क्या बीस साल बाद एक बार फिर से किसी सरकार की वापसी होगी? क्या योगी आदित्यनाथ बीजेपी के पिछले रिकॉर्ड को दोहराएंगे? ऐसे बहुत से सवालों के साथ यूपी के विधानसभा के दो आखिरी चरणों में वोट डाले जाएंगे। इन दो चरणों में 111 सीटों पर वोट डाले जाने है। 2017 में बीजपी ने 75 सीटें हासिल की थी । इन चरणों में जातीय आधारित राजनीतिक दलों की मौजूदगी भी दिखाई दी थी। ये दो चरण यह भी तय करेंगे कि क्या अखिलेश यादव का सामाजिक समीकरणों को साधने का प्रयोग सफल होगा? क्या छोटे छोटे राजनीतिक दलों से समाजवादी पार्टी का गठबंधन उनको सीटों की बड़ी तादाद दे पाएगा? या बीजेपी अपने पुराने राजनीतिक समीकरणों के साथ लौट रही है?
इनमें जहां गोरखपुर मंडल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का तो वाराणसी मंडल प्रधानमंत्री मोदी का क्षेत्र है जबकि आजमगढ़ का इलाका अखिलेश यादव का माना जाता है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक अखिलेश यादव ने इन चुनावों में ना केवल अपनी और पार्टी की छवि को बदलने की कोशिश की है बल्कि चुनाव जीतने के हर संभव उपाय को आजमाया है।
इन चुनावों में समाजवादी पार्टी नए ब्रांडिग और पैकेज के साथ है। नेता भी नया है। अब इसके पैकेज से परिवारवाद और यादववाद की धूल को झाड़ दिया गया है। बरसों से पार्टी को संभाल रहे नेताजी मुलायम सिंह यादव नहीं है। पिछली बार मुलायम सिंह की लीडरशिप में चुनाव लड़ा गया लेकिन नतीजों के बाद उन्होंने सिंहासन बेटे अखिलेश को सौंप दिया। इस बार यह लड़ाई खुद अखिलेश ने लड़ी है, उसकी रणनीति खुद ने तैयार की है यानी जीत और हार का सेहरा सिर्फ़ उनके सेहरे पर बंधेगा। यह चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य की तस्वीर को और साफ करेगा।
बीजेपी-सपा का सीधा मुक़ाबला
चुनाव नतीजा भले ही कुछ भी हो लेकिन इतना कहा जा सकता है कि चुनावों के ऐलान से छह महीने पहले इस चुनाव में योगी आदित्यनाथ की एकतरफा जीत मानी जा रही थी और विपक्ष दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। अब यह चुनाव बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच कड़े मुकाबले का चुनाव हो गया है।
इस चुनाव में वो समाजवादी पार्टी के अकेले नेता है, जो भारतीय जनता पार्टी के दिग्गजों की फौज के सामने खड़े दिखाई देते हैं। सारा चुनाव प्रचार का काम उनके जिम्मे आ गया, जहां भी जाना ज़रूरी था वहां उनका रथ चलता गया। सोशल मीडिया पर भी वो ही दिखाई दिए। इस दौरान उनके करीब पचास लाख फालोवर्स बढ़ गए। सोशल मीडिया पर यानी वो नई पीढ़ी को अपने साथ जोडने में काफी हद तक कामयाब होते दिखते हैं। उन्होंने बेरोज़गारी को प्रमुख मुद्दा बनाया।
योगी भी लड़ रहे विधानसभा चुनाव
यह पहला मौका है जब अखिलेश विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। उनको यह फ़ैसला शायद इसलिए करना पड़ा क्योंकि मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था। योगी गोरखपुर से विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। साल 2017 के चुनाव में बीजेपी ने बहुमत हासिल होने के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला किया था, तब वो भी गोरखपुर से सांसद थे, फिर उन्होंने विधानसभा पहुंचने के लिए विधान परिषद का रास्ता अपनाया, जैसे 2012 में अखिलेश ने किया था।
