंत्री मुलायमसिंह जी से शुक्ला जी को लेकर मिला। मुलायम सिंह जी ने शुक्ला जी की समस्या समझी और उन्हें दो बेडरूम वाला घर आवंटित कराया। यही पंडित जेपी शुक्ला ‘इमरजेंसी’ फ़िल्म के इतिहास, भाषा और फिल्म में इस्तेमाल होने वाली प्रापर्टी के सलाहकार हैं। इसलिए मुतरेजा फ़िल्म कोई ऐतिहासिक चूक नहीं होगी।
पर इमरजेंसी पर अपनी समझ फ़र्स्ट हैण्ड है। असली फ़िल्म अब भी ज़ेहन में चलती है। तब देश और राजनीति पर थोड़ी-थोड़ी समझ विकसित हो रही थी। देश में बवंडर मचा हुआ था। राजनैतिक हालत बिगड़ रहे थे। इन्दिरा गाँधी की सत्ता ख़तरे में थी। मैं नौवीं से दसवीं जमात में गया ही था कि देश में इमरजेंसी लगी। तब तक मुझे इमरजेंसी की भयावहता का अन्दाज नहीं था। 26 जून का मनहूस सबेरा था। उदास और डरावना। रात में इमरजेंसी लग चुकी थी। दिल्ली में बड़े नेताओं की गिरफ़्तारियाँ भी हो गयी थीं। दिल्ली के अख़बारों ने तो एडिशन रोककर यह ख़बर ले ली पर बनारस के सुबह के अख़बारों में यह ख़बर नहीं छपी थी। रेडियो मौन था। आज अख़बार के अलावा बनारस से एक और अख़बार था जनवार्ता। तब जागरण बनारस तक पहुँचा नहीं था। जनवार्ता को जेपी आन्दोलन का अख़बार कहा जाता था। सुबह- सुबह जनवार्ता के सम्पादक ईश्वर देव मिश्र का फ़ोन पिता जी के लिए आया। फ़ोन सुनते ही पिता जी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें थी। उस समय मेरे मोहल्ले में सिर्फ़ मेरे यहां ही फ़ोन होता था। उसका नंबर था 5574। पिता जी ने हमें बताया देश में इमरजेंसी लग गयी है। मई में ही मैं नवीं कक्षा से दसवीं में गया था। इमरजेंसी के नाम पर अस्पताल की इमरजेंसी जानता था। समझ नहीं पाया कि इमरजेंसी क्या है। और कैसे लगती है। वैसे भी उस वक़्त बच्चों में ‘एक्सपोज़र’ कम होता था।
पिताजी जेपी की संघर्ष वाहिनी के सह-संयोजक थे। कुछ दिन पहले ही बेनियाबाग में जेपी की विशाल सभा हुई थी। मैं जेपी की बेनियाबाग़ वाली सभा से पहले निकले जुलूस में भी शामिल था। बैनर भी उठा के चला पर मेरे बैनर पर लिखा नारा उस वक़्त मेरे समझ से परे था। बाक़ी बैनरों पर तो “जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जायगा। या डायरेक्ट एक्शन वाले नारे थे। पर मेरे बैनर पर लिखा था- “हमें सत्ता नहीं, व्यवस्था परिवर्तन चाहिए”। यह नारा नहीं विचार था जो मेरे गले नहीं उतर रहा था। इसलिए मैं जेपी आन्दोलन और देश की स्थिति से तो वाक़िफ़ था। पर इमरजेंसी की भयावहता से परिचित नहीं था।
जुलूस के आगे-आगे एक जीप चल रही थी जिस पर संतोष भारतीय जेपी आन्दोलन का उत्साह गीत गा रहे थे “जय प्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है, उठो जवानों तुम्हें जगाने क्रांति द्वार पर आयी है”।
