भोपाल की रैली से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश चुनाव का आगाज कर दिया। 'अपना बूथ, सबसे मजबूत' कार्यक्रम में उन्होंने समान नागरिक संहिता के मुद्दे को उठाया। उन्होंने कहा कि 'एक परिवार में दो कानून नहीं चल सकते। इससे परिवार नहीं चल सकता तो देश कैसे चलेगा। हमारा संविधान सभी लोगों को समान अधिकार की गारंटी देता है।' क्या मोदी जी को झूठ बोलने की आदत है? या यह मोदी की अज्ञानता है? जैसाकि पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक कहते हैं कि मोदी ज्यादा कुछ नहीं जानते। वे 'इल इनफॉर्म्ड' हैं। अगर केवल पर्सनल कानून की बात करें तो इस देश में चार अलहदा नागरिक संहिताएं मौजूद हैं।
औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों द्वारा पूरे देश में एक आपराधिक संहिता बनाई गई। 1830 में लॉर्ड मैकाले ने आईपीसी को लागू किया। लेकिन धर्मों, पंथों के निजी कानून नहीं बदले गए। बल्कि उन्हें वैधानिकता प्रदान की गई। 1873 में ईसाई मैरिज एक्ट बनाया गया। 1936 में पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट लागू किया गया। इसके एक साल बाद 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ वजूद में आया। इसी तरह हिन्दुओं के लिए 1941 में स्थापित हिंदू लॉ कमेटी ने 1944 में हिंदू कोड का मसविदा तैयार किया। लेकिन आजादी के बाद संविधान सभा में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) बनाने का प्रयास किया गया। 23 नवंबर 1948 को इस पर बहस शुरू हुई। करीब एक दर्जन प्रतिनिधियों ने इसमें हिस्सा लिया। कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने यूसीसी के समर्थन में अपने तर्क प्रस्तुत किए। आधुनिक विचारों और पाश्चात्य कानूनों के समर्थक जवाहरलाल नेहरू और डॉ. आंबेडकर भी यूसीसी के पक्ष में थे। जबकि मोहम्मद इस्माइल, नजीरुद्दीन अहमद, महमूद अली बेग, बी. पोकर और हुसैन इमाम; इन 5 प्रतिनिधियों ने समान नागरिक संहिता का विरोध किया। मुस्लिम समाज विभाजन के समय डर और आशंका में जी रहा था। उसकी आशंका और विरोध के कारण जवाहरलाल नेहरू, बाबा साहब आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी सहित अन्य लोग समान नागरिक संहिता को स्थगित करने पर सहमत हो गए। इसके बाद समान नागरिक संहिता को अनुच्छेद 44 के तहत नीति निर्देशक तत्व में शामिल किया गया। अल्पसंख्यक सलाहकार समिति की अनुशंसा थी, कि मुस्लिम समाज की सहमति से ही समान नागरिक संहिता को लागू किया जाए। गौरतलब है कि इस समिति में आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी शामिल थे।
समान नागरिक संहिता जनसंघ और भाजपा सहित तमाम दक्षिणपंथी दलों का प्रमुख मुद्दा रहा है। आरएसएस, हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद, जनसंघ और 1980 में स्थापित भाजपा की राजनीति के तीन प्रमुख मुद्दे रहे हैं-धारा 370 हटाकर कश्मीर की स्वायत्तता को समाप्त करना, राम मंदिर निर्माण और समान नागरिक संहिता लागू करना। एनडीए सरकार के दौरान भाजपा ने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में इन मुद्दों को स्थगित कर दिया था। लेकिन 2002 के गुजरात दंगों के बाद हिंदू हृदय सम्राट बनकर उभरे नरेंद्र मोदी कारपोरेट हिंदुत्व के रथ पर सवार होकर 2014 में 282 सीटें जीतकर प्रधानमंत्री बने। इसके बाद 2019 के चुनाव में पहले से अधिक 303 सीटें जीतकर नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बने। उनके नंबर दो अमित शाह गृहमंत्री बने।
5 अगस्त 2019 को अमित शाह ने संसद में धारा 370 को खत्म करके जम्मू-कश्मीर को 2 केंद्र शासित प्रदेशों (जम्मू- कश्मीर और लद्दाख) में विभाजित करके पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त कर दिया। भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी बताने वाले नरेंद्र मोदी ने कश्मीर में लोकतंत्र को अब तक बहाल नहीं किया है। राज्यपाल और सेना के जरिए कश्मीर का प्रशासन संचालित किया जा रहा है। क्या यह इसलिए किया गया क्योंकि कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं? क्या मुसलमानों के खिलाफ मध्यवर्गीय और सवर्ण हिंदुओं के मन में व्याप्त नफरत को इसके जरिए पुष्ट किया गया?
