बिहार में इस समय भारतीय जनता पार्टी ईबीसी यानी अत्यंत पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए इतनी जोरदार आवाज बुलंद कर रही है कि इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि उसे कभी आरक्षण विरोधी और सवर्ण जातियों की पार्टी माना जाता था। आरक्षण की वकालत का मौका उसे पटना हाईकोर्ट के उस फ़ैसले के बाद मिला है जिसके कारण नगर निकाय चुनावों में पिछड़ा वर्ग के लिए घोषित आरक्षण लटक गया है। हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का हवाला देते हुए यह फ़ैसला दिया है कि पिछड़े वर्ग के लिए चुनावों में आरक्षण ट्रिपल टेस्ट के मानक से तय किए जाएँ।
इत्तेफाक की बात है कि बिहार में नगर निकाय चुनाव का पहला चरण 10 अक्टूबर को होने वाला था मगर हाइकोर्ट के फ़ैसले के कारण बिहार सरकार आरक्षण की पुरानी व्यवस्था को लागू करवाने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दे रही है।
भाजपा के इस आरक्षण प्रेम को समझने के लिए ज़रूरी है कि 2015 के विधानसभा चुनाव को याद किया जाए। उस समय आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर पुनर्विचार संबंधी एक बयान दिया था जिसे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों ने चुनावी मुद्दा बना दिया था। उस समय भाजपा को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। 2017 में नीतीश ने दोबारा भाजपा से हाथ मिला लिया लेकिन 9 अगस्त 2022 को जब उन्होंने फिर से नाता तोड़कर आरजेडी से हाथ मिलाया तो भाजपा ने नीतीश कुमार पर हमले के मुद्दे तलाशना शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत तो उन्होंने जंगल राज के आरोप से किया था लेकिन अब उसका फोकस ईबीसी आरक्षण है।
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलने के बाद जो चुनावी समीकरण बनते हैं उसमें पहले यह माना जाता था कि भाजपा के लिए सिर्फ ऊंची जातियों का विकल्प बच जाता है। याद रखने की बात यह है कि 2005 से 2020 तक के चुनाव में चार बार विधानसभा चुनाव हुए और 2015 को छोड़ दिया जाए तो भाजपा को ईबीसी वोट मिलने का सबसे बड़ा कारण नीतीश कुमार का साथ था।
अब नीतीश कुमार उनके साथ नहीं हैं तो भाजपा ईबीसी के उस वोट बैंक को लेकर बेहद सतर्क और चिंतित नजर आती है। दिलचस्प बात यह है कि नगर निकाय चुनाव के लिए जिस विभाग की यह जिम्मेदारी थी कि वह सुप्रीम कोर्ट के ट्रिपल टेस्ट के अनुसार आयोग बनाकर आरक्षण की घोषणा करे वह 18 महीने छोड़कर लगातार भाजपा के पास था।
जानकार बताते हैं कि ईबीसी की 113 जातियाँ जनसंख्या के हिसाब से बिहार में 35% से अधिक हैं। चूँकि इस आरक्षण से ओबीसी में आने वाली लालू और नीतीश की जातियाँ क्रमशः यादव और कुर्मी बाहर हैं इसलिए भाजपा ओबीसी के बारे में कुछ नहीं कह रही है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जदयू के दूसरे नेता लगातार इस बात को दोहरा रहे हैं कि ईबीसी के लिए जो आरक्षण तय हुए हैं उसकी नियमावली 2007 में बनी थी। तब से तीन बार यानी 2007, 2012 और 2017 में उसी नियमावली के अनुसार चुनाव हुए हैं। राजनैतिक पिछड़ापन घोषित करने के लिए आयोग बनाने की बात सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में कही थी। उसके बाद दो चुनाव हुए लेकिन भाजपा ने तब यह बात नहीं उठाई थी। जदयू के नेताओं का यह आरोप भी है कि इस मुद्दे को हाईकोर्ट ले जाने वाले ज्यादातर याचिकाकर्ता भाजपा से जुड़े हुए हैं।