बहरहाल पिता जी के पास फ़ोन इसलिए आया था कि जनवार्ता अख़बार का दस बजे विशेष संस्करण छपना था और उसमें उनकी कार्टून कविता संकटमोचन जानी थी। जनवार्ता बनारस का दैनिक अख़बार था। सन् 1970 में बनारस के कुछ मित्रों ने मिलकर सहकारिता के आधार पर यह दैनिक पत्र निकाला था। उसके संपादक मंडल में उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकार ईश्वरचन्द्र सिन्हा, श्यामा प्रसाद शुक्ल ‘प्रदीप’, ईश्वर देव मिश्र, धर्मशील चतुर्वेदी, और मेरे पिताजी थे।
इस अख़बार के एडिट पेज पर हर रोज़ पिताजी एक कविता लिखते थे। पॉंच-छ: लाईन की। इसे आप ‘खबरदार कविता’ या कार्टून कविता भी कह सकते हैं। जिसके तहत उस रोज की किसी खबर या वक्तव्य पर सार्थक व्यंग्य प्रधान टिप्पणी होती थी। पिता जी ‘संकटमोचन’ छद्म नाम से लिखते थे। रोज लगातार रविवार को छोड़ कर। आपातकाल के समय को छोड़कर लगातार तेईस वर्षों तक वे लिखते गए। जिन्हें संदर्भों के बिना नहीं पढ़ा जा सकता। ऐसी कोई सात हज़ार कविताएँ होंगी। यह मैं इसलिए बता रहा हूँ कि कैसे साहित्य अपने युग का दस्तावेज होता है। कैसे उस वक्त की कविताओं में उस समाज की घुटन और बगावत दर्ज है। चाहे वो संकटमोचन हो। धर्मवीर भारती की मुनादी हो। बाबा नागार्जुन की इन्दु जी हो। दिनकर की सिंहासन ख़ाली करो हो या दुष्यन्त की कविताएँ। हालाँकि, दुष्यंत ने इमरजेंसी कुछ ही महीनों तक देखी। पर उनकी कविताएँ इमरजेंसी के संत्रास और अत्याचार की दस्तावेज हैं।
जैसे ही घर में हमें पिता जी से पता चला इमरजेंसी लगी है। हम रेडियो की ओर दौड़े। तब वह सुबह के बाद सूचना का इकलौता साधन हुआ करता था। पर यह क्या। ‘ये आकाशवाणी है’ के बाद समाचार वाचक की जगह इन्दिरा जी की आवाज़ थी। उनका देश को सम्बोधन चल रहा था। वो बता रही थीं कि देश में राष्ट्रपति ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की है। सारे नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं। क्योंकि आंतरिक अशांति की आशंका थी। देश में कुछ अराजक तत्व सुरक्षाबलों को बग़ावत के लिए भड़का रहे थे। उनका इशारा एकदिन पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश जी की रैली की तरफ़ था। अबतक हम मामला और उसकी गम्भीरता को समझ चुके थे कि नागरिक अधिकारों का गला घोंटा गया है और लोकतंत्र अंधे कुएँ की ओर धकेल दिया गया है।
दरअसल, इमरजेंसी की आहट देश में बारह जून से ही सुनाई देने लगी थी। जिस रोज इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजनारायण की याचिका पर प्रधानमंत्री इन्दिरागाँधी का चुनाव रद्द कर दिया था। और इसी रोज गुजरात विधानसभा के चुनावों के नतीजे आए जिसमें कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई। देश की राजनीति ने पलटी मारी। सत्ता से कांग्रेस के बेदख़ली की शुरुआत हुई। प्रधानमंत्री रहते इन्दिरा गांधी का चुनाव हाईकोर्ट ने रद्द किया। छह साल तक उनके चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी लगाई। आरोप था चुनाव में सरकारी मशीनरी के बेजा इस्तेमाल का। अदालत में उन्हें हराया था बनारस के जुझारू समाजवादी नेता राजनारायण ने। वे मेरे पिता जी के मित्र थे। राज्यसभा में जनता की सोच बताने के लिए उनकी कई कविताएँ भी उन्होंने पढ़ी थीं।