इस बार मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और समाजवादी पार्टी के सीएम चेहरा अखिलेश दोनों ही पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। वैसे यादवों की राजनीति से दूर रहने की कोशिश करते अखिलेश ने यादव बाहुल्य सीट पर ही चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। अखिलेश मैनपुरी जिले की करहल विधानसभा सीट से मैदान में उतरे । इस सीट पर करीब सवा लाख यादव वोट हैं।मुलायम सिंह यादव मैनपुरी सीट से सांसद हैं। करहल से ही मुलायम सिंह ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और वहीं शिक्षक की नौकरी भी की। करहल में पिछले तीन विधानसभा चुनावों से समाजवादी पार्टी ही जीतती आई है। 2017 के चुनाव में बीजेपी की लहर के बावजूद समाजवादी पार्टी ने यह सीट करीब 38 हज़ार वोटों से जीती थी। उनके चाचा शिवपाल यादव का इलाका जसवंतनगर और यादव परिवार का गांव सेफई भी यहीं हैं। इसके अलावा मैनपुरी की दूसरी सीटों पर अखिलेश यादव के उतरने का असर पड़ेगा।
अखिलेश यादव चुनावी राजनीति में पहली बार 2000 में उतरे थे। जब कन्नौज लोकसभा सीट पर उप चुनाव में जीत कर वे संसद में पहुंचे। फिर 2004 में भी कन्नौज की नुमाइंदगी की। इसके बाद 2009 के चुनाव में अखिलेश ने कन्नौज और फिरोज़ाबाद की दो सीटों से लोकसभा चुनाव लड़ा और दोनों जगह जीते, बाद में फिरोज़ाबाद सीट को छोड़ दिया। 2012 में समाजवादी पार्टी का बहुमत आने पर वो मुख्यमंत्री तो बने लेकिन विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा और विधान परिषद से सदन में रहे। 2017 में भी उन्होंने विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा और 2019 में लोकसभा चुनाव में आज़मगढ़ से नुमाइंदगी की।
एक ज़माने में जब मुलायम सिंह का ‘क्रांति रथ’ उत्तर प्रदेश में दौड़ रहा था तो उसकी चकाचौंध ने अखिलेश को राजनीति की तरफ खींचा। उस समय वो 12 वीं में पढ़ रहे थे। फिर मैसूर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और उसके बाद आस्ट्रेलिया जाकर पोस्ट ग्रेजुएशन किया और लौटकर राजनीति के अखाड़े में कूद पड़े।
साल 2012 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही अखिलेश ने पार्टी को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की। साल 2017 के चुनावों से पहले कांग्रेस उनकी सरकार के ख़िलाफ़ प्रदेश भर में आक्रोश रैली निकाल रही थी लेकिन चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के राहुल गांधी से हाथ मिला लिया । नारा दिया- ‘यूपी के दो लड़के’, ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ लेकिन वोटर को यह साथ पसंद नहीं आया। समाजवादी पार्टी को सिर्फ 47सीटें मिलीं। कांग्रेस को जो सौ सीटें उन्होंने दी थी, उसमें से सिर्फ सात ही जीत पाई। बीजेपी का पन्द्रह साल पुराना राजनीतिक वनवास खत्म हो गया।
बीएसपी से मिलाया हाथ
दो साल बाद हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने एक और प्रयोग किया, अपने पुराने राजनीतिक प्रतिद्वन्दी बीएसपी के साथ जाकर। अखिलेश तो आजमगढ़ से चुनाव जीत गए लेकिन पार्टी को केवल सिर्फ पांच सीटें ही मिल पाई। बीएसपी ने दस सीटें हासिल की, दोस्ती टूट गई। अब इस बार समाजवादी पार्टी ने रणनीति में एक बार फिर बदलाव किया है। इस बार किसी बड़ी पार्टी के साथ दोस्ती करने के बजाय छोटी-छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया है जिससे उसे गैर-यादव ओबीसी वोट मिलने की भी उम्मीद है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अखिलेश ने राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी के साथ गठबंधन करके अपनी ताकत बढ़ाई है। यह चुनाव ना केवल अखिलेश की छवि बदलने में मदद कर सकता है बल्कि उन्हें पार्टी का एकमेव नेता बना देगा जिसे चुनौती देना मुश्किल होगा और लखनऊ से दिल्ली का रास्ता भी खुल सकता है।
