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मोदी-योगी में खटपट के बाद बसपा अचानक बड़ी खिलाड़ी कैसे बन गई?

मोदी-योगी में खटपट के बाद बसपा अचानक बड़ी खिलाड़ी कैसे बन गई?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के संघर्ष से लगभग बाहर दिख रही बसपा अचानक बड़ी खिलाड़ी बनकर उभरी है। ऐसा कैसे हो गया वह भी तब जब हाल में मोदी और योगी के बीच कुछ खटपट होने की ख़बरें आई हैं?

पहली कड़ी - योगी से निपटने का क्या कोई ‘मास्टर प्लान’ मोदी के पास है?

पिछले दो दशक में नरेंद्र मोदी देश की सियासत में सबसे मज़बूत खिलाड़ी साबित हुए हैं। गुजरात के तीन बार मुख्यमंत्री और फिर सीधे देश की गद्दी हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सत्ता विरोधी लहर के बावजूद पिछले लोकसभा चुनाव से भी बड़ी जीत हासिल की। अपनी कार्यशैली और नीतियों के कारण मोदी की बहुत तीखी आलोचना होती रही है। फिर भी सत्ता पर उनकी पकड़ कभी ढीली नहीं हुई। कारपोरेट मीडिया के सहारे वे अपनी छवि को निरंतर चमकाते रहे। पार्टी पर भी उन्होंने वर्चस्व कायम कर लिया। नरेंद्र मोदी और बीजेपी लगभग पर्याय बन गए। लेकिन पिछले छह महीने से योगी आदित्यनाथ लगातार नरेंद्र मोदी को शह दे रहे हैं। तमाम प्रयास के बावजूद मोदी योगी को हटाने या कमजोर करने में नाकाम रहे हैं।

तब क्या यह मान लिया जाए कि बीजेपी में अब नरेंद्र मोदी का वर्चस्व टूट रहा है? मोदी यह भी जान चुके हैं कि योगी को सीधे घेरकर चित्त करना आसान नहीं है। अरविंद शर्मा के मार्फत योगी की घेराबंदी करने में नाकाम रहे नरेंद्र मोदी कहीं अब प्लान-बी की तैयारी तो नहीं कर रहे हैं? शतरंज की इस बिसात पर तिरछी मार करने वाला ऊँट को आगे किया जा सकता है। मोदी द्वारा खेली जाने वाली इस बाजी में ऊँट की जगह 'हाथी' ले सकता है!

पिछले पंद्रह दिनों के घटनाक्रम से ऐसे संकेत मिल रहे हैं। फ़रवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव के संघर्ष से लगभग बाहर दिख रही बसपा अचानक बड़ी खिलाड़ी बनकर उभरी है। मीडिया की बहसें मायावती और बसपा की राजनीति पर केंद्रित हो गई हैं। बसपा को मुख्य मुक़ाबले में पेश किया जा रहा है। संभवतया पहली बार यूपी की राजनीति में ब्राह्मण एजेंडा सैट किया जा रहा है। योगी सरकार से ब्राह्मणों की नाराज़गी और बसपा के ब्राह्मण सम्मेलनों को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। ऐसे में मुक़ाबला त्रिकोणीय लगने लगा है। 

अपने अंतर्विरोधों के कारण केवल एक जाति जाटव तक सिमट चुकी बसपा आज मीडिया विमर्श से लेकर गाँव कस्बों में लगने वाली चौपालों की बहस के केंद्र में आ गई है। इसका कारण मायावती का कोई आंदोलन या बहुजन विमर्श नहीं, बल्कि ब्राह्मण सम्मेलन हैं। माना जाता है कि यूपी में ब्राह्मणों का दूसरा विकल्प बसपा हो सकती है। इसलिए नाराज़ ब्राह्मणों को रिझाने के लिए बसपा ने अपनी वैचारिकी को सिर के बल खड़ा कर दिया है।

इन दिनों ब्राह्मण वोटों की प्रत्याशा में बसपा राजनीति का नया मुहावरा गढ़ रही है। बाबा साहब आंबेडकर की विचारधारा और कांशीराम की विरासत वाली बसपा का चाल और चरित्र बिल्कुल जुदा हो गये हैं। योगी आदित्यनाथ से नाराज़ ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए बसपा प्रबुद्ध सम्मेलन कर रही है। 

पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में राम की नगरी अयोध्या में 23 जुलाई को पहला ब्राह्मण सम्मेलन किया गया। इसमें जय श्रीराम और जय परशुराम के नारे लगाए गए। आने वाले दिनों में काशी, मथुरा और चित्रकूट जैसे हिंदू धार्मिक स्थानों पर ब्राह्मण सम्मेलन प्रस्तावित हैं।

पहले परशुराम की भव्य मूर्ति लगाने का एलान, अब हिन्दू धार्मिक स्थलों पर होने वाले ब्राह्मण सम्मेलन और उनमें श्रीराम का जयघोष कई सवाल पैदा करते हैं। बसपा जय भीम से जय श्रीराम पर क्योंकर आ गई? क्या यह पार्टी का बौद्धिक दिवालियापन है? क्या ब्राह्मण वोटों की होड़ में मायावती अपने वैचारिक रास्ते से पूरी तरह भटक चुकी हैं? लेकिन बिना किसी महत्वपूर्ण कारण के मायावती और बसपा का यह विचलन संभव नहीं है। वैचारिक यू-टर्न क्या किसी रणनीति का हिस्सा है? क्या यूपी में कोई नई राजनीतिक बिसात बिछाई जा रही है। दरअसल, यह क़दम इंद्रप्रस्थ में लिखी गई यूपी चुनाव की पटकथा का एक हिस्सा लगता है। गोया, एक कुशल खिलाड़ी द्वारा बिछाई गई शतरंज की इस बिसात में मायावती वजीर हैं। खिलाड़ी एक चाल से अपने तमाम प्रतिद्वंद्वियों को मात देना चाहता है। एक तीर से कई शिकार किए जा रहे हैं।