पिता जी ने हमें समझाया कि इमरजेंसी लोकतांत्रिक इतिहास का काला पन्ना है। अब जुबान पर डाका डाला जाएगा। क़लम कैद हो जाएगी। संकट मोचन छपेगा या नहीं, यह सवाल था। उस रोज़ पूर्वान्ह में ‘जनवार्त्ता’ विशेष संस्करण निकाला। जो दोपहर ग्यारह बजे तक बाज़ार में आ गया। उसमें यह कविता छपी-
कौन जाने हमारी कलम,
कल से स्वच्छंद न रह जाए।
हमारी जुबान बंद हो जाए,
क्योंकि लोकतंत्र भस्म हो रहा है।
उसकी राख को नमस्कार,
चींटी के निकलते पांख को नमस्कार।
प्रजातंत्र के भटके राही को सलाम,
उगती हुई तानाशाही को सलाम।
देश में तानाशाही चस्पा हो गई। लोकतंत्र नज़रबंद हो गया। सेंसरशिप लागू हुई। अख़बारों के दफ्तर में सरकारी अफ़सर ख़बरों को मंज़ूरी देता। पत्रकारिता बंधक बना ली गई।
26 जून को आसमान में बादल थे। दूसरे रोज़ यानी 27 जून के अख़बार के लिए पिता जी ने मौसम की ओर संकेत करते हुए यह संकटमोचन लिखा।
मौसम की आंखों में नमी हो गई है,
लगता है कोई गमी हो गई है।
मेरी टेबुल पर पड़ी,
संविधान की पुस्तक से,
बहुत सारे पन्नों की कमी हो गई है।
सेंसर की सख्त नज़र के नीचे से यह रचना होशियारी से सरक आई और 27 जून के अंक में प्रकाशित हुई। सेंसर के दफ्तर में कोहराम मचा। बनारस में पत्रसूचना कार्यालय के प्रमुख शम्भूनाथ मिश्र थे। वे फ़िल्म अभिनेता संजय मिश्र और मेरे जनसत्ताई साथी सुमित मिश्र के पिता थे। मिश्र जी की सूचना आई पंडित जी दबाव बहुत है। छोड़ दीजिए संकटमोचन को। सूची बन रही है। पर पिता जी ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया। दूसरे रोज फिर अधरों पर अंगुली धरे हुए एक अजीब चुप्पी थी। इस सन्नाटे को तोड़ते कवि ने लिखा-
शोर मत मचाइए,
चुपचाप बगल से गुजर जाइए,
यह मत देखिए,
कि यहां क्या हो रहा है,
यह अस्पताल का,
इमरजेंसी वार्ड है,
यहां प्रजातंत्र सो रहा है।
इस कविता में जनभावनाओं के साथ जनाक्रोश प्रकट हो रहा था। इसलिए यह कविता सेंसर ने जब्त कर ली और अख़बार को कड़ी चेतावनी भी मिली। लखनऊ में राज्य सरकार के सूचना विभाग में ठाकुर प्रसाद सिंह थे उनका भीसंदेश आ चुका था। अगले अंक के लिए एक दूसरी युक्ति निकाली गई। पुराने कवियों की पंक्तियों की तलाश शुरू हुई। अगले अंक संकटमोचन में श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियों का सहारा लिया गया। पहले दो पंक्तियां सुभद्रा कुमारी जी और अंतिम दो पंक्तियां इसमें अपनी तरफ़ से जोड़ी गईं थीं-
‘भूषण अथवा कविचंद नहीं,
बिजली भर दे वह छंद नहीं,
है, कलम बंधी स्वच्छंद नहीं
फिर हमें बताओ कौन हंत?
होगा इस गति का कहां अंत?’