भाजपा की ओर से इस मुद्दे को सबसे जोरदार ढंग से उठाने वालों में शामिल पूर्व मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी नीतीश कुमार पर शिथिलता का आरोप लगाते हैं। उनका दावा है कि उन्होंने पिछले एक साल से इस बारे में सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। मोदी ने दावा किया कि राज्य के महाधिवक्ता ललित किशोर ने 4 फरवरी, 2022 तथा 12 मार्च, 2022 को राज्य सरकार को परामर्श दिया कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार विशेष आयोग गठित करना ज़रूरी है। उन्होंने यह दावा भी किया कि राज्य निर्वाचन आयोग ने 22 मार्च, 2022 एवं 11 मई, 2022 को राज्य सरकार को पत्र लिखा जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के तीन निर्णयों को उद्धृत किया जिसमें विशेष आयोग गठित कर ट्रिपल टेस्ट के आधार पर स्थानीय निकाय चुनाव कराने का निर्देश है। फिर उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि इसके बावजूद नीतीश कुमार के दबाव में एजी को अपनी राय बदलनी पड़ी, परंतु राज्य निर्वाचन आयोग अपने पत्र पर अडिग था।
सुशील मोदी और भाजपा यह साबित करने की कोशिश में है कि नीतीश कुमार अति पिछड़ा के साथ नहीं है। वे इस बहस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी ले आए हैं। उनका कहना है कि नीतीश कुमार जानते हैं कि बिहार के अति पिछड़ा नरेंद्र मोदी के साथ है इस कारण उन्हें अब अति पिछड़ों की चिंता नहीं है।
सुशील मोदी तो यह कह रहे हैं कि 'अति पिछड़ों को आरक्षण से वंचित करने की जिम्मेदारी' लेकर नीतीश कुमार इस्तीफा दें।
भाजपा के इन हमलों का जवाब देने में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह और वरिष्ठ नेता जदयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा आगे आगे हैं।
कुशवाहा बार-बार कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देने पर कहते हैं कि जब यहां एनडीए की सरकार थी और नगर विकास मंत्री भाजपा के ही नेता थे तब आयोग बनाने की बात कहां भूल गए थे। वे इसे जातीय जनगणना से जुड़ा हुआ मामला बता रहे हैं। वे कह रहे कि सरकार के पास 1931 वाला ही आंकड़ा है जिसे उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय कई बार मानने से मना कर चुका है। अपने आलाकमान से कहिए इधर-उधर की बात न कर जातीय जनगणना कराए। वे आरोप लगाते हैं कि भाजपा थोथी और बेईमानी भरा बयान देकर फिर से अतिपिछड़ों/पिछड़ों की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास कर रही है।
जदयू अध्यक्ष ललन सिंह ने भी इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम घसीटा है।
वे कह रहे, "बिहार में अति पिछड़ा वर्ग की ताकत नीतीश कुमार हैं और गुजरात की तरह बिहार में आरक्षण खत्म करने की भाजपाई साज़िश असफल साबित होगी।" वे सुशील मोदी पर आरोप लगाते हैं कि "उनमें अब सत्य बोलने का साहस नहीं रहा।" उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा: इनके (सुशील कुमार मोदी के) नेता नरेंद्र मोदी सिर्फ़ राजनीतिक लाभ लेने के लिए पिछड़ा वर्ग से हैं। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी ने "गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी कलम से अपनी जाति को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया था। अब इनकी पार्टी संवैधानिक आरक्षण को समाप्त करने की साज़िश रच रही है।"
साफ़ है कि जदयू हाईकोर्ट के इस फ़ैसले का इस्तेमाल भाजपा को आरक्षण विरोधी साबित करने के लिए करना चाहता है। आने वाले दिनों में भाजपा और जदयू के बीच इस मुद्दे को लेकर काफी जोरदार टकराव होने की संभावना है।