यूपी का चुनाव दिलचस्प मोड़ पर आ गया है। टीवी चैनलों के सर्वे और चौपाल-चौराहों की बातचीत में बीजेपी और सपा के बीच होने वाला सीधा मुकाबला, अब त्रिकोणीय होता हुआ दिखने लगा है। मायावती के दुरुस्त सामाजिक समीकरण और मजबूत प्रत्याशियों के चयन के कारण बसपा चुनावी लड़ाई में मजबूत दावेदार बनकर उभर रही है। सवाल उठता है कि बसपा अचानक लड़ाई में क्योंकर दिखने लगी है? इसकी पड़ताल करने से पहले यह समझना जरूरी है कि बसपा अब तक चुनावी विमर्श से बाहर क्यों थी?
दरअसल, यह बीजेपी की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। बीजेपी-आरएसएस के कार्यकर्ताओं और उनके समर्थक मीडिया चैनलों ने सपा और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला होने का परसेप्शन खड़ा किया।
बीजेपी के रणनीतिकार जानते हैं कि सपा को जाति और धर्म के नाम पर आसानी से घेरा जा सकता है। मुलायम सिंह को मुसलिमपरस्त घोषित करने के लिए बीजेपी उनपर रामभक्तों पर गोलियाँ चलाने का आरोप लगाती है। अखिलेश यादव सरकार (2012-2017) पर यादवों की दबंगई और मुसलमानों के संरक्षण के आरोपों को बढ़ा चढ़ाकर बीजेपी के नेता पेश करते हैं। सपा के खिलाफ ध्रुवीकरण करना बीजेपी को सहज लगता है।
पश्चिमी यूपी में बदले हालात
2013 में मुजफ्फरनगर में हुए मुसलिम-जाट दंगों का फायदा बीजेपी को मिला। बीजेपी ने 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में पश्चिमी यूपी में हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करके बड़ी जीत हासिल की। लेकिन पिछले दिनों (दिसंबर 2020 से जनवरी 2021 तक) लगभग 13 महीने चले किसान आंदोलन के कारण पश्चिमी यूपी में जाट मुस्लिम एकता कायम हुई है। इस इलाके में सांप्रदायिक सौहार्द और विश्वास फिर से बहाल हुआ है। इसलिए ध्रुवीकरण पर खड़ा बीजेपी का जाट आधार दरक चुका है।
बीजेपी नेताओं का विरोध
जाट किसानों की नाराजगी के कारण बीजेपी के विधायकों, प्रत्याशियों और नेताओं को तीव्र विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इस कारण बीजेपी के पश्चिमी यूपी प्रभारी अमित शाह लगातार आरएलडी नेता जयंत चौधरी को बीजेपी के पाले में लाने की जुगत कर रहे हैं।
दूसरी तरफ अमित शाह से लेकर योगी आदित्यनाथ चुनाव आचार संहिताओं की परवाह किए बगैर नफरती सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। सपाइयों पर दंगाई और दबंग होने के आरोप लगा रहे हैं। इतना ही नहीं बीजेपी नेताओं का दावा है कि योगी सरकार ने सपा के 'गुंडे, माफिया और दंगाइयों' पर बुलडोजर चलाया है। योगी सरकार की ठोको नीति को एकमात्र उपलब्धि के रूप में पेश किया जा रहा है।
एक तरफ मीडिया सर्वे में बीजेपी का सपा से सीधा मुकाबला और दूसरी तरफ बीजेपी नेताओं का सपा पर हमला, योगी सरकार से नाराज गैर यादव मतदाताओं को विकल्पहीन बना देना है।
खासकर ब्राह्मण और गैर जाटव दलित मतदाताओं को यादव़ों की दबंगई और मुसलमानों के संरक्षण का डर दिखाकर फिर से बीजेपी के साथ जोड़ने की रणनीति है। बीजेपी नेताओं का विश्वास है कि तीसरा विकल्प नहीं होने की स्थिति में यह मतदाता आक्रामक हिंदुत्व और 'ठोकने वाले' कानून व्यवस्था के नाम पर बीजेपी को वोट करने के लिए मजबूर होगा।
लेकिन पिछले एक पखवाड़े में यूपी का राजनीतिक परिदृश्य बदलने लगा है। लगभग गायब करार दी गई बसपा धीरे-धीरे चुनावी लड़ाई में आती हुई दिखने लगी है। यह किसी करिश्मे से कम नहीं है। दरअसल, दलितों की नुमाइंदगी करने वाली मायावती पिछले 5-6 साल से खामोश हैं। हर मौसम में सक्रिय रहने वाला उनकी पार्टी का कैडर भी निष्क्रिय है। बामसेफ को तो उन्होंने पहले ही छोड़ दिया है। माना जाता है कि पार्टी की नियमित बैठकें भी बंद हो गई हैं।
लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक रूप से सपा बसपा गठबंधन और उसकी अप्रत्याशित पराजय के बाद मायावती द्वारा गठबंधन को छोड़ देने के बाद उनकी पार्टी के लालजी वर्मा और राम अचल राजभर सरीखे तमाम नेता पार्टी छोड़कर अखिलेश की साइकिल पर सवार हो गए। हाथरस से लेकर आगरा, आजमगढ़ और इलाहाबाद में हुई दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर मायावती ने केवल ट्वीट किया। वे योगी सरकार को घेरने में संकोच करती रहीं। आगे चलकर मीडिया और संघ द्वारा प्रचारित ब्राह्मणों के उत्पीड़न और नाराजगी के नैरेशन के जाल में भी वे फंसती नजर आईं। उन्होंने ब्राह्मण नेताओं के सम्मेलन आयोजित किए। सत्ता में आने के बाद परशुराम की मूर्ति लगाने का वादा किया।
खामोशी पर सवाल
मायावती के इस वैचारिक विचलन के कारण यूपी की राजनीति से उनके समर्थकों को निराशा हुई और साथ ही राजनीति से दलित एजेंडा भी गायब हो गया। दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर अखिलेश यादव भी ट्वीट करने से बचते रहे। हालांकि प्रियंका गांधी ने दलित उत्पीड़न पर सरकार को घेरते हुए घटनास्थलों का दौरा किया।
बावजूद इसके राजनीतिक और मीडिया विमर्श से दलित एजेंडा गायब ही रहा। पिछले तीन दशक की राजनीति में यह पहली बार हुआ है और इसका सबसे बड़ा कारण मायावती की खामोशी है।
योगी सरकार द्वारा प्रताड़ित और हाशिए पर धकेले गए दलित, पिछड़ों और ब्राह्मण नेताओं ने अखिलेश यादव की ओर रुख किया। सपा का कुनबा बढ़ने लगा। अखिलेश यादव योगी आदित्यनाथ से सीधे मुकाबले में दिखने लगे। मायावती तब भी खामोश रहीं। लेकिन सच्चाई कुछ और है। खामोश रहते हुए मायावती ने अपने सेक्टर प्रभारियों को सक्रिय किया। उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को मुस्तैद किया।
चार बार की मुख्यमंत्री मायावती प्रत्येक विधानसभा के जातीय समीकरण बहुत बारीकी से समझती हैं। खामोश और निष्क्रिय होने के आरोपों के बावजूद मायावती विचलित नहीं हुईं। इसकी वजह उनका अपना कोर वोटर है।
जाटव आज भी उनके साथ पूरी तरह खड़ा है। यह भरोसा ही उन्हें मजबूत करता है। इसलिए उन्होंने नौजवान नेता चंद्रशेखर को कभी तवज्जो नहीं दी। लेकिन अखिलेश यादव ने जाटव वोट को जोड़ने के लिए चंद्रशेखर को दो सीटें देने की पेशकश की। अधिक सीटें पाने की प्रत्याशा में चंद्रशेखर ने अखिलेश यादव पर दलितों का अपमान करने का आरोप लगाया।
अखिलेश यादव से 'छले' जाने से भावुक हुए चंद्रशेखर के बयान के बाद जाटव समाज और अधिक मजबूती से मायावती के साथ खड़ा हो गया। इस प्रकरण का फायदा भी मायावती को मिला।
अखिलेश यादव जब बड़ी-बड़ी विजय यात्राओं में व्यस्त थे, मायावती खामोशी से प्रत्येक विधानसभा में सामाजिक समीकरणों के आधार पर अपने प्रत्याशियों का चयन कर रही थीं।
बसपा पहले विधानसभा प्रभारी नियुक्त करती है और आमतौर पर इन्हें ही अपना प्रत्याशी घोषित करती है। जब सपा के प्रत्याशी टिकट पाने की जुगत में लखनऊ में डेरा जमाए हुए थे, बसपा के प्रभारी और कार्यकर्ता जमीन पर लोगों के बीच प्रचार करने में जुटे हुए थे। मायावती ने बड़ी सूझबूझ के साथ प्रत्येक विधानसभा और उसके इर्द गिर्द ऐसे प्रत्याशियों का चयन किया, जो समाज की तमाम बड़ी आबादी वाली जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही सपा और बीजेपी में जगह नहीं पाने वाले जमीनी कद्दावर नेताओं को भी प्रत्याशी बनाकर मायावती ने सपा और बीजेपी के पसीने छुड़ा दिए।
इसका नतीजा यह हुआ कि जो पार्टी चुनावी जंग से बाहर दिख रही थी, अचानक मजबूत प्रतिद्वन्द्वी बनकर खड़ी हो गई।
दरअसल, मायावती की खामोशी रणनीतिक है। लेकिन आने वाला समय बताएगा कि मायावती की यह रणनीति सफल साबित होती है या नहीं।