इसके बाद तो कवि की गिरफ्तारी का बाकायदा फरमान जारी किया जाने वाला था। धरपकड़ हो इससे पहले अपनी पारिवारिक मजबूरियों के चलते संकटमोचन को समर्पण करना पड़ा। शायद उनके सामने हम दो भाइयों और बहनों की सूरतें रही होंगी कि जेल गए तो उनका क्या होगा। उन्होंने कलम रख दी। पर ग्लानि और पीड़ा से आहत संकटमोचन ने अपनी वेदना फिर भी लिख डाली और इसी के बाद संकट मोचन स्थगित हो गया।
हम एक लचीली डाल हैं,
जिसे जिस ओर चाहो उस ओर झुका लो,
पर जिसे टूटना कतई पसंद नहीं।
आज उसी डाल में कांटे उग गए हैं,
जो हमारे चारों ओर छाए हैं
उन्हीं के बीच खिलकर
हम अपनी गंध खुद-ब-खुद पी रहे हैं।
शानदार मौतों के साए में
बेहयाई की जिंदगी जी रहे हैं।
किन्तु भीतर-ही-भीतर,
हमारी चिंतना टूटती है और भी टूटेगी।
हम एक कमान से बन जाएंगे।
हमारी अस्मिता बाण- सी छूटेगी।
वह घड़ी इनक़लाब की होगी
अंधेर की घाटी से निकले
नए धधकते आफताब की होगी।
आखिर इंकलाब हुआ। 18 जनवरी 1977 में आपातकाल का अँधेरा छंटा। 20 जनवरी 77 से संकटमोचन फिर शुरू हुआ। चुनाव हुआ। तानाशाही ताक़तों को भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। कुर्सियां ज्यों-की-त्यों थीं, मूर्तियां बदल गईं। उन मूर्तियों को आगाह करते हुए आपातकाल के ख़त्म होते ही लिखा गया।
ये सारे के सारे गुर्गे
ऐसे हैं मुर्गे
जो आपको घेरे रहेंगे
और यही कहेंगे
कि हमारे ही बोलने से बिहान होता है
कुर्सियाँ मिलती हैं
आदमी महान होता है
इन गुर्गों को पहचानते रहना
निहायत ज़रूरी है
पर इनसे घिर जाना
कुर्सी की अपनी मज़बूरी है।
इमरजेंसी भले 26 जून 75 को लगी पर भूमिका सात आठ महीने से बन रही थी।
रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता तो उस आन्दोलन का थीम सॉंग ही थी।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
4 नवम्बर 74 को जेपी ने गांधी मैदान पटना में एक रैली की। रैली पर पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज हुआ। जेपी घायल हुए। नानाजी देशमुख का कूल्हा टूटा। अखबारों में धक्का खाकर नीचे गिरे हुए बूढ़े जेपी, उनपर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जेपी और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ाकर चलते हुए जेपी की तस्वीरें छपीं। 9 नवम्बर को धर्मवीर भारती ने बेहद ग़ुस्से में यह कविता मुनादी लिखी।
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का।।।
हर खासो-आम को आगह किया जाता है।
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें,
गिरा लें खिड़कियों के परदे,
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें,
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में,
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
भारती जी ने यह कविता बम्बई में लिखी। पर बिजनौर में बैठे दुष्यन्त भी यही सोच रहे थे। उस माहौल का सजीव बखान।
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।
पटना में बैठे बाबा नागार्जुन इन्दिरा जी के मंशा ताड़ गए थे। संजय गांधी केउद्भव पर उन्होंने लिखा।
इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
आपातकाल की बर्बरता को समझने के लिए उस वक्त का साहित्य पढ़ा जाना चाहिए। फिल्म तो मनोरंजन है। कवि भवानी प्रसाद मिश्र तो आपातकाल को समर्पित हर रोज़ तीन कविताएँ लिखते थे। उनकी किताब *त्रिकाल संध्या* ऐसी कविताओं का संकलन है जिन कविताओं में युगबोध है। आपको आपातकाल का चारण साहित्य भी मिलेगा। इतिहास में उसकी गिनती नहीं होती। उस वक्त भी विनोबा भावे जैसे लोग इसे अनुशासन पर्व बता इन्दिरा गॉंधी की चाटुकारिता ही कर रहे थे।