धारा 370 के खत्म करने के ठीक एक साल बाद 5 अगस्त 2020 को राम मंदिर का शिलान्यास हुआ। गौरतलब है कि मंदिर आंदोलन के दौरान 9 नवंबर 1989 को अयोध्या के कथित विवादित ढांचे के समीप विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए बिहार के दलित स्वयंसेवक कामेश्वर चौपाल द्वारा पहली ईंट रखवाई थी। अजीब इत्तेफाक है कि ठीक 30 साल बाद 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर निर्माण के पक्ष में फैसला दिया। कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को आपराधिक कृत्य मानते हुए भी कल्पित हिंदू भावनाओं को आधार मानकर विवादित ढांचे के स्थान पर राम मंदिर निर्माण का आदेश पारित किया।
मंदिर के शिलान्यास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत पहुंचे लेकिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को आमंत्रित नहीं किया गया। एक सवाल तो पूछा ही जा सकता है। क्या दलित होने के कारण उन्हें नहीं बुलाया गया था?
अब मोदी ने भाजपा का तीसरा मुद्दा उछाल दिया है। ऐसा लगता है कि यूसीसी और राम मंदिर 2024 के लोकसभा चुनाव के हिंदू ध्रुवीकरण के लिए प्रमुख मुद्दे होंगे। 22 जनवरी 2024 को मंदिर का उद्घाटन प्रस्तावित है। इसके बाद धार्मिक रंग में होने वाले पोलिटिकल इवेंट की हम कल्पना कर सकते हैं। लेकिन यूसीसी का मसला बहुत पेचीदा है। क्या समान नागरिक संहिता लागू करने में मोदी कामयाब होंगे? क्या माहौल को गरमाने का प्रयास हो रहा है? क्या यह सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जुमला मात्र है? दरअसल, विविधतापूर्ण भारत में समान नागरिक संहिता लागू करना आसान नहीं है। इसके ज़रिए मोदी मुस्लिम समाज को टारगेट कर रहे हैं। लेकिन हिन्दू समाज में भी अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। क्या दक्षिण भारत के हिंदुओं की सामाजिक मान्यताएं उत्तर भारत में स्वीकार हो सकती हैं? मसलन, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में मामा भांजी का विवाह होता है। इसे उत्तर भारत का हिंदू समाज स्वीकार नहीं कर सकता। असली चुनौती आदिवासी समाज की होगी। पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्यों-नागालैंड और मिजोरम में आदिवासियों के अपने निजी कानून हैं। आदिवासियों में बहुपत्नी (पोलीगेमी) और बहुपति (पोलीएंड्री) प्रथाएं मौजूद हैं।
दरअसल, आदिवासी हिन्दू नहीं है। लेकिन आरएसएस का वनवासी कल्याण आश्रम राम कथा और महाभारत के ज़रिए आदिवासियों को हिंदू पहचान के साथ जोड़ने की निरंतर कोशिश करता रहा है। संघ उन्हें हिंदू धर्म के भीतर शूद्र वर्ण में पिरोना चाहता है। लेकिन आदिवासी किसी धर्म को नहीं मानते। वे प्रकृति पूजक हैं। वे कर्मकांड को नहीं मानते। उनकी अलग अस्मिता और अपनी संस्कृति है। आरएसएस द्वारा बलात् हिंदूकरण के विरोध में तमाम आदिवासी संगठन अपने लिए सरमा धर्म कोड की मांग कर रहे हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की मांग है कि जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग से कॉलम होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2001 के एक फ़ैसले में स्वीकार किया है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। उनके अपने रीति-रिवाज हैं। इसलिए उन पर हिंदू क़ानून लागू नहीं हो सकते। भारत में 700 से अधिक आदिवासी समूह हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी 8.2 फीसदी है। भाजपा आदिवासियों को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है। इसीलिए नरेंद्र मोदी सरकार ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया है। लेकिन आदिवासी समाज यूसीसी को नहीं स्वीकार कर सकता। इसीलिए यूसीसी का मुद्दा भाजपा के लिए दोधारी तलवार है।