परिवारवाद का तंज
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि समाजवादी पार्टी को अब तक यादवों की पार्टी माना जाता है और साथ ही उस पर परिवारवादी पार्टी का आरोप लगता रहा है। मुलायम सिंह यादव के परिवार में करीब दो दर्जन लोग सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहे हैं, उनमें मुलायम सिंह, उनके भाई, समधी, बेटे, भतीजे, पौत्र, बहु और दूसरे रिश्तेदार शामिल रहे हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों में ही अखिलेश परिवार से पांच सांसद रहे थे।परिवारवादी छवि का नुकसान उन्होंने साल 2017 के विधानसभा चुनाव में और फिर साल 2019 के लोकसभा चुनावों में भी उठाया। 2017 के विधानसभा चुनाव में करीब चालीस फीसदी सीटें यादव और मुसलमानों को दी गई । हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक जनसभा में कहा कि प्रदेश को इन ‘घोर परिवारवादियों’ ने बहुत नुकसान पहुंचाया है।
इस बार अखिलेश ना केवल यादवों और मुसलमानों से दूरी बना रहे हैं बल्कि गैर यादवों और ब्राह्मणों के साथ नजदीकी दिखाने की कोशिश की है। इस छवि को तोड़ने के लिए अखिलेश ने यादवों के अलावा गैर-यादव ओबीसी वाली छोटी पार्टियों को साथ जोड़ने की पहल की। टिकट देते वक्त भी जातीय संतुलन बनाने की कोशिश की गई ।
12 फीसद यादव
वैसे भी यूपी में 12 फीसदी यादवों के भरोसे सरकार बनाना मुश्किल काम है इसलिए बाक़ी बचे 30 फीसदी ओबीसी में से अपने लिए हिस्सा निकालना ज़रूरी है। उम्मीदवारों की सूची में यादव और मुसलमानों को कम अहमियत दी गई, साथ ही चुनाव प्रचार में भी यादव परिवार के सदस्यों को नहीं रखा गया है। यादव परिवार में अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव के अलावा किसी को विधानसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया गया।शिवपाल यादव ने अपनी अलग पार्टी बना ली, वो सौ सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन अखिलेश ने केवल उन्हें टिकट दिया। उनके बेटे को भी टिकट नहीं मिला है। एक और चचेरे भाई और पूर्व सांसद तेजप्रताप भी टिकट चाहते थे, लेकिन नहीं दिया गया। एक और चचेरे भाई अंशुल को भी टिकट नहीं मिला।
परिवार में धर्मेन्द्र यादव, तेज प्रताप, अक्षय और डिंपल यादव पिछली बार लोकसभा चुनाव नही जीत पाए थे, लेकिन किसी को विधानसभा चुनाव में मौका नहीं दिया गया। मुलायम सिंह के समधी हरिओम यादव पिछली बार सिरसागंज से चुनाव जीते थे, इस बार उनका टिकट कट गया तो वो बीजेपी के उम्मीदवार बन गए हैं।
दस साल पहले 15 मार्च 2012 को 38 साल की उम्र में अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। दस मार्च को समाजवादी पार्टी विधायक दल का नेता चुना गया ,तब ये मौका उन्हें मुलायम सिंह यादव ने दिया। अब वो खुद चुने हुए नेता हैं। एकछत्र नेता हैं।और इसका यह इम्तिहान है कि उनका ‘इंजन’ क्या “डबल इंजन” को मात दे पाएगा।
यदि ऐसा हो पाया तो लखनऊ स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर उनकी गाड़ी होगी, जहां बाहर लिखा है -मुस्कराइए, आप लखनऊ में हैं।