इस इमरजेंसी में ही अपने जीवन का लोकतंत्र आगे बढ़ रहा था। हम दसवीं पासकर सीधे विश्वविद्यालय में दाखिल हुए, पीयूसी के ज़रिए। यूनिवर्सिटी में भी डरा सहमा माहौल था। छात्रसंघ के अध्यक्ष मोहन प्रकाश थे (आजकल कॉंग्रेस महासचिव), उपाध्यक्ष थी अंजना प्रकाश और महामंत्री भरत सिंह (बाद में बलिया से सॉंसद) थे। सब भूमिगत थे। कुलपति कालू लाल श्रीमाली का जबरदस्त आतंक था। पीयूसी में अपने बैच में हिन्दी पढ़ने वाले हम दो विद्यार्थी थे। अध्यापक तिवारी जी का कहना था कि कम से कम पॉंच छात्र होंगे तभी पढ़ाउँगा। इसलिए वे क्लास नहीं लेते थे। यह देख दूसरा साथी भी भाग गया। मैं अकेला रह गया। कोई शिकायत भी नहीं हो सकती थी। इमरजेंसी थी। जिंदगी अनिश्चितताओं से भरी हुई थी। हर बीतता क्षण एक नए अनिश्चित को जन्म दिए जा रहा था।
मुतरेजा को लगा कि कहाँ 2-3 घंटे की फिल्म की वकालत करने में एक पूरा महाकाव्य छेड़ दिया है। बोला, आप फिल्म को हलके में मत लीजिए। और कंगना को तो हलके में हरगिज नहीं। बॉलीवुड वाले भी उनको हलके में नहीं ले पाते। पत्रकार, नेता, अभिनेता, निर्देशक, राजे-महाराजे, कोई भी कंगना को हल्के में नहीं ले सकता। मैंने कहा, मुतरेजा, कैसी बातें कर रहे हो। ऐसा लग रहा है जैसे तुम कंगना रनौत का नहीं, इंदिरा गांधी का बखान कर रहे हो। देखो, फिल्म एक बहुत प्रभावी लेकिन सीमित माध्यम है। क्योंकि उसकी एक समय सीमा है। बहुत सारे पहलू, बहुत सारे नायक, बहुत सारी बातें, बहुत सारी अवस्था, ये सब दिखाने के क्रम में सिनेमा तो बन जाता है लेकिन गहराई नहीं पाती। लगता है कि कुछ छुआ और प्रणय पूर्व ही हम रिक्त होकर नए दृश्य में चले गए।
दूसरी समस्या यह है कि शुक्ला जी जैसे लोगों से इतिहास को जानने के बाद भी ज़रूरी नहीं है कि फिल्म को इमरजेंसी का प्रकटीकरण मान ही लिया जाए। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इतिहास को जानने की और बताने की बेचैनी अलग होती है। वो इतिहास के शरबत में रंग कम घोलती है।
आजकल इतिहास को लेकर जिस तरह का सिनेमा या बातें हम लोग सुनते, देखते हैं, वो धारा की तरह समग्र नहीं हैं, सुविधाओं और विचारधाराओं के किनारों पर रुके हुए पानी की तरह कीच और गंध ज्यादा दे रहे हैं। विचारधारा का स्वार्थ भी उतना बुरा नहीं होता जितना कि निजी स्वार्थ। विचारधारा का स्वार्थ फिर भी समष्टिगत होता है। निजी स्वार्थ तो बहुत भारी हो जाता है। इंदिरा जी के साथ यही हुआ। लेकिन इंदिरा की कहानी बताने की कोशिश कहीं किसी को इंदिरा ही तो नहीं बना दे रही, ये बहुत ज़रूरी है समझना।
मुतरेजा अब आवेश की जगह खिसियाहट में दाखिल हो चुका था। उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे जो बिस्किट का पैकेट उसने पूरा खा लिया है, वो दरअसल, इंसान के लिए था ही नहीं। बोला, तो फिर क्या करूं। आपकी तरह इमरजेंसी नहीं देखी, तो क्या ये इमरजेंसी भी न देखूं। मैंने मुतरेजा को देखे बिना कहा, बिल्कुल देखो। इतिहास को जानना तुम्हारा अधिकार भी है। इमरजेंसी जैसी कहानी बहुत ज़रूरी है। उसे जानना ही चाहिए। लेकिन इतिहास को जानने के लिए , इमरजेंसी को जानने के लिए बस एक फिल्म ज़रिया नहीं हो सकती। आपातकाल पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। बहुत से लोग अभी भी हैं जिन्होंने वो दौर देखा और दिखाया है। उन सबसे इसको जानने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से तुम फिल्म का भी सही आकलन कर सकोगे, इंदिरा जी का भी, इमरजेंसी का भी और कंगना का भी। ऐसे एक दिन सिनेमा देखकर अकबका कर घूमना और अति उत्साही हो जाना ठीक नहीं है…
मुतरेजा का फ़ोन बजा। उसका चेहरा बात करते-करते ही मुरझाने लगा। मैंने पूछा सब ठीक तो है न मुतरेजा? बोला, इमरजेंसी है सर। कल से गीजर काम नहीं कर रहा है। सर्दी जबरदस्त है। आज भी बनवा नहीं पाया। लगता है आज घर की इंदिरा मेरी सिनेमा की खुमारी के सारे कंगन उतार देंगी।
(हेमंत शर्मा के फ़ेसबुक पेज से साभार)