 - Satya Hindi

फ़ोटो साभार: फ़ेसबुक/सतीश चंद्र मिश्रा

2007 में बहुजन से सर्वजन पर पहुँची बसपा गोया आज हिंदुत्व की राह पर निकल पड़ी है। अयोध्या, काशी, मथुरा में ब्राह्मण सम्मेलन और जय श्रीराम के नारों से लगता है कि जैसे हिंदुत्ववादियों को आश्वस्त किया जा रहा है कि यह एजेंडा जारी रहेगा। अयोध्या के प्रबुद्ध सम्मेलन में सतीश चंद्र मिश्रा ने कहा कि ब्राह्मण और दलित मिलकर बसपा की सरकार बना सकते हैं। ग़ौरतलब है कि सतीश मिश्रा ने मुसलमानों का कोई ज़िक्र नहीं किया। दरअसल, हिंदुत्व की राजनीति के कारण ब्राह्मणों की मुसलमानों से सबसे अधिक दूरी बन गई है। ऐतिहासिक रूप से भी ब्राह्मण अपनी मान्यताओं के कारण अन्य जातियों की अपेक्षा मुसलिम समाज से ज़्यादा परहेज करता रहा है। सांप्रदायिक भावना के जोर में ब्राह्मण मुस्लिम आधार वाली पार्टी को वोट नहीं करना चाहता। यही कारण है कि सतीश मिश्रा ने मुस्लिम वोटों का ज़िक्र तक नहीं किया। 

ग़ौरतलब है कि ब्राह्मण वोटों और उनके प्रचार से बसपा को सम्मानजनक सीटें मिल सकती हैं। इससे सीधे बीजेपी को नुक़सान होगा। क्या यह योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व को मात देने की चाल है? आख़िर योगी की पराजय से किसे फायदा हो सकता है? किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में अंक गणित के हिसाब से तीसरे स्थान पर आने वाली बसपा को बीजेपी समर्थन कर सकती है। बीजेपी मायावती को मुख्यमंत्री बना सकती है। अब सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी बसपा का समर्थन करके मायावती को क्यों मज़बूत करेंगे? आख़िर बीजेपी मायावती की ताजपोशी क्यों करना चाहेगी? दरअसल, नरेंद्र मोदी मायावती के मार्फत योगी आदित्यनाथ की चुनौती को ध्वस्त कर सकते हैं।

नरेंद्र मोदी के सामने एक चुनौती कांग्रेस पार्टी भी है। यूपी में पिछले तीन दशक से हाशिए पर खड़ी कांग्रेस का नाम अब लोगों की जबान पर चढ़ने लगा है। यूपी में प्रियंका गांधी के आने और मोदी-योगी की असफलता से निराश लोग भविष्य में कांग्रेस को विकल्प के रूप में देख रहे हैं।

यह भी संभव है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी विरोधी मतदाता बड़े पैमाने पर कांग्रेस की ओर लौट जाएँ। कांग्रेस में सबसे पहले लौटने वाले दलित हो सकते हैं। ग़ैर जाटव दलित 2014 से बीजेपी के साथ जुड़ा है। लेकिन अब यह तबक़ा बीजेपी से निराश ही नहीं, बल्कि नाराज़ भी है। यह मतदाता भविष्य में कांग्रेस के साथ जा सकता है। दलितों में 55 फ़ीसदी जाटव बिरादरी का वोट है। जाटव अभी बसपा के साथ है। लेकिन कभी समूचा दलित कांग्रेस का वोट हुआ करता था। अगर यूपी में बसपा कमज़ोर होती है तो जाहिर तौर पर जाटव भी कांग्रेस की ओर रुख कर सकता है। इसलिए नरेंद्र मोदी यूपी में बसपा को ज़िंदा रखना चाहते हैं। इस लिहाज से भी मायावती का समर्थन मोदी के लिए फायदेमंद हो सकता है।

वीडियो चर्चा में देखिए, योगी यूपी में बीजेपी के लिए सीएम का चेहरा क्यों नहीं?

मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर नरेंद्र मोदी एक साथ दोनों प्रतिद्वंद्वियों को मात दे सकते हैं। एक तरफ़ यूपी में कांग्रेस के खड़े होने की संभावना ध्वस्त होगी और दूसरी तरफ़ योगी की चुनौती भी समाप्त होगी। योगी के नेतृत्व में चुनाव मैदान में जाने वाली बीजेपी की पराजय से योगी के बगावत की गुंजाइश भी ख़त्म हो जाएगी। इससे योगी का राजनीतिक कद भी घट जाएगा। बिना सामने से लड़े योगी को चित्त करने का यह बेहतरीन फ़ॉर्मूला हो सकता है। साथ ही नरेंद्र मोदी को एक नया साथी भी मिल जाएगा। 2024 में ज़रूरत होने पर नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने के लिए बसपा का सहयोग मिल सकता है। इसलिए यूपी का चुनाव महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि बेहद दिलचस्प भी होने जा रहा है।

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